ग्रामीण आर्थिक विकास में कृषि सुधारों की भूमिका Publish Date : 24/08/2024
ग्रामीण आर्थिक विकास में कृषि सुधारों की भूमिका
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
ग्रामीण भारत में अधिकाँश लोग कृषि अथवा उससे सम्बन्धित व्यवसायों में संलग्न होते हैं तथा इसी के द्वारा अपना जीवन-यापन करते हैं। स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद भारतीय सरकार ने ग्रामीण विकास को विषेष प्राथमिकता प्रदान की तथा ग्रामीण विकास तथा ग्रामीण एवं भारत के विकास में कृषि के महत्व को स्वीकार किया। इस दौरान कृषि में किये गये महत्वपूर्ण सुधारों के माध्यम से ग्रामीण विकास को प्रत्येक क्षेत्र में बढ़त दी गई।
कृषि सुधार, कृषि से समद्व अन्य गतिविधियों को भी बढ़ावा देता है और ग्रामीण क्षेत्र की सम्पन्नता में पर्याप्त वृद्वि भी प्रदान करता है।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में वर्तमान में लगभग 68.8 प्रतिशत लोग ग्रामीण क्षेत्रों में ही निवास करते हैं। प्रमुख रूप से भारतीय एक ग्रामीण समाज है, जबकि इसके सापेक्ष देश में शहरीकरण वर्ष प्रतिवर्ष बढ़ रहा है। ग्रामीण समाज में कृषि भूमि को सबसे महत्वपूर्ण उत्पादक संसाधन एवं संपति माना जाता है। अतः कहा जा सकता है कि ग्रामीण भारत में कृषि न केवल आजीविका एक साधन है, बल्कि यह जीवन जने का एक तरीका भी है।
- भारत में अनेक प्रकार की साँस्कृतिक प्रथाओं और प्रतिमानों की पृष्ठभूमि में कृषि ही अवस्थित है। महात्मा गाँधी के अनुसार, भारत के विकास का यह अर्थ कदापि नही है कि देश में विभिन्न औद्योगिक शहरी केन्द्रों का विकास हो वरन् इसी के सापेक्ष ग्रामीण विकास की भूमिका भी उतनी ही महत्वूपर्ण है। अभी हाल ही में आई महामारी कोविड-19 के दौरान भी कृषि क्षेत्र की वृद्वि सकारात्मक दर्ज की गई, जो कि भारतीय अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत कृषि क्षेत्र के महत्व को प्रदर्शित करता है।
- कृषि एवं ग्रामीण जीवन को समर्थन प्रदान करने वाली अन्य कई पंकार की गतिविधियाँ भी लोगों के लिए आजीविका के स्रोत के रूप में कार्य कर रही हैं। उदाहरण के लिए भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में कारीगर उपलब्ध हैं जो कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का ही एक अंग है तथा ग्रामीण एवं देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निवर्हन करते हैं।
- भारत के ग्रामीण क्षत्रों में बेहतर जीवन-यापन हेतु आवश्यक आधारभूत संरचनाओं को अभावग्रस्त होना अपने आप में किसी अभिशाप से कम नही हैं, जिसके चलते देश के शहरी भागों की अपेक्षा ग्रगामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति आय कम होती है। यही कारण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् ने ग्रामीण विकास को ‘विकास रणनीति’ के केन्द्र बिन्दु में स्थान प्रदान किया है। ग्रामीण विकास में कृषि एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ग्रामीण विकास में कृषि का प्रमुख एवं सम्भावित योगदान रोजगार, सहायक व्यवसाय तथा पर्यावरण सेवाओं के समर्थन प्रदान करने के रूप में है।
ग्रामीण विकास कृषि सुधारों के माध्यम से कैसे हो
कृषि में सुधारों के माध्यम से ग्रामीण विकास को बढ़ावा दिया जा सकता हैं क्योंकि ग्रामीण भारत के अधिकाँश नागरिक कृशि अथवा उससे सम्बन्धित व्यवसायों में ही संलग्न होते हैं। वर्ष 2025 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य भारत सरकार के द्वारा निर्धारित किया गया है। इसी के तहत भारत सरकार ने वर्ष 2022 तक कृषकों की आय को दुगुना करने का लक्ष्य भी निर्धारित किया है। इन दोनों ही लक्ष्यों को काफी चुनौतिपूर्ण माना जा रहा है तथा ग्रामीण विकास के बिना इन लक्ष्यों की प्राप्त कर पाना किसी भी हालत में सम्भव ही नही है।
