जलवायु अनुकूल कृषि से सतत उत्पादन      Publish Date : 15/01/2025

                       जलवायु अनुकूल कृषि से सतत उत्पादन

                                                                                                                                             प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु

कृषि क्षेत्र में, गरीबी समाप्त करने और सतत विकास के प्रयासों के साथ-साथ खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा, जल और स्वास्थ्य से संबंधित प्रयासों पर हमें और अधिक ध्यान देना होगा। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ग्रीनहाउस गैस (जी.एच.जी.) उत्सर्जन में महत्वपूर्ण और  दीर्घकालिक  कटौती  करना जरूरी है। यह कटौती जब अनुकूलन पद्वति के साथ जोड़कर की जाती है, तो जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले जोखिमों को अच्छे तरीके से कम किया जा सकता है।

                                                       

जलवायु परिवर्तन से जुड़ी समस्याओं को कम करने के लिए अनुकूलन और शमन नीतियों को मिलकर अपनाना आवश्यक है। जलवायु परिवर्तन निसन्देह एक सतत  चिंता का विषय है। अतः इससे निपटने के लिए विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर व्यापक जोर देने की आवश्यकता है। इसी के मद्देनजर, फरवरी  वर्ष 2011 में एक प्रमुख नेटवर्क परियोजना, जिसका नाम ‘‘जलवायु अनुकूलन कृषि पर राष्ट्रीय पहल’’ है, को शुरू किया गया था।

पुनः अगली वित्तीय योजना में, इसका नाम बदलकर जलवायु अनुकूलन कृषि पर राष्ट्रीय नवाचार कर दिया गया था। इस योजना के अंतर्गत मौसम के स्वरूप, मृदा के गुणधर्म और फसल की पैदावार पर डाटा संग्रहण के माध्यम से शोधकर्ताओं को जलवायु परिवर्तन से आने वाली विशिष्ट चुनौतियों की पहचान करना आसान होगा।

इक्कीसवीं सदी के सबसे बड़े वैश्विक मुद्दों में से एक जलवायु परिवर्तन है, जो हाल के वर्षों में चर्चा का एक प्रमुख विषय भी रहा है। जलवायु परिवर्तन से सभी राष्ट्र नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहे हैं। जबकि विकासशील राष्ट्र इस समस्या से अधिकता से प्रभावित हो रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के अंतर्गत, तापमान में वृद्वि, मौसम के स्वरूप में बदलाव और लगातार बढ़ती चरम मौसम की घटनाएं शामिल हैं। मानवीय गतिविधियां, विशेष रूप से जीवाश्म ईंधन का जलना, वनों की कटाई और औद्योगिक प्रथाएं आदि कृत्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ावा दे रही हैं।

इससे वायुमंडल के तापमान में बढ़ोतरी होती है। इसके प्रभाव व्यापक हैं, जो पारिस्थितिकी तंत्र कृषि, जल संसाधनों और सार्वजनिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। समुद्र का बढ़ता जल स्तर, तटीय समुदायों के लिए संकट बन रहा है, जबकि सूखा और अनियमित वर्षा, खाद्य सुरक्षा आदि के लिए और अनियमितता पैदा करते हैं। पर्यावरण से परे जलवायु परिवर्तन, अर्थव्यवस्थाओं को भी बाधित करता है एवं समाज में असमानता को बढ़ाता है।

एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधनः मृदा के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने और जलवायु संबंधी परेशानियों के प्रति समूहों की स्थानीयता को बढ़ाने की दिशा में एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन अति महत्वपूर्ण है। इस दृष्टिकोण के अंतर्गत रासायनिक उर्वरकों, जैविक खादों और जैव उर्वरकों का संतुलित उपयोग शामिल है।

