वैदिक खेती बनाम जैवगतिशील कृषि Publish Date : 08/01/2025
वैदिक खेती बनाम जैवगतिशील कृषि
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
वैदिक खेती: जैवगतिशील कृषि
जैव गतिशील कृषि, कृषि की कोई नवीन प्राणाली या पद्धति नहीं है, अपितु यह तो वैदिक कालीन कृषि है- यह एक प्रकार की पारंपरिक कृषि विधा है, जिसमे जैविक खादों के समुचित प्रयोग के साथ खगोलीय पिण्डो विशेषकर चन्द्रमाँ की परिभ्रमण के आधार पर कृषि क्रियाओ को संचालन किया जाता है। प्राचीन कृषि की विभिन्न विधाओ यथा वैदिक खेती, अग्निहोत्र कृषि, होमासोल, प्राकृतिक खेती, जैविक खेती, जिसे भारतीय विचारको, ऋषि-मुनियो द्वारा अथक प्रयास से विकसित किया था, “जैव गतिशील खेती” जिसे वर्तमान परिस्थतियो में यूरोप की सस्य जलवायु परिस्थिति के अनुसार ढाला गया है, के बारे में विशेष रूप से चर्चा की गयी हैः-
परिचय
कृषि जीवन का मूलाधार है, भारत का पारमपरिक जैविक खेती से बहुत ही पुराना नाता रहा है। नव पाषाण काल से लेकर आज तक हम जैविक कृषि प्राणाली को किसी ना किसी स्वरूप मे अपनाते ही आ रहे हैं। रासायनिक खादों के विकास से लेकर इसके दुरुपयोग की पराकाष्ठा एवं हानिकारक परिणामो के प्रकटीकरण तक का समय इस जैविक/टिकाऊ खेती/परम्परागत कृषि ने सभी कुछ देखा है। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ “ऋग्वेद के अनुसार “कृषि” शब्द की उत्पत्ति “कृष” धातु से हुई है, जिसका तात्पर्य कर्षण क्रिया अर्थात “जुताई” से है। जुताई से ही कृषि क्रिया का शुभारंभ होता है, ऋग्वेद (श्लोक संख्या 34-13) मे भी कृषि कर्म पर विशेष वर्णन मिलता है जिसमे स्पष्ट लिखा है कि
‘‘अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमान’’ अर्थात् जुआ मत खेलो, कृषि करो और सम्मान के साथ द्रव्य पाओ।
जैवगतिशील कृषि प्रणाली की उत्पत्ति वर्ष 1920 के दशक के दौरान ऑस्ट्रियाई दार्शनिक श्री रुडोल्फ स्टेनर द्वारा दी जाने वाली व्याख्यान की एक श्रृंखला से हुई थी। जैवगतिशील कृषि की नींव रूडोल्फ स्टेनर की मानव विज्ञान के गुप्त अंतर्दृष्टि पर आधारित हैं। आध्यात्मिक अनुभव के साथ हमारे आधुनिक मन को जोड़ने के लिए या उन ग्रहों की आत्माओं को जोड़ने के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया गया, जो कि हमारी अपनी “सूक्ष्मता” के साथ गुणवत्तापूर्ण खेती के लिए महत्वपूर्ण होने का दावा करते हैं। मानव-विज्ञान और बायोडायनामिक खोज को वैश्विक स्तर पर पहचान बनाने के लिए जैवगतिशील कृषको एवं शोधकर्ताओं की मेहनत क्रमशः धीरे-धीरे रंग ला रही है।
‘‘जैवगतिशील’’ खेती क्या है
जैवगतिशील खेती, खेती के लिए एक सम्पूर्ण दृष्टिकोण है जिसमें खेती की प्रक्रिया में सभी हितधारक शामिल होते हैं जैसे कि कृषक, मृदा, पर्यावरण-व्यवस्था, जानवर और पक्षी आदि जो भी कृषि क्रियाओ में भाग लेते हैं, और इन सब के ऊपर, ब्रह्मांडीय शक्तिया जिनका प्रभाव पृथ्वी पर जीवित प्राणियों पर पड़ता है। इससे यह स्पष्ट होता है की धरती पर रहने वाले जीवों पर ब्रह्मांडीय शक्तियों का प्रभाव वास्तविक है।
