28वां जलवायु परिवर्तन सम्मेलन      Publish Date : 23/01/2024

                           28वां जलवायु परिवर्तन सम्मेलन

                                                                                                                                              डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

    जलवायु परिवर्तन पर जारी 28वीं जलवायु वार्ता एक समझौते के साथ पूर्ण हो गई है। इस समझौते में लगभग 200 देश अपने जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करने पर सहमत हुए हैं। यदि इस समझौते को अधिक ध्यान से देखा जाए तो ज्ञात होता है कि समझौते के अन्तर्गत सबसे अधिक ध्यान इस बात का रखा गया है कि इससे कोई नाराज नही होने पाए। जीवाश्म ईंधन को धरती के ऊर्जा तंत्र से बाहर करने के बारे में बात तो हुई परन्तु तेल उत्पादक देशों के दबाव में जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने पर सहमति बनी।

                                                                      

इससे साफ जाहिर है कि वैश्विक जलवायु वार्ता धरती को बचाने के लक्ष्य की और सुदृढ़ता से कदम नही बढ़ा सकी। इस समझौते के द्वारा न तो अमीर देशों को गरीब देशों की वित्तीय सहायता करने के लिए बाध्य किया जा सका, जिससे कि वह अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए आवश्यक तौर-तरीकों को अपना सकें। ऐसे में वैश्विक जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के अन्तर्गत किया गया यह समझौता कितना प्रभावी होगा और अमीर देश अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए अपनी न्यायोचित जिम्मेदारी का निर्वहन कब करेंगे यह तो वक्त ही बताएगा।

 

काप-28 से जो उम्मीदें थी, उनके हिसाब से यह निराशाजनक रही। अंतिम समझौते में जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाने के लिए जरूरी कदमों को लेकर कुछ खास नहीं है।

काप-28 के मुख्य फैसले

                                                             

काप-28 जलवायु परिवर्तन वार्ता ने कुछ अहम नतीजे दिए हैं। जैसे पहली बार लगभग समस्त देश इस बात पर सहमत हुए कि जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता खत्म करने की जरूरत है। पहली बार मीथेन उत्सर्जन कम करने का वादा भी किया गया। वैश्विक वार्ता में लास एंड डैमेज फंड के पूंजीकरण और इसे लागू करने की बात भी की गई और अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य के लिए रूपरेखा तय करने पर भी समझौता किया गया।

जीवाश्म ईंधन को हटानाः

वैश्विक जलवायु परिवर्तन वार्ता में इस मुद्दे पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया और इसने वार्ता में गतिरोध के हालात भी पैदा कर दिए। इस मामले में देशों के बीच तीखे मतभेद थे। लंबे विचार विमर्श के बाद अंतिम समझौते में देशों से जीवाश्म ईंधन का उपयोग धीरे-धीरे कम करने को कहा गया है, जिससे 2050 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल किया जा सके। हालांकि इसके लिए न तो कोई समय सीमा तय की गई और न कोई लक्ष्य। अंतिम समझौते में जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से ऊर्जा तंत्र से बाहर करने की बात को शामिल न किए जाने के कारण कुछ देश काफी निराश भी दिखाई दिए। फिर भी कुल मिलाकर यह अहम पहल कही जा सकती है। 

नवीकरणीय ऊर्जा को तीन गुना करनाः

काप-28 समझौते में देशों से नवीकरणीय ऊर्जा की वैश्विक स्थापित क्षमता को तीन गुना करने और ऊर्जा कुशलता में सालाना सुधार को दोगुना करने में योगदान करने का आह्वान किया गया है। इन दोनों कदमों से अब से 2030 के बीच लगभग 7 अरब टन कार्बन डाइआक्साइड के बराबर उत्सर्जन को कम किया जा सकता है। लेकिन दिक्कत यह है कि नवीकरणीय ऊर्जा को तीन गुना करना वैश्विक लक्ष्य है और प्रत्येक देश के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह अपनी वर्तमान स्थापित क्षमता को तीन गुना करे। ऐसे में अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि नवीकरणीय ऊर्जा की स्थापित क्षमता का तीन गुना किस प्रकार होगी।

कोयले के उपयोग में कमी करनाः

तेल और प्राकृतिक गैस की तरह से ही जीवाश्म ईंधन होने के उपरांत भी इस समझोते में कोयले का उपयोग कम करने की बात कम करने की बात अलग से की गई है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 2021 में ग्लासगो सम्मेलन में भी कोयले का उपयोग कम करने की बात की गई थी। काप-28 में प्रस्ताव पेश किया गया था कि कार्बन कैप्चर और स्टोरेज सुविधा के बिना नया कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्र शुरू न किया जाए। लेकिन भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और दूसरे कई देशों ने इस प्रस्ताव का कड़ा विरोध भी किया।