वर्तमान परिदृश्य में मृदा का क्षरण एक बढ़ती हुई समस्या और एक चिंता का विषय है। आई.एन.एम. अत्यधिक उर्वरक उपयोग के पर्यावरणीय दुष्प्रभाव को कम करते हुए मृदा की उर्वराशक्ति बनाए रखने में मदद करता है। संरक्षण कृषि के रूप में जीरो टिलेज प्रथाएं और फसल अवशेष प्रबंधन, मृदा का संरक्षण, मृदा की संरचना और नमी बनाए रखने आदि में काफी मदद कर सकते हैं। ये प्रथाएं मृदा के असंतुलन को कम करती हैं और बेहतर कार्बन पृथक्ककरण की अनुमति देती हैं, जिससे कृषि प्रणालियों द्वारा दीर्घकालिक स्थिरता बनाई जा सकती है।

मिर्च और टमाटर की खेती में रिज और फर्रो तकनीकी, प्लास्टिक मल्चिंग एवं ड्रिप सिंचाई पद्वति का प्रयोग किया जा सकता है।

कृषि में जलवायु स्मार्ट दृष्टिकोणः देश के किसानों को जलवायु के अनुकूल कृषि के नियमों को ठीक से लागू करने के लिए जलवायु स्मार्ट तकनीकों का ज्ञान उन तक पहुंचाने की आवश्यकता है। देश में विद्यमान कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि विश्वविद्यालय और इसी प्रकार के अन्य विभिन्न संस्थान किसानों को सर्वोत्तम प्रथाओं के बारे में शिक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इन संस्थानों को जलवायु अनुकूलन प्रथाओं के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए क्षमता निर्माण कार्यशालाएं, क्षेत्र प्रदर्शन और किसानों से किसानों को सीखने के कार्यक्रम आयोजित करने की आवश्यकता है।

इसके साथ ही मोबाइल आधारित सलाहकार सेवाएं और जलवायु सूचना प्रणाली किसानों को रोपण समय, फसल विकल्प, जल प्रबंधन और कीट एवं रोग नियंत्रण के बारे में सूचित करने एवं निर्णय लेने में बेहतर तरीके से मदद कर सकती है। बेहतर निर्णय लेने के साथ-साथ बदलती जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल कृषि को बनाने के लिए किसानों के इन ज्ञान नेटवर्क को मजबूत करते हुए सशक्त बनाया जा सकता है। भंडारण सुविधाओं और फसल कटाई उपरांत प्रबंधन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, जिससे कि जलवायु अनुकूलन बुनियादी ढांचे का निर्माण कर सकना सम्भव हो सके।

फसल कटाई उपरांत बेहतर भंडारण की बेहतर सुविधा कृषि उत्पादों में होने वाले नुकसान को कम करती है और खाद्य सुरक्षा में बेहतर योगदान देती है। खेतों के लिए कार्बन संतुलन आधारित टिकाऊ ऊर्जा यानी सौर ऊर्जा से चलने वाले पंप, ऊर्जा, कुशल मशीनरी और नवीन ऊर्जा स्रोत, जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करते हैं जिससे खेती को अधिक टिकाऊ और जलवायु अनुकूलित बनाने और करने में सफलता मिलती है। जलवायु अनुमान और भविष्य की मॉडलिंग की स्थितियों का अनुमान लगाने और इनसे निपटने के लिए एक सक्रिय योजना बनाना संभव हो सकता है।

यह आकलन सुनिश्चित करता है कि जलवायु अनुकूलन कृषि रणनीति के प्रत्येक क्षेत्र में विशिष्ट जलवायु जोखिमों का सीधे समाधान प्रस्तुत कर सके। प्रमुख नीतियां जलवायु अनुकूलन कृषि का मुख्य उद्देश्य कृषि पद्वतियों को बदलती जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल बनाना आदि सम्मिलत है।