इन प्रभावों से अवगत होने के कारण जैव-गतिशील खेती (बायोडायनामिक) का अभ्यास किया जाता है। जैवगतिशील कृषि पद्धति से उत्पन्न पदार्थ दूसरे तरीके से की जाने वाली अन्य खेती के तरीकों के अपेक्षा अधिक स्वाद और सुगंध से परिपूर्ण होते हैं। इसे पारिस्थितिक खेती के रूप में भी जाना जाता है, यह विघा अभी तक आधुनिक भारतीय किसानो के लिए काफी हद तक अज्ञात ही बनी हुई है। जैवगतिशील खेती का मूल सिद्धांत खेती को एक व्यक्ति और एक पूर्ण इकाई के रूप में ग्रहण करना है।
फसल और पशुधन एकीकरण, मिट्टी उन्नयन, पौधे और पशु विकास को महत्व दिया जाता है। किसान भी इस पूरे तंत्र का एक हिस्सा ही होता है।
पृथ्वी एक सजीव प्राणी
रुडोल्फ स्टेनर ने पृथ्वी को भी अन्य सामान्य जीवित जीवो की तरह सजीव मानते हुए इसके श्वसन की क्रिया का भी वर्णन किया है। उन्होंने बताया था कि आरोही और अवरोही चंद्रमा की अवधि पृथ्वी की साँस लेना और साँस छोड़ने से संबंधित है। भारतीय सभ्यता हमेशा से पृथ्वी को धरती माता का सम्मान देती आ रही है। पृथ्वी के सजीव होने या इसमें जीवन को लेकर तमाम धर्म के ग्रंथो में इसका सविस्तार वर्णन भी मिलता है।
पृथ्वी की दीर्घकालीन श्वसन प्रक्रिया
श्वसन काल पृथ्वी की श्वसन की प्रक्रिया
सर्दी श्वास अन्दर लेना
गर्मी श्वास बाहर छोड़ना
आरोही चंद्रावधि श्वास अन्दर लेना
अवरोही चंद्रावधि श्वास बाहर छोड़ना
पृथ्वी की दैनिक श्वसन प्रक्रिया
श्वसन काल पृथ्वी की श्वसन की प्रक्रिया
शाम, सूर्यास्त से ओस गिरना शुरू होने तक श्वास अन्दर लेना
ओस गिरने से लेकर सुबह सूर्यादय तक श्वास बाहर छोड़ना
जैवगतिशील कृषि पद्धति के मूलभूत आवश्यकता
जैवगतिशील कृषि की मुख्य रूप से दो मूलभूत आवश्यकताये होती है जो कि निम्नलिखित होती है-
1 जैवगतिशील पंचांग
2 जैवगतिशील पदार्थ
1 जैवगतिशील कृषि पंचांग
जैवगतिशील कृषि पद्धति मूलत चंद्र चक्रण (चन्द्रमा के उत्थान एवं क्षीणन) पर आधारित है- जैवगतिशील कृषि मे जैवगतिशील पदार्थ बनाना, बीज और फसल लगाने के समय एवं उनके कटाई का समय भी चंद्र चक्रण पर निर्भर करता है। एक खगोलीय कैलेंडर जिसे जैवगतिशील कृषि कैलेंडर कहते है जोकि मूलतः चंद्र परिचालन एवं चंद्र की स्थिति के आधार पर रोपण/बीज बोने के लिए इष्टतम तिथि निर्धारित करता है।
चंद्र परिचालन एवं जैवगतिशील कृषि पंचांग
जिस तरह से मनुष्यों को विभिन्न कार्यों के लिए पंचांग की आवश्यकता होती है, ठीक उसी तरह से फसलों का भी एक विशेष पंचांग होता है जिसकी सहायता से जैवगतिशील कृषक अपने कृषि क्रियाओ का संचालन करते हैं। चंद्र परिचालन पौधे की जड़ों की आकार, गठन और उनकी वृद्धि पर जबरदस्त प्रभाव डालता है। अगर हम चंद्र चरण के अनुसार अपनी फसलो की बुआई करें तो किसानों को अच्छी उपज मिल सकती है।
चन्द्र परिचालन के आधार पर कृषि क्रियाओ के करने की पद्धति कोई नई बात नही है, यह एक प्राचीन पद्धति है जो हमारे पूर्वजों में प्रचलित थी। चंद्र चक्र के आधार पर खेती के फायदे को अब वैज्ञानिक रूप से साबित कर दिया गया है। जैवगतिशील कृषि क्रियाओ का सम्पादन चंद्र परिचालन पर आधारित फसल पञ्चांग के अनुरूप होता है, जिसका निर्णय राशि चक्र सिद्धांतों के आधार पर किया जाता है।