मीथेन उत्सर्जन में कटौतीः

वैश्विक जलवायु समझौते में वर्ष 2030 तक मीथेन सहित गैर कार्बन डाइअक्साइड उत्सर्जन में बड़े पैमाने पर कटौती करने के लिए प्रयासों को और अधिक तेज करने की बात कही गई। है। मीथेन सभी उत्सर्जन में करीब 25 प्रतिशत का योगदान करती है। लेकिन भारत सहित कई देशों ने मीथेन के उत्सर्जन में कटौती करने के प्रस्ताव का विरोध किया। इसकी असली वजह यह है कि कृषि और पशुपालन मीथेन के प्रमुख स्रोत हैं।

लास एंड डैमेज फंडः

काप-28 में इस फंड को संचालित किया गया और मेजबान यूएई सहित कई देशों ने फंडिंग करने का वायदा भी किया। सम्मेलन के अंत तक अलग-अलग देशों ने लगभग 80 करोड़ डालर देने का वायदा किया। यह राशि जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाली आपदा से प्रभावित देशों की मदद के लिए है।

अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्यः 

काप-28 ने अनुकूलन पर वैश्विक लक्ष्य की रूपरेखा को अपनाया है। लेकिन प्रत्येक वैश्विक लक्ष्य के अन्तर्गत हुई प्रगति को मापने के लिए संकेतक की की पहिचान करना भी आवश्यक है। हालांकि अभी तक इसमें कोई वित्तीय प्राविधान नही है और इस पर विचार करना होगा।

धरती का बचाव किस प्रकार

  • जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव के कारण पिछले 100 साल में 10 सबसे गर्म वर्ष 2001 के बाद से ही हैं।
  • ग्लोबल वार्मिंग के कारण तेज बारिश, बाढ़, सूखा और चक्रवात जैसी आपदाओं की आवृत्ति लगातार बढ़ रही है।
  • बर्फ पिघल रही है, ग्लेशियर घट रहे है और समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। इससे बहुत से तटीय इलाकों के डूबने का खतरा बढ़ा है। समुद्री जीवों की कई प्रजातियों पर भी खतरा है।

धरती को बचाने के लिए पर्याप्त नही है जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के परिणाम

                                                                     

    ‘‘वैश्विक वार्ता के अन्तर्गत जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करने की बात तो की गई है और कोयले के उपयोग में तेजी से कमी करने पर अलग से जोर दिया गया है। कोयला भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं को देखते हुए काफी महत्वपूर्ण है। हालांकि भारत समस्त प्रकार के जीवाश्म ईंधनों की खपत में कमी लाने पर जोर दे रहा था, परन्तु तेल उत्पादक देशों के विरोध के चलते ऐसा सम्भव नही हो पाया।’’

    दुबई में हुए 28वें जलवायु सम्मेलन में सभी के लिए कुछ न कुछ अवश्य रहा। पिछली 30 वर्ष की जलवायु वार्ताओं में यह पहली बार है कि इसमें जीवाश्म ईंधन के उपयोग को बन्द करने के लिए हमारे पास एक स्पष्ट भाषा है, यह बात अलग है कि इसमें काफी कमियां भी रही हैं। इसके लिए जरूरी वित्तीय प्रावधान और प्रौद्योगिकी को सुनिश्चित करने का उत्रदायित्व कहां पर है अथवा इसके प्रति भुगतान किसे करना होगा, यह कुछ भी स्पष्ट नही है।

    हाल के वर्षों में, भारत विभिन्न जलवायु वार्ताओं में ग्लोबल साउथ की एक महत्वपूर्ण आवाज बनकर उभरा है। भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को गतिमान रखते हुए सततशीलता के लिए कई महत्वपूर्ण कदम भी उठाएं हैं। क्लाइमेट वनरेबल फोरम की ताजा रिपोर्ट में भारत को चार ऐसे देशों में शामिल किया गया है, जो पेरिस समझोते में निर्धारित किए गए लक्ष्यों को पाने की राह पर अग्रसर हैं। जबकि काप-28 अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में विफल रही है।

    इसलिए यह आवश्यक है कि इसका भारत और अन्य विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के अनुसार ही विश्लेषण किया जाना चाहिए। काप ने जीवाश्म ईंधन के युग के अन्त की दिशा में संकेत दिया, परन्तु अन्य जीवाश्म ईंधनों की अपेक्षा कोयले पर अधिक जोर रहा। इससे पहले काप में समस्त प्रकार के जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्व तरीके से कम करने के भारत के द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव को प्रतिध्वनि प्राप्त हुई थी।

ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) के समझोते में जीवाश्म ईंधन को चरणबद्व रूप से कम करने, पर बल देते हुए अधिक सतर्क रूख अपनाया गया है। जबकि तेल उत्पादक देशों की शक्ति और प्रभाव के कारण इस बार तेजी से उपयोग कम करने के लिए कोयले का चयन किया गया है और इसमें तेल और गैस आदि का कहीं कोई उल्लेख नही किया गया है, जबकि कोयला भारत और उसके जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए अति महत्वपूर्ण घटक है। 

    इस प्रकार हम अक्षय ऊर्जा को तेजी के साथ बढ़ाएं बिना जीवाश्म ईंधन के उपयोग में कमी नही कर सकते। एक तेजी के साथ बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था में आप किसी कारखाने को बन्द करने के लिए सिर्फ इसलिए नही कह सकते, क्योंकि उसकी ऊर्जा कोयले से आ रही है। स्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता, पवन और सौर क्षमता के मामले में भारत पहले से ही दुनियाभर में चौथे स्थान पर आता है। अक्षय ऊर्जा में वृद्वि करने के लिए ही भारत के द्वारा वित्त एवं प्रोद्योगिकी पर बल दिया है और ग्लोबल साउथ में इसकी आवश्यकता भी है।

    दूसरा, अस्पष्टताओं के साथ लॉस एंड डैमेज फंड के ऊपर एक सकारात्मक शुरूआत मानी जा सकती है। काप-28 के पहले दिन हानि एवं क्षति कोष के संचालन पर बनी सहमति एक प्रकार से सकारात्मक प्रगति ही थी, परन्तु विकासशील देशों को सहायता देने के लिए अनिवार्य उत्तरदायित्वों के अभाव और योगदान के लक्ष्यों पर स्पष्टता में कमियों ने और चुनौतियाँ ही खड़ी की। भारत को जलावयु परिवर्तन के चलते होने वाले मौसमी बदलावों के कारण निरन्तर हानि एवं क्षति का सामना करना पड़ रहा है।

अपने उत्तरदायित्व से मुंह चुराते विकसित देश

इस बार की काप-28 को ऐतिहासिक माना जा रहा है। जब पहली बार 195 देशों ने मिलकर यह संकल्प लिया है कि वह धीरे-धीरे अपने जीवाश्म ईंधन के उपयोग में कमी करेंगे। यह बात पेरिस समझौते में भी कही गई थी और तब यह तय किया गया था कि हम इसे चरणबद्ध तरीके से लागू करेंगे। परन्तु इसके लिए कोई स्वीकार्यता नहीं थी और ऐसे में अब इस बार यह निर्णय लिया कि अपनी-अपनी स्थितियों को देखते हुए जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करेंगे। असल में जीवाश्म ईंधन के कम उपयोग करना ही इसका सबसे बड़ा समाधान भी माना गया गया है।

वैसे दुनिया में कार्बन उत्सर्जन का मूल स्रोत जीवाश्म ईंधन ही है और इसके अलावा इस बार मीथेन पर भी व्यापक चर्चा हुई। सम्भवतः इस पूरे प्रकरण में सबसे अहम बात तो यह है कि विकासशील देशों में अभी भी जीवन का स्तर पश्चिमी देशों की अपेक्षा में काफी नीचे है। विकासशील देश अपने-अपने देश में लोगों के जीवन स्तर को सामान्य स्तर तक पहुंचाना चाहते हैं। यही कारण है कि ऊर्जा के दूसरे विकल्पों के अभाव में वे कार्बन उत्सर्जन में कटौती का विरोध करते रहे हैं।

यदि वर्ष 2050 तक हमें विश्व के तापमान को औद्योगिकीकरण से पहले के स्तर की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देना है तो जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करना ही होगा। यह भी एक सच है कि यदि वर्ष 2035 तक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 60 प्रतिशत तक की कटौती करनी है तो वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 43 प्रतिशत तक की कटौती करनी चाहिए।

इसके बाद ही हम 2050 के नेट जीरो लक्ष्य तक पहुंच पाएंगे और तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक ही रोक पाएंगे। वर्तमान समय में यदि हम जीवाश्म ईंधन का उपयोग करने के अलावा अन्य किसी ऊर्जा पर निर्भर हो सकते हैं तो वह एकमात्र अक्षय ऊर्जा का स्रोत ही है लेकिन विकासशील देशों के पास न तो इसका कोई विकल्प है और न ही उनके पास ऐसे संसाधन हैं कि वह दूसरी ऊर्जा पर निर्भरता को बढ़ा सकें। समझौते में यह भी कहा गया है कि हमको अपनी अक्षय ऊर्जा की स्थापित क्षमता तीन गुना करनी होगी, तभी हम लक्ष्य तक पहुंचेंगे।