- किसी भी प्रकार की आर्थिक गतिविधि के बढ़ने से ग्रामीण क्षेत्रों के विकास को बढ़ावा मिलता है। कृषि के क्षेत्र में किये गये सुधारों से कृषि कार्यों के प्रति लोागें में आकर्षण भी बढ़ेगा, जिसके चलते इस क्षेत्र में निवेश का प्रवाह भी सुनिश्चित् होगा। इससे कृषि क्षेत्र में रोजगार सृजन की दिशा में भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
- कृषि सुधारों के माध्यम से अन्य कृषि सम्बन्धित गतिविधियों में भी सकारात्मक वृद्वि होगी। कृषि से सम्बद्व अधिकाँश गतिविधियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में ही सम्पन्न होती हैं, जिनके माध्यम से ग्रामीण क्षेत्र की एक बड़ी आबादी को रोजगार प्राप्त होता है। अतः कृषि सुधारों का लाभ प्रत्यक्षतः कृषि से सम्बद्व गतिविधियों में संलग्न लोगों को प्राप्त होता है।
- कृषिगत सुधारों के माध्यम से अनेक औद्योगिक गतिविधियों प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल जिनका आधार कृषि है, की उपलब्धता को पर्याप्त रूप से बढ़ाया जा सकता है। यह भार क्षय उद्योग () के सन्दर्भ में अधिक सत्य है। इसके अन्तर्गत उद्योगों को ‘ग्रीन फील्ड इंडस्ट्री’ के रूप में गाँवों में स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। भार क्षय उद्योग, ऐसे उद्योग होते हैं जिन्हे कच्चे माल के स्रोत के समीप स्थापित करना आर्थिक रूप से व्यवहार्य होता है। इसके साथ ही इन गतिविधियों से सम्बद्व अन्य प्रकार के कुटीर उद्योगों का विकास भी ग्रामीण क्षेत्रों में किया जा सकता है।
भारतीय कृषि क्षेत्र के कुछ अन्तर्निहित तथ्य विद्यमान हैं, जिनमें कृषि आगतों तक पहँुच, जातों का आकार छौआ होना, फसल की कटाई के पश्चात् खाद्व-प्रबन्धन एवं विपणन आदि की समस्या प्रमुख हैं। इन सम्स्याओं के समाधान हेतु कृषिगत सुधारों की आवश्यकता शिद्वत से महसूस की जा रही है। पूर्व में कृषि क्षेत्र से सम्बन्धित भारत की रणनीति मुख्य रूप से कृषि उत्पादन बढ़ानें और खाद्य-सुरक्षा को सुनिश्चित करने पर ही केन्द्रित रहने के कारण किसानों का आय में बढ़ोत्तरी की ओर कभी ध्यान ही नही दिया गया।
विगत 50 वर्षों के दौरान हरित क्रॉन्ति को अपनाए जाने के बाद, भारत का खाद्यान्न उत्पादन 3.7 गुना बढ़ा है जबकि जनसंख्या में 2.25 गुना वृद्वि हुई है, परन्तु इसके सापेक्ष किसानों की आय में वृद्वि निराशाजनक ही रही है।
- कृषि क्षेत्र एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था में निवेश होने वाले निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए कृषि सुधार एक सशक्त विकल्प है। यह निवेश कृषि की आधारभूत अवसंरचना के विकास में किया जा सकेगा। नवीन कृषि प्रौद्योगिकियों आदि के शोध एवं विकास को भी बढ़ावा दिया जा सकेगा तथा किसानों के लिए उन्नत बीज की उपलब्धता को भी सुनिश्चित किया जा सकेगा।
- कृषि के नवाचारों जैसे अनुबन्ध खेती आदि के माध्यम से किसनों को उनकी उपज का उति मूल्य प्राप्त करने में भी सहायता प्रदान करेगा। पूर्व निर्धारित मूल्यों पर आधारित होने के कारण किसानों को बाजार मूल्य के उतार-चढ़ाव के खतरों से किसी भी प्रकार का कोई जोखिम नही होगा जिसका प्रभाव ग्रामीण विकास के रूप में दिखेगा और यह कृषि-कार्य में संलग्न समस्त लोगों की समग्र खुशहाली में भी पर्याप्त वृद्वि करेगा।
प्रमुख क्षेत्र जिनमें कृषि सुधार लागू किये जाएं-
कृषि विपणन में सुधार
कृषि विपणन के अन्तर्गत ऐसे सभी क्रियाकलापों को शामिल किया जाता है जो कृषि उत्पादों के भण्ड़ारण, खरीद, संग्रहण, श्रेणीकरण (Grading), खाद्य एवं प्रसंस्करण, परिवहन, वित्त्ीयन और उनके विक्रय से सम्बन्धित होते हैं।