जलवायु अनुकूलन कृषि परिदृश्य के निर्माण के लिए पारंपरिक ज्ञान, आधुनिक तकनीकें और बदलती पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुकूल होने के लिए नीति समर्थन के मिश्रण की आवश्यकता होती है। यहां प्रमुख अनुकूलन पद्वतियों की चर्चा की गई है, जो समुत्थानशील कृषि के विकास में सहायक होगी। जल प्रबंधन जलवायु स्मार्ट कृषि में, कुशल सिंचाई प्रणालियों  और जल संरक्षण के माध्यम से पानी के उपयोग को व्यवस्थित करना शामिल है। ऐसे राज्यों में जहां पानी की कमी वहां का एक महत्वपूर्ण विषय है, ड्रिप और स्ंिप्रक्लर प्रणाली जैसी सूक्ष्म सिंचाई तकनीक किसानों को पानी की अधिक कुशलता से उपयोग करने में मदद कर सकती है।

ये विधियां पानी की बर्बादी को कम करती हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि फसलों को सूखे के दौरान भी सही मात्रा में नमी प्राप्त हो सके। सिंचाई के अलावा खेत  तालाबों, चैकडैम और कंटूर बंडिंग के माध्यम से जल संचयन के माध्यम से वर्षा जल को  एकत्र एवं संग्रहित किया जा सकता है। उदाहरण के  लिए, मध्य प्रदेश सरकार ने ‘जल अभिषेक’ नामक एक अभियान शुरू किया है, जो वाटरशेड विकास कार्यक्रमों और जल  प्रबंधन में सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से जल संरक्षण को बढ़ावा देने में सहायक साबित होगा।

कृषि वानिकी वर्तमान कृषि परिदृश्य में, कृषि के साथ वृक्षों और झाड़ियों के एकीकरण के द्वारा  कृषि वानिकी जलवायु अनुकूल कृषि को बढ़ावा देने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। वृक्षों से हमें विभिन्न प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं। यह तेज हवा के लिए अवरोधक का काम करते हैं, मृदा के कटाव को कम करते हैं, मृदा में कार्बन स्थिरता लाते हैं, जैव विविधता को बढ़ाते हैं और सूक्ष्म-जलवायु परिस्थितियों में व्यापक सुधार करते हैं। खेजड़ी (प्रोसोपिफस  सिनेरियो),  नीम (अजडीरेकटा इंडिका) और अन्य सूखा सहिष्णु प्रजातियां, जैसे पौधों को लगाने से प्रतिकूल मौसमी स्थिति के दौरान फसलों की रक्षा करने में मदद मिल सकती है।

इसके साथ ही लकड़ी, ईंधन और गैर-वन उत्पादों के माध्यम से अतिरिक्त आय के स्रोत की भी प्राप्ति हो सकती है। एकीकृत  कीट एवं रोग प्रबंधन (आईपीडीएम) जैविक नियंत्रण, प्रतिरोधी फसल किस्में और इष्टतम रोपण समय के साथ आईपीडीएम की तकनीकें, रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता को  कम  कर सकती हैं, जो कीटों के बदलते जलवायु के अनुकूल होने के कारण अप्रभावी भी हो सकती हैं। एक ही खेत में विविध प्रकार की फसलों को लगाने से जैव विविधता का विस्तार होता है। पूरी फसल को एकसाथ खराब होने का जोखिम काफी हद तक कम हो सकता है। इसके साथ ही कीटों और रोगों के विरूद्व परेशानियां भी कम हो सकती हैं।

दृष्टिकोण

डिजिटल और जलवायु सूचना सेवाएं वास्तविक  समय  के  मौसम  की जानकारी, किसानों को रोपण और कटाई आदि से लेकर पानी के प्रबंधन और कीट नियंत्रण के उपायों को लागू करने तक के समय पर निर्णय लेने में मदद करती हैं। पशुधन एवं मत्स्य पालन प्रबंधन पशुधन और मत्स्य पालन में ऐसी नस्लों को बढ़ावा देना चाहिए, जो गर्मी तनाव के प्रति अधिक सहिष्णु हों और जिन्हें कम पानी और चारे की आवश्यकता हो, जिससे कि उनकी उत्तम उत्पादकता को सुनिश्चित किया जा सके।