चंद्र परिचालन पर प्रभाव
जैवगतिशील कृषि का मूल सिद्धांत यह है कि चंद्रमा के चलायमान होने कारण ब्रम्हांड में उपस्थित 12 राशि चिन्हो को चार समूहों में विभाजित होने से जुड़ा हैं। चार समूहो का वर्गीकरण उनमें पाये जाने वाले तत्व के आधार पर हुआ है (1) पृथ्वी, (2) जल, (3) अग्नि और (4) वायु। इस प्रकार प्रत्येक समूह का कृषि क्रियाओ के संचालन एवं पौधे के जीवन पर कुछ खास प्रभाव पड़ता है।
तदनुसार वृषभ, कन्या और मकर राशि पृथ्वी से जुड़ी हुई है और ये जड़ क्षेत्र के विकास में सहायता करती है। मिथुन, तुला और कुंभ राशि वायु और सूरज की रोशनी से जुड़े हुए हैं और फूलों के विकास में सहायता करते हैं। कर्क, वृश्चिक और मीन को जल से जुड़ी हुई राशि मानी जाती है। इसलिए इनका प्रभाव पत्तियों के विकास में माना जाता है, जबकि मेष, सिंह और धनु को फलो और बीज के विकास में सहायताकार माना जाता है, क्योकि ये अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व्व करते हैं।
बीज बोना, पत्तियों पर छिड़काव, पौधे के प्रसार, ग्राफ्टिंग चंद्रमा के पतन चरण (जो कि नए चाँद से 15 दिन पहले) के दौरान किया जाना चाहिए। दूसरी ओर,चंद्रमा के उत्थान चरण (जो कि पूर्णिमा की अवधि से 15 दिन से पहले) के दौरान खेतो की जुताई, खाद का उपयोग एवं पौधरोपण के लिए किया जा सकता है।
मृदा की उर्वरता में सुधार करने और मृदा स्वास्थ्य को निरंतर सुनिश्चित करने के लिए केचुए और सूक्ष्म जीवो की सहायता से निर्मित जैविक खाद और कंपोस्ट का भी प्रयोग करते है। रासायनिक कीटनाशकों की जगह जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं और नीम, अरंड एवं पोंगामिया की पत्तियों से तैयार किए गए कीटनाशी का उपयोग कर सकते हैं।
दिन-रात की अवधि एवं ऋतु चक्र
प्रत्येक माह नई चंद्रमा से पूर्ण चंद्रमा तक चन्द्र परिभ्रमण /परिचक्रण करता है, हम यहाँ पर सिर्फ चंद्र परिचक्रण की बात कर रहे है, क्योकि यह हमारे पृथ्वी के सबसे निकट है और पृथ्वी की गतिविधियों को प्रभावित करता है परन्तु इस ब्रह्माण्ड में अनगिनत चंद्रमा विद्यमान हैद्य प्रत्येक माह, औसतन, मुख्य रूप से 6 अलग-अलग चंद्र परिचक्रण होता है, जिसकी पुनरावृत्ति हर 27-29 दिनों में होती है।
प्रत्येक महीने होने वाली इन 6 अलग-अलग चंद्र परिचक्रण के अनुसार जैवगतिशील कृषि रोपण पंचांग तैयार किया जाता है। जैवगतिशील कृषक, इन चक्रों के दौरान कृषि गतिविधियों के लिए महत्वपूर्ण दिन दर्शाया जाता है। 6 चंद्र परिचक्रण निम्न प्रकार है-
चंद्र परिभ्रमण/परिचक्रण
चंद्र परिचक्रण के प्रकार परिभ्रमण/परिचक्रण की पुनरावृति
पूर्ण एवं नया चंद्रमा 29.5 दिन
शनि के विपरीत चंद्रमा 27.3 दिन
आरोही (चढ़ते हुए) एवं अवरोही (उतरते) चंद्रमा 27.3 दिन
चंद्रमा नोड्स 27.2 दिन
पेरिगी-एपोगी 27.5 दिन
राशि चक्र नक्षत्रों में चंद्रमा 27.3 दिन
नया चंद्रमा - पूर्णिमा परिचक्रण
परिभ्रमण /परिचक्रण अवधि 29.5 दिन