वर्तमान में कृषि उत्पादों का विपणन मुख्यतः नियमित बाजारों के माध्यम से किया जाता है। बाजार को राज्य एवं स्थानीय सरकारों के द्वारा विकसित किये जाते हैं। सहकारी समितियों की भूमिका कृषि पदार्थों के विपणन में महत्वपूर्ण होती है। किसी भी कृषि विपणन प्रणाली में निम्न तीन विशषताएं होती हैं-
(i) प्राथमिक उत्पादकों को श्रेष्ठ प्रतिफल की प्राप्ति सम्भव हो।
(ii) प्राथमिक उत्पादकों को प्राप्त होने वाली कीमत तथा अन्तिम उपभोक्ता के द्वारा अदा किये जाने वाली कीमतों में अधक अन्तर न हो।
(iii) कृषि उत्पादों की गुणवत्ता में कोई कमी किये बिना अन्तिम उपभोक्ता तक पहुँचाया जाता हो।
सम्बन्धित तथ्य
भारतीय विपणन प्रणाली में निहित कुछ विकृतियाँ, जिनके कारण एक ओर तो 3षक फसल उत्पादन के प्रति हतोत्साहित होते हैं वहीं दूसरी ओर उपभोक्ताओं को भी कृषि उत्पादों की खरीद के लिए अधक व्यय करना पड़ता है। इसके अन्तर्गत आने वाली विकृतियाँ इस प्रकार हैं-
कृषि उत्पादों की बाजार तक पहुँच कम होना- पूरे देश में कृषि उत्पादों के बाजार तक किसानों की पहुँच एक समान नही है, जिसके कारण कृषि उत्पादों का विपणन प्रभावित होता है। पंजाब में 118 वर्ग किमी0 के लिए बाजार है तो मघालय में इसके सापेऋा 1214 वर्ग किमी0 के लिए बाजार है।
बाजार में आधारभूत अवसंरचना का अभाव- नियमित बाजारों में से केवल दो-तिहाई बाजारों में ‘ऑक्शन प्लेटफार्म’ खुले आसमान के नीचे हैं। इसके साथ ही 1/10 बाजारों में ही शीत गृह की सुविधा उपलब्ध है। इस प्रकार देश में आधारभूत सुविधाओं की भारी कमी देखी जाती है।
अनुज्ञप्ति शुल्क सम्बन्धी बाधा- भारत के इन बाजारों में दुकान अथवा गोदाम प्राप्त करने के लिए अनुज्ञप्ति प्राप्त करना आवश्यक होता है। इस प्रक्रिया में अनुज्ञप्ति प्राप्त दुकानदारों का ही वर्चस्व रहता है और नए उद्यमियों के लिए अनुज्ञप्ति प्राप्त करना काफी दुष्कर होता है।
एकीकृत बाजार की कमी- वत्रमान समय में पूरे देश के समस्त एपीएमसी एकीकृत नही हैं। इससे कृषि उत्पादों की खरीद, मध्यस्थों एवं व्यापारियों के माध्यम से करना आवश्यक एवं मजबूरी दोनों ही होती हैं।
लम्बी आपूर्ति श्रृंखला- परंपरागत रूप से कृषिगत उत्पादों के लिए एक बाजार से दूसरे बाजार के स्थानान्तरण बड़ी संख्या में बाजार चैनलों के माध्यम से किया जाता है, जिससे आपूर्ति श्रृ्रखला स्वमेव ही बड़ी हो जाती है तथा इ सका लाभ हमारे किसानों को कम और मध्यस्थों को अधिक होता है।
विपणन की उच्च लागत- विपणान की उच्च लागत देश के लघु एवं सीमांत किसानों को मिलने वाले लाभ को कम कर देती है। जिसका प्रमुख कारण उनके पास उपज कम होना होता है।
समाधान
कृषि उपज का उचित मूल्य- कृषि विपणन प्रणाली का अन्तिम लक्ष्य यह होना चाहिए कि कृषकों को उनके कृषि उत्पादों का उचित मूल्य प्राप्त हो इसके साथ ही उपभोक्ता को गुणवत्तापूर्ण उत्पाद उचित दाम में मिल सकें।
कृषि उत्पाद को बाजार की माँग से सम्बद्व करना- जब कृषि उत्पाद को बाजार की माँग से सम्बद्व किया जायेगा तो उत्पाद का उचित दाम किसानों को मिल पाना सम्भव होगा, न केवल आगतों के मूल्य को कम करने एवं इन पर सब्सिड़ी प्रदान करने में भी।
आगतों से जुड़ें न्यूनतम मूल्य- कृषकों के लिए राष्ट्रीय आयोग (National Commission for Farmers) ने आगत से जुड़े (Input Linked) न्यूनतम मूल्य प्रदान करने की अनुशंसा की है।
भविष्योन्मुखी व्यापक उपागम का अपनाना- कृषकों के लिए राष्ट्रीय आयोग, भविष्य उन्मुखी व्यापक उपागम (Comprehensive Approach) को अपनाए जाने पर बल देता है जो कि किसानों के लिए बाजार आधारित विकास (Market Led Development) के अवसरों को सृजित किया जा सकें।