इन सब के बीच लास एंड डैमेज भी एक बड़ा मुद्दा था, जिसके बारे में कभी गंभीरता से नहीं सोचा गया। लांस एंड डैमेज का मतलब कि विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई करने से है। इस पर बहुत ज्यादा चर्चा नहीं की गई और एक तरह की निराशा भी रही कि इसके वित्तीय पहलू, चाहे वह ऊर्जा के लिए धन जुटाने की बात हो या फिर लास एंड डैमेज की बात, गंभीर निर्णय कभी भी नहीं लिया गया। इस स्थिति के लिए विकसित देश ही जिम्मेदार हैं। विकसित देश अपने हिस्से के विकास करने के बाद विकासशील देशों के विकास पर अंकुश लगाने का ही प्रयास कर रहे हैं। विकासशील देशों के पास कोई विकल्प नहीं है। ऐसे में वे ऊर्जा के परंपरागत विकल्पों को नहीं छोड़ सकते। काप-28 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वित्तीय प्रबंधन भी निराशा का ही एक विषय रहा।

मीथेन के प्रस्ताव पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए हैं, और सभी देश अपनी-अपनी परिस्थितियों के अन्तर्गत इसके उत्सर्जन पर जरूरी अंकुश लगाएंगे। वैश्विक वार्ता में सारा जोर इस बात पर ही रहा कि सारी दुनिया को पारंपरिक ऊर्जा स्रोत से हटाकर गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोत पर लाया जाए, जबकि इसके विकल्प पर अधिक चर्चा नहीं की जा रही है।

चुनौति तो काफी बड़ी है

    औद्योगिक क्रॉति के बाद से ही दुनिया का औसत तापमान तेजी के साथ बढ़ता रहा है। वैसे तो वर्ष 1896 में ही रसायनविद् स्वांते आर्हेंनियस के द्वारा कोयले को जलाने से ग्रीन हाउस गैसों के स्तर में वृद्वि होने की बात कही थी, और उस समय किसी ने यह सोचा भी नही था कि यह एक इतने बड़े वैश्विक संकट की शुआत है। वर्ष 1992 में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) नामक एक संधि भी की गई थी। इस संधि में जलवायु परिवर्तन के माध्यम से होने वाले खतरों से निपटने की दिशा में नियमों का एक स्ट्रक्चर भी तैयार किया गया।

इसी पहल के तहत वर्ष 1995 में काँफ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) के रूप में वार्षिक सम्मेलन किया जाता है। इसके सम्बन्ध में पिछले तीन दशकों के दौरान इस चर्चाएं भी खूब हुई और उनके सापेक्ष लक्ष्य भी निर्धारित किए गए, परन्तु निर्धारित किए गए लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उस स्तर के प्रयास नही किए गए जो कि उन्हें प्राप्त करने के लिए अपेक्षित थे।

औद्योगिक उत्सर्जन के तहत एक बड़ी समस्या

                                                                    

    यूएन की एक रिपोर्ट तो बताती है कि वर्ष 2030 तक वैश्विक स्तर पर ऊर्जा की आवश्यकता के अनुसार बिजली की की हिस्सेदारी को बढ़ाना होगा और वर्ष 2020 की तुलना में इसे दो गुने से भी अधिक करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। हालांकि सीमेंट उद्योग के अन्तर्गत होने वाले उत्सर्जन को भी कम करने का लक्ष्य रखा गया है। देखा जाए तो इसके प्रति जिस प्रतिबद्वता की आवश्यकता है वह निश्चित् तौर पर विभिन्न देशों के बीच दिखाई नही दे रही है।