नया चंद्रमा को देखना आसान होता है, जब नया चाँद शुरू होता है, तब चंद्रमा सूरज के करीब होने के कारण लगभग अदृश्य होता है। ज्यों-ज्यों चन्द्रमा सूरज से दूर जाता है हम इसे अधिक स्पष्ट रूप से देख पाते हैं। सबसे पहले आकाश में पतला बहुत ही सुंदर अर्धचन्द्राकार (वर्धमान के रूप में) नये चंद्रमा का दर्शन होता है और यह मात्र 7 दिनों के बाद यह पहली तिमाही तक पहुंच जाता है। इस समय तक चंद्रमा की डिस्क अर्ध श्वेत एवं अर्ध श्याम दिखाई पड़ती है।
पहली तिमाही के बाद पूर्णिमा आती है, जो कि पहली तिमाही के अपेक्षा लगभग 12 गुना ज्यादा उज्ज्वल होता है, फिर अंतिम तिमाही आती है, चंदमा का जब दूसरा अर्ध रोशनी से भरपूर होता है। इस तरह लगभग 29.5 दिनों में एक चक्र पूर्ण हो जाता है और इसी तरह से ये क्रम अनवरत एवम् अबाध रूप से जारी रहता है।
नया चंद्रमा का प्रभाव
नया चंद्रमा के दौरान मृदा में भूमिगत गतिविधिया अधिक होती है, इस अवधि के दौरान पौधों में कोशिका द्रव्य का प्रवाह कम होता है। इसलिए, हरी खाद को मृदा में दबाना और घास काटने के लिए एक अच्छा समय होता है।
पूर्णिमा का प्रभाव
कई सदियों से किसानों का अनुभव एवं वैज्ञानिक प्रयोगों ने यह सिद्ध किया है कि पौधों की वृद्धि पर पूर्णिमा के चन्द्र का उल्लेखनीय प्रभाव होता है। रुडोल्फ स्टेनर के कृषि व्याख्यानो एवं बाद के वैज्ञानिक अनुसंधान के आधार पर, जैवगतिशील कृषि इस बात की मान्यता देता है की चंद्रमा एवं पूर्णिमा के चाँद का प्रभाव सभी जीव जन्तुओ एवम् पेड़ पौधों पर भी पड़ता है-
1. चंद्र ऊर्जा से सबसे अधिक प्रभावित तत्व पानी है (उदाहरण के लिए पौधों में कोशिका द्रव्य)।
2. चन्द्र को पूर्णिमा की अवस्था तक पहुंचने के 48 घंटों में पृथ्वी में नमी की मात्रा में एक विशिष्ट वृद्धि दिखाई देती है। यही कारण है कि पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देने वालो कारको में अचानक वृद्धि देखी जा सकती है।
3. ऐसा देखा गया है कि पूर्णिमा की अवधि के दौरान बीजो में त्वरित अंकुरण होता है। साथ ही साथ पौधे की वृद्धि भी तेजी से होती है। इस समय चोट या कटाई छटाई के कारण पौधों की वनस्पति क्षतिपूर्ती भी तेजी से होता है, क्योकि इस दौरान पौधों में कोशिका विभाजन एवं कोशिका विकास में विस्तार की प्रवृत्ति होती है।
4. ध्यान देने योग्य बात ये है कि, इस अवधि के दौरान बीजो में अंकुरण बहुत तेजी से होता है, परन्तु कवक के हमले से ग्रस्त हो सकता है। विशेष रूप से गर्म एवं उच्च आर्द्रता की परिस्थितियों में।
5. ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्णिमा के दौरान नमी में वृद्धि के कारण पौधों पर कवक के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियां प्रदान करता है।
6. इस दौरान कीटो की गतिविधियो में वृद्धि देखी जा सकती है। विशेष रूप से स्लग और घोंघे का। यहाँ तक की मानव और जानवरों में भी आंतरिक कृमि परजीवी में भी वृद्धि देखी जा सकती है।
पूर्णिमा के प्रभाव के कारण पौधों द्वारा तरल खाद्य पदार्थों का अवशोषण बढ़ जाता है। अक्सर पूर्णिमा में बारिश की प्रवृत्ति होती है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।