कुशल कृषि विपणन प्रणाली को बढ़ावा देना- देश के विभिन्न भागों में अधिशेष खाद्यान्नों का उत्पादन किया जाता है जिसके चलते उसकी कीमतों पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार एक ऐसी कुशल विपणन प्रणाली को बढ़ावा देना चाहिए जो कि बाजार के मूल्यों में स्थिरता प्रदान कर सकें।
विपणन में प्रतियोगिता को बढ़ावा देना- विपणन में प्रतियोगिता को बढ़ावा दिया जाना भी आवश्यक है। अधिक से अधिक प्लेयर्स’ के लिए बाजार प्रणाली को खोल कर उत्पादन के स्रोत (Source of Production) के लिए प्रतियोगिता को बढ़ावा दिया जा सकता है और पूरे देश में फैले बड़े उपभोक्ता का आधार लाभ उठाया जा सकता है।
भूमि सुधार
भूमि सुधार के अन्तर्गत सामाजिक दृष्टि से जोतों के स्वामित्व का पुर्नवितरण तथा कृषि भूमि का प्रर्नगठन किया जाना चाहिए जिससे कि उक्त भूमि का इष्टतम प्रयोग सुनिश्चित किया जा सें। भूमि सुधार के अन्तर्गत साधारणतः स्वामित्व, विक्रय, पट्टे आदि पर देना तथा भूमि के उत्तराधिकार आदि को शामिल किया जाता है।
सम्बन्धित मुद्दे
- अभी तक किये गये भूमि सुधारों से कुछ हद तक भू-संसाधन के वितरण में असमानता दूर हुई है तथा कृषि की उत्पादकता में भी वृद्वि हुई है, परन्तु यह भूमि सुधार राष्ट्रीय स्तर पर आज भी चिन्ता का विषय है। भूमि सुधार व्यवस्था में निम्नलिखित तथ्यों का समाधान अति आवश्यक है-
- काश्तकारी सुधारों का समान रूप से लगू नही हो पाना- काश्तकारी सुधार कानून नागालैण्ड, मेघालय और मिजोरम को छोड़कर सम्पूर्ण देश में लागू हैं। पश्चिम बंगाल, कर्नाटक तथा केरल आदि राज्यों में इस दिशा में अधिक सफलता मिली है। भारत में गुप्त तथा मौखिक काश्तकारी के काफी उदाहरण उपलब्ध हैं, जिससे व्यवहारिक जोतों के वितरण की असमानता अधिक बढ़ गई है।
- पुर्नवितरण की समस्या- गोवा एवं पूर्वोत्तर भारत के राज्यों को छोड़कर शेष भारत में भू-हदबन्दी कानून लागू है। भारत में अधिकाँश किसान छोटे अथवा सीमांत कृषक हैं, जिनमें 2 हेक्टेयर से कम जोतो वाले किसानों का प्रतिशत 86.2 है जिनकी भूमि का कुल क्षेत्रफल मात्र 47.3 प्रतिशत है। वहीं 2 से 10 हेक्टेयर भूमि के स्वामी किसानों का प्रतिशत 13.2 है जिनके पास 43.6 प्रतिशत कृषि क्षेत्र है यही अन्तर है जो पुर्नवितरण की आवश्यकता को दर्शाता है।
- जोतों की चकबन्दी का अधूरा रह जाना- विभिन्न राज्यों के द्वारा जोतों की चकबन्दी से सम्बन्धित कानून बनाए गये हैं, परन्तु यह कार्य किसी भी राज्य में पूर्णरूप से 100 प्रतिशत नही हो पाया है। यह बात अलग है कि कुछ राज्यों (उदाहरण के लिए पंजाब तथा हरियाणा) आदि में इस दिशा में काफी प्रगति की है।
- भू-अभिलेखों का अद्यतन नही होना- इसके अन्तर्गत भू-लेखों का अद्यतन कर वास्तविक काश्तकार के नाम जमीन करना, विरासत में मिली भूमि को उसके वास्तविक स्वामी के नाम करना, भूमिहीन काश्तकार को वितरित भूमि का स्वामित्व प्रदान करना आदि शामिल हैं। हालांकि अभी तक यह कार्य भी अधूरा ही है।
समाधान
कृषि सम्बन्धों की पुनः संरचनाः भारत में कृषि सम्बन्धों को पुन‘ परिभाषित किये जाने की आवश्यकता है। इसके आधार पर समान सामाजिक ढ़ाचें का गठन किया जा सकता है।
भू-सम्बन्धों में शोषण की समाप्ति करनाः भूमि सुधारों को सही रूप से लागू न किये जाने के कारण भू-संम्बन्ध शोषण को बढ़ावा ही मिलता है। भू-धारण सम्बन्धों में सुधार के परिणामस्वरूप किसान का शोषण बन्द होगा तथा उसे अपने निवेश एवं श्रम का पूर्ण प्रतिफल प्राप्त होगा।
कृषि-कार्य करने वाले को भूमि का स्वामित्वः इस सुधार के अन्तर्गत उस किसाना को भमि का स्वामित्व प्रदान करना है जो कि वास्तविक रूप में उस भूमि पर कृषि कार्य करता है। इससे ‘जोतने वाले को जमीन के लक्ष्य को व्यवहारिक रूप प्रदान किया जा सकेगा।