उद्योगों में ऊर्जा के विभिन्न स्रोत (विश्व स्तर पर) वर्ष 2020

ऊर्जा के विभिन्न स्रोत

प्रतिशतता

नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत

- 8.9 प्रतिशत

विद्युत

- 15.0 प्रतिशत

तरल ईंधन

- 25.6 प्रतिशत

प्राकृतिक गैस

- 24.1 प्रतिशत

कोयला

- 26.7 प्रतिशत

 कोयले से ही बनती है सबसे अधिक बिजली

ग्रीन हाउस गैसों के दो सबसे बड़े कारण जीवाश्म ईंधन और कोयला ही हैं, और जलवायु परिवर्तन के मूल में ग्रीन हाउस गैसों का बढ़ता हुआ स्तर ही है। इन्हीं गैसों का स्तर बढ़ने से ही पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ रहा है, जो कि वर्तमान में दुनिया के सामने एक बहुत बड़े संकट के रूप में खड़ा है। यूएनईपी के द्वारा जारी एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि हमें वर्ष 2030 तक बिजली के उत्पादन में प्रयोग होने वाले कोयले को खत्म करना ही होगा। जबकि गैस की हिस्सेदारी को भी वर्ष 2030 तक 17 प्रतिशत और वर्ष 2040 से वर्ष 2050 तक इसे शून्य के स्तर पर लाने को प्राथमिकता देनी ही होगी। हालांकि वर्तमान की स्थितियों से यह स्पष्ट है कि ऐसा कर पाना सम्भव नही है।

बिजली के उत्पादन में कोयले का योगदान

विश्व स्तर पर बिजली उत्पादन के प्रमुख स्रोत वर्ष 2021

भारत में बिजली उत्पादन के प्रमुख स्रोत वर्ष 2022

ऊर्जा के स्रोत

विश्व स्तर पर

भारत के स्तर पर

कोयला

36.0 प्रतिशत

50.0 प्रतिशत

तेल

2.5 प्रतिशत

1.7 प्रतिशत

गैस

22.9 प्रतिशत

6.1 प्रतिशत

परमाणु

9.8 प्रतिशत

1.7 प्रतिशत

जल-विद्युत

15.0 प्रतिशत

11.5 प्रतिशत

पवन-ऊर्जा

6.5 प्रतिशत

10.2 प्रतिशत

सौर-ऊर्जा

3.6 प्रतिशत

14.9 प्रतिशत

ऊर्जा के अन्य स्रोत

2.7 प्रतिशत

3.8 प्रतिशत

 गरीब देशों को प्रदान की गई आर्थिक सहायता

वर्ष

वार्षिक सहायता

2015

44.6 अरब डॉलर

2016

58.6 अरब डॉलर

2017

71.2 अरब डॉलर

2018

78.9 अरब डॉलर

2019

80.4 अरब डॉलर

2020

83.3 अरब डॉलर

2023

100 अरब डॉलर (निर्धारित लक्ष्य)

                

धरती का निरन्तर गर्म होना और उससे निपटने के लिए विश्व के द्वारा उठाए गए कदम

                                                                        

गर्म होती गई धरती, ठंडे पड़े रहे संकट से निपटने के लिए दुनिया के कदम जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले खतरों का अनुमान दशकों पहले से ही लगाया जाने लगा था। परन्तु इन खतरों से निपटने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। जिसके फलस्वरूप ही आज 20वीं सदी के औसत की तुलना में वैश्विक तापमान एक डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है।

  • 1896 रसायनविद् स्वांते नियस ने बताया कि कोयला जलाने से ग्रीनहाउस का स्तर बढ़ सकता है।
  • 1965 में विज्ञानियों ने अमेरिकी राष्ट्रपति लिडन जानसन को उत्सर्जन के बढ़ते स्तर से किया आगाह।

1990 में पहली आइपीसीसी रिपोर्ट

धरती को बचाने के प्रयासों में वार्ताएं उस समय ही सफल होंगी जब मात्र योजनाओं और वायदो से आगे जाकर तत्काल प्रभावी कदम उठाए जाएंगे। अतः अपने पर्यावरण को बचाने के लिए विकास हेतु लचीलेपन वाली नीतियों के साथ ही शून्य उत्सर्जन की रूपरेखा को भी समय रहते ही तैयार करने की आरवश्यकता है।

उत्सर्जन के वैश्विक इतिहास में वर्ष 1850 में ब्रिटेन शीर्ष पर था। जबकि वर्ष 2011 तक अमेरिका, चीन, फ्राँस, जर्मनी और बेल्जियम समेत अनेक अमीर देश एक बड़े उत्सर्जक के रूप में स्थापित हो गए। अब उत्सर्जन को कम करने के लिए विकासशील देशों पर दबाव बनाया जा रहा है। जबकि यह अमीर देश अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तरह से नही निभा रहे हैं।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन वार्ता विभिन्न क्षेत्रों लाभकारी रहेगी। भारत के द्वारा इस वार्ता में इस बात पर बल दिया कि विकासशील देशों की वित्तीय सहायता प्रमुख रूप से की जानी चाहिए। क्योंकि विकासशील देश जलवायु परिवर्तन के विरूद्व इस मुहिम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। भारत ने विकासशील देशों के हितों के प्रति दुनिया का ध्यान उस ओर आकर्षित किया। 

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।