खाद्यान्न उत्पादन में उर्वरकों का योगदान Publish Date : 21/12/2024
खाद्यान्न उत्पादन में उर्वरकों का योगदान
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
देश के आर्थिक विकास में कृषि का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। राष्ट्रीय आय का एक बहुत बड़ा भाग भी कृषि से प्राप्त होता है। इसलिये यदि हम कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहें तो कोई गलत औचित्य नहीं है। भारतीय कृषि की मौजूदा स्थिति संतोष और आशा का संचार करने वाली है। स्वतंत्रता के पांच दशकों में कृषि क्षेत्र मेंकाफल बदलाव आया है। वर्तमान में अपनाई जा रही अत्याधुनिक कृषि तकनीक से फसल उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई है।
भारत सरकार के कृषि मंत्रालय द्वारा जारी वर्ष 1998-99 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार देश में स्वतंत्रता के बाद से ही कृषि के क्षेत्र में तीव्र वृद्धि हुई है। खाद्यान्नों का उत्पादन, जो वर्ष 1951-52 में 5.2 करोड़ टन था, बढ़कर 1997-98 में 19.31 करोड़ टन के स्तर तक पहुंच गया। इन वर्षों में गेहूं, चना, जौ आदि अनाजों के उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है। वर्तमान मे कुल खाद्यान्न उत्पादन में गेहूं का अंशदान लगभग 3.5 प्रतिशत है। देश में पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश, पंजाब, उत्तर भारत प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्य हैं। यही नहीं, तिलहन उत्पादन में भी इन दशकों में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। तिलहन फसलों के उत्पादन में मूंगफली लगातार मजबूत स्थिति बनाए हुये है। मूंगफली का उत्पादन कुद तिलहन उत्पादन का 34 प्रतिशत है। तिलहन उत्पादन में दूसरा स्थान सोयाबीन का है, जो कुल तिलहन उत्पादन का 28 प्रतिशत है। तीसरा स्थान सरसों का है।
मोटे अनाजों के उत्पादन में जरूर इन दशकों में कमी आई है। मोटे अनाजों का उत्पादन, जोकि 1997-98 में 4 करोड़ 70 लाख मीट्रिक टन था, वह कम होकर 1998-99 में 3 करोड़ 10 लाख मीट्रिक टन के लगभग ही रह गया और 1999-2000 में 2 करोड़ 91 लाख मिलियन मीट्रिक टन ही होने का अनुमान है। पूर्णतया वर्षा पर आधारित होने के कारण इन वर्षों में मोटे अनाज उत्पादन में काफी परिवर्तन आया है। वर्षा पर निर्भर क्षेत्र, सिंचाई वाले क्षेत्र में परिवर्तित हा रहे हैं। मोटे अनाजों के उत्पादन क्षेत्र में कमी आती रही है। इसी कारण इस वर्ग की फसलों में कमी आ रही है।
यह कहना औचित्य ही होगा कि कृषि क्षेत्र में आई इस क्रांति में सबसे बड़ा योगदान रासायनिक उर्वरकों के संतुलित प्रयोग का है। उर्वरक फसलों की उत्पादकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिा निभाते हैं। वर्तमान कृषि के लिये तो उर्वरक पर्याय बन गये हैं। इस दिशा में किये गये सतत् प्रासों के परिणामस्वरूप कृषि उत्पादन और उत्पादकता में पर्याप्त वृद्धि हुई है। भारत में सर्वप्रथम 1906 में चेन्नई के निकट रानीपेट में सिंगल सुपर फास्फेट की 6 हजार मीट्रिक टन वार्षिक उत्पादन वाली उर्वरक इकाई की स्थापना हुई। इसके बाद 40वें तथा 50वें दशकों में केरल के कोचिन में फर्टिलाइजर्स तथा बिहार के सिंदरी शहर में भारतीय उर्वरक निगम लिमिटेड के बड़े आकार वाले पहले उर्वरक संयंत्र स्थापित किये गये।
रिपोर्ट के अनुसार इस समय देश में 63 वृहत उर्वरक इकाईयां काम कर रही हैं, जो कई प्रकार के नाइट्रोजन तथा फास्फेटिक, कंपलैक्स उर्वरकों का उत्पादन कर रही हैं। इनमें से 38 इकाईयां यूरिया का उत्पादन कर रही हैं। 9 इकाईयां उप-उत्पाद के रूप में अमोनिया सल्फेट का उत्पादन कर रही हैं। इसके अतिरिक्त भी 79 इकाईयां सिंगल सुपरफास्फेट का उत्पादन कर रही हैं। 30 नवम्बर 1998 को इन इकाईयों की कुल स्थापित क्षमता 105.20 लाख टन नाइट्रोजन तथा 31.70 लाख टन फास्फेट की हो गई थी।
1997-98 के दौरान नाइट्रोजन और फास्फेट के उत्पादन में पिछले वर्षों की तुलना में अच्छी वृद्धि हुई है। इन वर्षों में नाइट्रोजीनस उर्वरकों का उत्पादन 100.86 लाख टन और फास्फेटिक उर्वरकों का 29.76 लाख टन उत्पादन हुआ। स्वदेश उर्वरक उद्योग में क्षमता उपयोग, जो उच्च स्तर तक पहुच गया है, वह विश्व में सर्वोत्तम क्षमता उपयोग के बराबर है। वर्ष 1997-98 में क्षमता उपयोग नाइट्रोजन के मामले में 101.5 प्रतिशत और फास्फेट के मामले में 101.7 प्रतिशत रहा, जो अब तक का सर्वाधिक है।
देश में उर्वरक क्षेत्र में 6 बड़ी परियोजनाएं निर्माणाधीन है, जिन पर 4122.02 करोड़ रुपये की पूंजी लागत का अनुमान है। जब इन परियोजनाओं में उत्पादन शुरू हो जायेगा तो वे प्रति वर्ष 9.75 लाख टन यूरिया, 7.60 लाख टन एनपीके, 23.07 लाख टन डीएपी, 1.00 लाख टन एनपी के उर्वरकों का अतिरिक्त उत्पादन होने लगेगा। देश में उर्वरकों की बढ़ती मांग को पूरा करने के उद्देश्य से उन देशों में जहां प्रचुर मात्रा में संसाधन उपलब्धहैं, संयुक्त उर्वरक परियोजनाएं स्थापित करने के कार्य में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है।
भारत सरकार नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों के उत्पादन के लिये फीडस्टाक के रूप में सर्वाधिक उपयोग में आने वाली गैस की उपलब्धता में बांधाएं तथा फास्फेटिक उर्वरकों के उत्पादन हेतु आयातित कच्चे माल पर देश की अत्यधिक निर्भरता के कारण भारतीय कंपनियों को प्राकृतिक गैस तथा राक सल्फेट के पर्याप्त भंडारों वाले अन्य देशों में बाई-बैक खरीद व्यवस्था के साथ संयुक्त उद्यम उत्पादन सुविधाएं स्थापित करने के लिये प्रोत्साहित कर रही है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।