ग्रामीण निर्धनों को भूमिः जोतों की अधिकतम निर्धारण के फलस्वरूप, अधिशेष भूमि का वितरण ग्रामीण निर्धनों के मध्य किया जाना चाहिए। इस कदम से भूमि जैसे महत्वपूर्ण संसाधन के वितरण की असमानता को दूर किया जा सकेगा और ग्रामीण निर्धन भूमि के आधार को विस्तृत कर सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जा सकता है।
कृषि भण्ड़ारण
भारत में खाद्यान्नों की खरीद, संग्रहण, स्थानांतरण, सर्वाजनिक वितरण तथा बफर स्टॉक के रख -रखाव का उत्तरदायित्व भारती खाद्य निगम FCI की है। FCI का उद्देश्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली PDS तथा अन्य कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन हेतु अनाजों के स्टॉक की आवश्यकता की पूर्ति करना भी है।
केन्द्रीस कटाई उपरांत अभियांत्रिकी एवं प्रौद्यगिकी संस्थान (Central Institute of Post–Harvesting Engineering–Technology–CIPHET) के अनुसार, भारत में कटाई के दौरान तथा कटाई के उपरांत प्रमुख खाद्यान्न फसलों के कुल उत्पादन का 4.65 प्रतिशत से 5.99 प्रतिशत भाग नष्ट हो जाता है।
फसल की कटाई के उपरांत भारतीय किसानों को प्रतिवर्ष लगभग 92,651 करोड़ रूपये का नुकसान होता है जिसका सबसे मुख्य कारण कमजोर संग्रहण क्षमता तथा परिवहन व्यवस्था का होना है।
सम्बन्धित तथ्य
प्रबन्धनों का अपर्याप्त होनाः प्रबन्धन की कमियों के चलते ही अनाज को भण्ड़रों में लम्बे समय तक रखा जाता है। देश में इसके कारण ही कीड़ें, चूहें तथा पक्षियों आदि के द्वारा नुकसान होने की सम्भावना बढ़ जाती है। भारतीय खाद्य निगम के गोदमों और किराये वाले स्थानों पर लगभग 30.52 मिलियन टन चावल, गेहूँ, मक्का, चना और ज्वार आदि का भण्ड़ारण किया जाता है, जहाँ भण्ड़ारण के लिए उपयुक्त सुविधाओं का अभाव है।
अवैज्ञानिक संग्रहण विधिः फसल की कटाई के उपरांत होने वाली हानि का मुख्य कारण उपज का अवैज्ञानिक संग्रहण है जिससे विभिन्न प्रकार के कीटों, चूहों तथा अन्य सूक्ष्मजीवों के द्वारा इन संग्रहीत अनाजों को नष्ट कर दिया जाता है। भारत में सरकार के द्वारा किसानों से खरीदे गये अधिकाँश अनाज कवर एवं प्लिंथ विधि (Plinth Method) का उपयोग करके संग्रहीत किया जाता है। इस विधि के अंतर्गत अनाज को अस्थाई तरीके से खुले में तिरपाल आदि से ढ़ककर रख दिया जाता है।
देशभर में उपलब्ध लगभग 80 प्रतिशत भण्ड़ारण सुविधाओं का संचालन परंपरागत तरीकों से किया जाता है, जिसके कारण प्रतिकूल मौसमी दशाओं जैसे कि तेज बारिश, बाढ़ एवं तूफान आदि की स्थिति में अनाज के नष्ट होने की संभावानएं बढ़ जाती हैं।
FCI की भण्ड़ारण क्षमताओं में अभावः देश में प्रतिवर्ष उत्पादित खाद्यान्नों के अनुपात में भण्ड़ारण की सुविधाओं का भारी अभाव है। विभिन्न राज्यों की उपलब्ध भण्ड़रण क्षमता 75 प्रतिशत सक भी कम है, खाद्यान्नों की मात्रा में तो पर्याप्त वृद्वि हुई है परन्तु इसके सापेक्ष सिलो, गोदामों एवं भण्ड़ारगृहों की अपर्याप्त संख्या के कारण थ्ब्प् पूरी तरह से भण्ड़रण करने में सक्षम नही है। इसके अतिरिक्त वर्तमान में विद्यमान भ्राण्ड़ारण सुविधाओं में अन्य सहायक अवसंचनाओं का भी अभाव है।
कोल्ड स्टोरेज की समस्याः भारत में अधिकाँश कोल्ड स्टोरेज संरचनाएं असंगठित क्षेत्र की हैं। देश में कोल्ड स्टोरेज के विताण में संतुलन नही है, देश में अधिकतर कोल्ड स्टोरेज उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात तथा महाराष्ट्र में स्थित हैं। इसके अतिरिक्त यह भी एक सत्य है कि देश में उपलब्ध कुल कोल्ड स्टोरेज क्षमता के दो-तिहाई भाग में केवल आलू का संग्रहण किया जाता है।
समाधान