अंतर्देशीय क्षेत्रों में रोटेशनल चराई और मछलीपालन जैसी प्रथाएं प्राकृतिक कृषि प्रणाली की रक्षा करने और बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में वैकल्पिक आजीविका प्रदान करने में मदद कर सकती हैं।

सरकारी प्रयासः विभिन्न सरकारी एवं गैर सरकारी कार्यक्रमों में कृषि को जलवायु अनुकूल बनाने पर ध्यान दिया जा रहा है। प्रधानमंत्राी कृषि सिंचाई योजना का उद्देश्य सिंचाई दक्षता  बढ़ाना और  पानी  की  कमी  के  मुद्दों का समाधान करते हुए सूक्ष्म सिंचाई तकनीकों को बढ़ावा देना होगा। सतत कृषि के लिए राष्ट्रीय मिशन, एकीकृत प्रणालियों द्वारा मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन और  कृषि  वानिकी  प्रथाओं का समर्थन करता है।

इसके अलावा भारत में कई राज्य सरकारों ने अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के सहयोग से जलवायु अनुकूलन परियोजनाएं भी शुरू की हैं। यह परियोजनाएं, तनाव सहिष्णु फसल किस्म, जल संरक्षण और टिकाऊ खेती तकनीकों को बढ़ावा देने के माध्यम से सी.आर.ए. प्रथाओं को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करती हैं। जलवायु  परिवर्तन,  कृषि के लिए लगातार एक संकट बना हुआ है, इसीलिए जलवायु अनुकूल कृषि की ओर एक कदम आवश्यकता ही नहीं है, अपितु कृषि को टिकाऊ बनाने के लिए एक व्यवहारिक मार्ग भी है।

फसल विविधीकरण, जल स्मार्ट तकनीकी, कृषि वानिकी और  संधारणीय भूमि प्रबंधन प्रथाओं को अपनाकर, किसान उत्पादकता और अपनी आय में सुधार करते हुए कृषि में जलवायु अनुकूलन तकनीकी को अपना सकते हैं।

फसल विविध्ीकरणः फसल  विविधीकरण  और  उन्नत किस्म,  जलवायु  अनुकूलन  बढ़ाने के लिए एक शक्तिशाली प्रविधि है। कृषि में आकस्मिकता से निपटने के लिए धनिया, दलहन और तिलहन जैसी विविध फसलों की खेती को शुरू करने से जलवायु परिवर्तनशीलता के कारण होने वाले प्रभावों को अपने स्तर से कम किया जा सकता है। खासतौर पर कई व्यावसायिक फसलें कम पानी उपलब्धता वाले क्षेत्रों में किसी भी कठिन परिस्थितियों में उगाई जा सकती हैं।

फसल विविधीकरण के अलावा, जलवायु अनुकूल किस्मों का विकास और संवर्धन आवश्यक होता है। प्रमुख फसलों की नई किस्में जो शुष्क, गर्मी, रोगों और कीटों के संक्रमण से प्रतिरोधी हों, को विकसित करने की आवश्यकता है, ताकि जलवायु परिवर्तन के प्रति फसलों की संवेदनशीलता कम किया जा सके।

दृष्टिकोण

संबंधित संवेदनशीलता को कम कर सकते हैं। किसानों, शोध संस्थानों, सरकारी निकायों और  गैर-सरकारी संगठनों के सहयोगात्मक प्रयास से पूरे  देश में जलवायु अनुकूल कृषि की स्थापना एवं उसे आगे बढ़ाने के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। प्रौद्योगिकी प्रसार, क्षमता निर्माण और नीति समर्थन द्वारा देश में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न कृषि में अनिश्चितताओं का सामना करने के लिए एक अनुकूलित कृषि का निर्माण करने में सहायक हो सकता है।

यह समग्र ग्रामीण विकास के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण है, जो भविष्य की पीढ़ियों के लिए खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक समृद्वि का मार्ग सुनिश्चित करता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।