- एकीकृत एग्री-लॉजिस्टिक प्रणाली (Integrated Agri–Logistic System): एग्री-लॉजिस्टिक प्रणाली का विकास करना ताकि खेतों से उपभोक्ता तक मल्यों का दक्षतापूर्ण स्थानांतरण सम्भव हो सके। इसके माध्यम से स्थानांतरित उत्पादों पर्याप्त स्तर तक मौद्रीकरण किया जा सके और बाजार में पहुँचने वाले उत्पादों की मात्रा में वृद्वि की जा सकें।
- संग्रहण योजना का निर्माणः जिला तथा राज्य स्तर पर संग्रहण सुविधाओं का विकास किया जाना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त नई संग्रहण इकाईयों के निर्माण हेतु आधुनिक सिलों तथ भण्ड़ारगृहों को वरीयता प्रदान की जानी चाहिए। विद्यमान भड़ारगृहों में सुधार कर उनमें आधुनिकीकरण किया जाना चाहिए। स्थानीय स्तर पर एकीकृत रूप से आधुनिक पैकिंग हाऊस तथा संग्रहण की इकाईयों की स्थापनला की जानी चाहिए।
- इलेक्ट्रॉनिक नेगोशियेबल वेयरहाऊस रिसिट्स का प्रचलनः भण्ड़ारण सुविधाओं का विकास भण्ड़ारण विकास एवं नियामक प्राधिकरण (Warehouse Development Regulation Authority–WDRA) के मानकों के अनुरूप किया जाना चाहिए जिससे कि यह इलेक्ट्रॉनिक नेगोशियेबल वेयरहाऊस रिसिट्स (Electronic Wharehouse Receipts–eNWR) के योग्य बन सकें। भण्ड़ारगृह के माध्यम से इलेक्ट्रॉनिक नेगोशियेबल वेयरहाऊस रिसिट्स (eNWR) के उपयोग तथा उसकी लोकप्रियता को बढ़ावा देनें के प्रयास किये जाने चाहिए।
- निजी निवेश में वृद्वि करनाः अशोक दलवई समिति की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में अनाजों के भण्ड़ारण तथा यातायात से सम्बन्धित सुविधाओं को व्यवस्थित करने के लिए 89,375 करोड़ रूपये की आवश्यकता है जो कि प्रतिवर्ष होने वाली खाद्यान्न की हानि की अपेक्षा काफी कम है। सरकार के पास इतनी पूँजी उपलब्ध नही है कि वह भण्ड़ारण सुविधाओं का देश में समान रूप से विकास कर सके अतः इस क्षेत्र में निजी पूँजी निवेश को प्राथमिकता एवं बढ़ावा दिया जाना आवश्यक है।
- स्वयं सहायता समूहों का बढ़ावाः देश के ग्रामीण क्षेत्रों में भण्ड़ारण क्षमता में सुधार के लिए स्वयं सहायता समूहों (Self Help Groups–SHGs) को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। साथ ही उन्हें आवश्यक संरचनाओं, जैसे- सुखाने के लिए स्थान (Drying Place), संग्रहण, प्राथमिक प्रसंस्करण सुविधा आदि के निर्माण एवं विकास के लिए आवश्यक सहायता भी प्रदान की जानी चाहिए।
परिवहन
कृषि क्षेत्र के लिए एक कुशल परिवहन तन्त्र का उपलब्ध होना बहुत ही महत्वपूर्ण एवं आवश्यक शर्त है। यह किसानों के लि बीज तथा अन्य आगतों की समय पर उपलब्धता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस अतिरिक्त उत्पादित खाद्यान्न की समय पर बाजार तक पहुँच को भी सुनिश्चित् करता है।
सम्बन्धित तथ्य
प्रशीतित परिवहन सुविधाओं का अभावः फल एवं सब्जियों जैसे शीघ्र ही खराब होने वाले पदार्थों के लिए पर्याप्त संख्या में प्रशीतित परिवहन के साधन उपलब्ध नही हो पाने के कारण इन्हें गैर-प्रशीतित परिवहन साधनों का ही उपयोग करके इनके गन्तव्य तक भेजा जाता है और अधिक ताप प्राकृतिक रूप से इन कृषि उपजों के खारब होने की दर को बढ़ता है।
कुशल परिवहन तन्त्र कर अभावः देश में कुशल परिवहन तन्त्र की भारी कमी होने के कारण इसके अर्न्गत उदान एवं उतरायी के दौरान उपज की लापरवाही युक्त हैण्डलिंग, बेपरवाही से वाहना का संचालन तथा वाहन की खराब स्थिति आदि को शामिल किया जा सकता है। इसके कारण कृषि उपज की एक बड़ी मात्रा अपने गंतव्य पर पहुँचने के पश्चात् भी खराब हो जाती है। यह परिवहन के दौरान होने वाली हानियों को भी बढ़ाता है।
आधारभूत संरचना का अभावः भारत में आधारभूत संरचनाओं का विकास भी पर्याप्त रूप से नही हो पाया है। इसके साथ ही देश के ग्रामीण भागों तक परिवहन की स्थिति बेहद पिछड़ी स्थिति में हैं तथा सड़कों की दशा भी अति-शोचनीय है। इसके चलते कृषि उपज का संग्रहण ठीक से नही हो पाता है और किसानों की बाजार तक पहुँच नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है।
समस्या का समाधान
जल परिवहन का विकास एवं उपयोगः भारत में अभी तक भी जल-परिवहन तन्त्र पूर्ण नही हो सका है। केन्द्र एवं राज्य सरकारों को परस्पर सहयोग कर परिवहन के इस तन्त्र का समुचित उपयोग किया जाना चाहिए। देश में सड़क परिवहन सर्वाधिक प्रचलित साधनों में से एक है परन्तु इस साधन का उपयोग करने में सबसे बड़ी बाधा जाम के रूप में सामने आती है। इस कारण से जल-परिवहन, सड़क परिवहन पर निर्भरता को कम करने में सहायक सिद्व होगा क्योकि यह सड़क परिवहन की अपेक्षा किफायती परिवहन साधन भी होता है।
आधारभूत संरचनाओं का विकासः देश के समस्त भागो, विशेष रूप से ग्रामीण भारत में, आधारभूत संरचनाओं का समुचित विकास किया जाना आवश्यक है। इससे कृषि उपज के उचित संग्रहण के साथ-साथ उसकी समय पर उपभोक्ताओं तक पहुँच को भी सुनिश्चित किया जा सकेगा। किसान, उत्पादक कंपनी एवं स्वयं सहायता समूहों के सहयेग से परिवहन तन्त्र को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
कुशल परिवहन तन्त्र का विकासः कृषि उपज के परिवहन के लिए कुशल परिवहन तन्त्र का विकास वर्तमान समय की माँग है यह उपज में परिवहन के दौरान होने वाले नुकसान को भी कम करने में सहायक होगा।
प्रशीतित परिवहन श्रंृखला का विकासः परिवहन की इस प्रकार की श्रंृखला के विकास की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए, जो फल एवं सब्जी आदि सहित शीघ्र ही खरब होने वाले पदार्थों की शेल्फ लाइफ बढ़ाने में सहायक हों।
ग्रामीण विकास एवं कृषि सुधार से सम्बन्धित भारत सरकार की विभिन्न योजनाएं
महत्वपूर्ण योजनाएं
युक्तधाराः 23 अगस्त, 2021 को केन्द्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री गिरिराज सिंह ने ‘युक्तधारा (Yuktdhara)’ नामक भू-स्थानिक योजना पोर्टल (Geospatial Planning Portal) का शुभारम्भ किया। यह प्लेटफॉर्म विभिन्न राष्ट्रीय ग्रामीण विकास कार्यक्रमों, एकीकृत वाटरशेड प्रबन्धन कार्यक्रम, पर-ड्रॉप मोर क्रॉप (Per Drop More Crop) तथा राष्ट्रीय कृषि विकास योजना आदि के अंतर्गत बनाया गई परिसम्पत्तियों को जियोटैग करेगा, जिससे कृषि एवं ग्रामीण विकास के आयोजन में सहायता प्राप्त होगी।
किसान सारथीः 16 जुलाई, 2021 को डिजिटल प्लेटफॉर्म ‘किसान सारथी’ को लॉन्च किया गया। यह एक डिजिटल प्लेटफॉर्म है, जिसके माध्यम से किसानों को फसल की बुवाई से लेकर उपज की बिक्री तक आवश्यक सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध कराई जायेगी। यह डिजिटल प्लेटफॉर्म कृषि विपणन को काफी आसान बनाएगा।
स्वामित्व योजनाः 11 अक्टुबर, 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेन्सिंग के माध्यम से ‘स्वामित्व योजना’ (SVAMITVA Scheme) की शुरूआत की थी। यह ग्रामीण नियोजन के लिए सटीक भूमि रिकार्ड के निर्माण में सहायक है। यह कृषकों को ऋण और अन्य वित्तीय लाभ प्राप्त करने के लिए भू-सम्पत्ति के उपयोग में सक्षम बनायेगी।
प्राथमिकता वाले क्षेत्रो में ऋण का लाभः खाद्य एवं कृषि आधारित प्रसंस्करण इकाईयों तथा शीत श्रंृखला बुनियादी ढ़ाँचें को प्राथमिकता वाले क्षेत्र ऋण (Priority Sector Lending) के रूप में वर्गीकृत किया गया है और नई खाद्य प्रसंस्करण इकाईयों के लिए लाभ पर आयकर मुक्त किया गया है।
क्रेडिट गारंटी फंडः खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों को सस्ता ऋण उपलब्ध कराने के लिए नाबार्ड के सहयोग से 2,000 करोड़ रूपये के विशेष कोष की स्थापना की गई है। खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा देने से कृषि एवं ग्रामीण विकास को गति प्राप्त होगी।
समर्पित किसान रेल (Dedicated Kisan Rail): इसके माध्यम से रेल के प्रशीतित डिब्बों को एक्प्रेस और मालगाड़ियों के साथ जोड़ा जायेगा। किसान रेल कृषि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और कृषि उपज को दूरस्थ स्थानों तक पहुँचाने में सहायता करेगी।
कृषि उडान (Krishi Udaan): नागरिक उड्डयन मंत्रालय के द्वारा पूर्वोत्तर एवं आदिवासी जिलों में कृषि-व्यापार को बढ़ावा देनें के लिए राष्ट्रीय एवं अर्न्राष्ट्रीय मार्गों पर कृषि उड़ान (Krishi Udaan) का शुभारम्भ किया गया है। इसे शीघ्र ही खराब हो जाने वाले कृषि उत्पादों को समय के रते ाजारों तक पहुँचाया जाता है।
ई-नाम (e–NAM)% इलेक्ट्रॉनिक नेश्नल एग्रीकल्चर मार्केट
(Electronic National Aiculture Market–E–NAM) कृषि उपज के लिए एक व्यापारिक पोर्टल है, जो कि ‘वन नेशन, वन मार्केट’ की अवधारणा के अनुकूल है। इसका उद्देश्य कृषि उपज बाजार समितियों (Agiculture Produce Market Committees–APMC) को एकीकृत करके कृषि उत्पादों के लिए एकीकृत राष्ट्रीय बाजार स्थापित करना है। यह किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य प्राप्त करने में सहायता प्रदान करता है।
सतत् कृषि को बढ़ावाः प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, परम्परागत कृषि विकास योजना तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए जैविक खेती पर मिशन आदि के माध्यम से सतत् कृषि को बढ़ावा दिया जा रहा है। यह देश के कृषकों को सर्वधारणीय रूप से कृषि को बढ़ावा देने में सहायक है।
किसान क्रेडिट कार्ड (KCC): केन्द्र सरकार ने किसानों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड की सुविधा को पशुपालन और मत्स्यपालन से सम्बन्धित गतिविधयों के लिए भी विस्तारित कर दिया है।
प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (PM – KISAN): इस योजना के माध्यम से छोटे और सीमांत किसान परिवारों को 6,000/- की धनराशि प्रतिवर्ष सहायता प्रदान की जा रही है।
प्रधानमंत्री किसान मानधन योजना (PM - KMY): इस योजना के अंतर्गत 18 से 40 वर्ष की आयु का कोई भी किसान इस योजना में भाग ले सकता है तथा 60 वर्ष की आयु तक आशिंक रूप से योगदान करके 60 वर्ष की उम्र के बाद तीन हजार रूपये महीना या 36 हजार रूपये सालाना पेंशन प्राप्त कर सकता है।
महत्वपूर्ण अधिनियम
वर्ष 2020 में केन्द्र सरकार के द्वारा कृषि सुधार के लिए तीन कृषि विधेयक पारित किए गए, जिनका देश के विभिन्न किसान संगठनों एवं रानीतिक दलों के द्वारा व्यापक पैमाने पर विरोध किया गया। वर्तमान में तीनों कृषि अधिनियम सर्वोच्च न्यायालय की रोक के बावजूद भी सरकार इन्हे वापस लेने के लिए विवश होना पड़ा। यह तीनों ही अधिनियम इस प्रकार से हैं-
आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम-2020
उक्त अधिनियम प्रसंस्करणकर्ताओं और मूल्य वर्द्वन करने वाली इकाईयों को स्टॉक सीमा से छूट प्रदान करता है। इस अधिनियम का उद्देश्य निजी निवेशकों के व्यवसायिक कार्यों में अत्याधिक विनायामक हस्तक्षेप की आशंकाओं को दूर करना है। संशोधन में यह व्यवस्था की गई है कि युद्व, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्वि और प्राकृतिक आपदा जैसी परिस्थितियों में कृषि खाद्य पदार्थों को विनियमित किया जा सकता है।
पक्ष-विपक्षः इस अधिनियम का विरोध करने वालों का मानाना है कि इससे बड़ी कंपनियां आवश्यक वस्तुओं का भण्ड़ारण करेंगी, जिसके चलते जमाखोरी और कालाबाजाी बढ़ जायेगी। इसके विपरीत सरकार के अनुसार बागवानी उपज के खुदा मूल्य में शत-प्रतिशत वृद्वि अथवा गैर-नाशवान कृषि खाद्य पदार्थों के खुदरा मूल्य में 50 प्रतिशत की वृद्वि होने पर सरकार भण्ड़ारण की सीमा तय कर सकती है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।