अभावों को पीछे छोड़ते हुए हमारे गाँव Publish Date : 29/08/2023
अभावों को पीछे छोड़ते हुए हमारे गाँव
डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा
भारतवर्ष की आधे से अधिक जनसंख्या आज भी गाँवों में ही निवास करती है और इसमें से भी आधी से कुछ कम जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए कृषि पर ही निर्भर है, यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्र का विकास करना हमारी प्राथमिकताओं में शामिल है। स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्षों के अन्तराल के दौरान ग्रामीण क्षेत्र के विकास को सन्दर्भित करता हुआ हमारा यह लेख-
भारत सकार के आर्थिक सर्वेक्षण 2022-2023 के अनुसार वर्तमान में देश की 65 प्रतिशत जनसंख्या हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में ही निवास करती है। जिसमे से लगभग 47 प्रतिशत जनसंख्या की आजीविका का आधार कृषि है। औपनिवेशिक शासन के दौरान आर्थिक शोषण, बदहाली, निरक्षरता और पराधीनता का क्रूर दंश सबसे अधिक हमारे गाँवों को ही झेलना पड़ा था। आजादी प्राप्त करने के बाद भी हमने स्वतंत्र भारत के विकास के सन्दर्भ में उसी पाश्चात्य मॉडल को तरजीह दी जिसके अन्तर्गत क्षेत्रीय संतुलन का बन पाना सम्भव ही नही था, इस दौरान भारत में औद्योगिक विकास तो हुआ परन्तु वह केवल शहरों तक ही सिमट कर रह गया।
औद्योगिकीकरण, वाणिज्यीकरण एवं शहरीकरण ही एक दूसरे के पर्याय बने रहे। विकास के मार्ग पर हमारे शहर तो तेजी के साथ बढ़ते चले गये, जिसके चलते एक समृद्व भारत का निर्माण हुआ जहाँ शिक्षा एवं स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएं और रोजगार के अवसरों का सृजन हुआ तो दूसरी ओर एक अविकसित भारत जो कि हमारी पूरी जनसंख्या के लिए खाद्यान्न, सब्जी, फल, दूध, इही और घी आदि की आपूर्ति तो करता रहा परन्तु स्वयं गरीबी और बेरोजगारी की समस्या के विरूद्व आज भी संघर्ष करता हुआ ही नजर आ रहा है।
इस क्षेत्र में न तो गुणात्मक शिक्षा एवं स्वास्थ्य की सुविधाएं ही उपलब्ध हो पाई हैं और न ही रोजगार के नये अवसरों का सृजन ही हो पाया है। इस प्रकार से यह कहना कतई गलत नही होगा कि एक लम्बे समय तक इस अविकसित भारत के 6.5 लाख गाँव विकसित इण्डिया के उपनिवेश ही बनकर रह गए। स्वतंत्र भारत की केन्द एवं राज्य सरकारों के द्वारा अपने ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिए विभिन्न कार्य किए। परन्तु इस विकास की गति ऐसी नही रही कि हमारे गाँव भी शहरों के साथ कदम से कदम मिलाकर इस विकास के पथ पर आरूढ़ हो सकें।
वर्ष 2014 के पश्चात् सरकार के द्वारा किए गए प्रयास के चलते लगभग प्रत्येक घर तक बिजली की पहुँच, पेय जल के स्रोतों में व्यापक सुधार, स्वास्थ बीमा योजना का विकास एवं विस्तार, बैंक के खातों में वृद्वि और मोबाईल तथा इंटरनेट के उपयोग में वृद्वि के जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए गए। इस दौरान महिला सशक्तिकरण को भी पर्याप्त बल मिला तो बच्चों के स्वास्थ्य सम्बन्धी आँकड़ों में भी व्यापक सुधार आया। दीनदयाल अंत्योदय योजना, राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन आदि योजनाओं के अन्तर्गत आर्थिक दृष्टि से कमजोर परिवारों को भी स्वरोजगार के अवसर भी प्राप्त होने लगे।
योजनाओं पर ध्यान देना होगा
भारत के पारंपरिक कुटीर एवं घरेलू उद्योग जो कि फिलहाल बन्द पड़े है, इनको आगे बढ़ाने के लिए चीन की तरह भारत में कभी कोई गम्भीर प्रयास नही किए गए और न ही गाँवों में औद्योगिकीकरण पर पर्याप्त ध्यान दिया गया। ऐसे में रोजगार के उचित अवसरों का सृजन नही होने के कारण भारतीय जनसंख्या का दबाव कृषि पर ही बढ़ता चला गया।
आज भी रोजगार की तलाश में हमारे ग्रामीएा क्षेत्र के शिक्षित युवाओं, कुंशल एवं अकुशल कारीगरों का शहरों की ओर पलायन अनवरत जारी है। 1990 वाले दशक में आरम्भ की गई नई आर्थिक नीति, उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के कुछ अच्छे तो कुछ बुरे प्रभावों को हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था, समाज एवं संस्कृति के ऊपर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
हालांकि, देश में सामाजिहक स्तर पर जातिवाद कुछ कमजोर पड़ा है, परन्तु वोट के लिए गंदी राजनीति के कारण जातिगत राजनीति के महत्व में वृद्वि हो रही है। जाति आधारित आरक्षण, जातिगत सर्वेक्षण और वोट बैंक के रूप में जाति का उपयोग करने के चलते भारतीय ग्रामीण समाज में जातीय द्वेष के साथ ही यदा-कदा होने वाले संघर्ष की घटनाओं को भी देखा जा सकता है। जाति के नाम पर विभिन्न राजनीतिक दल और उनके बीच गठबन्धन भी बनने लगे हैं। सामान्य तौर पर गाँव के रहने वाले लोग आपसी सद्भाव से रहते हैं परन्तु समय-समय पर राजनीतिक दलों और (दुर्भाग्य से सभ्रान्त कहे जाने वाले) बुद्विजीवियों के इशारे पर ग्रामीण समाज में भी जातिगत संघर्ष होते रहते हैं।
भ्रष्टाचार करना होगा दूर
देश में भूमि संधार एवं कृषि के आधुनिकीकरण होने के चलते हमारे कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी तो अवश्य हुई है, परन्तु कृषि कार्यों की बढ़ती हुई लागत की तुलना में किसानों की आय में समुचित वृद्वि नही हो पा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा वर्ष 2022 तक किसानों की आय में दोगुनी वृद्वि करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। इसके विभिन्न महत्वपूर्ण कदम भी उठाए गए, एमएसपी के दायरे में आने वाली फसलों की संख्या और एमएसपी की इरों में डेढ़ से दोगुनी तक की वृद्वि भी की गई। हालांकि कृषि उत्पादों के मूल्यों का निर्धारण करने में किसान आज भी बेचारा ही है।
पिछले दिनों कृषि बिल पेशकर सरकार ने किसानों की आय में वृद्वि की बात कही, परन्तु इन कानूनों का दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं पंजाब जैसे राज्यों में जबरदस्त विरोध किया गया। इस दौरान किसान सांगठनों में भी व्यापक फूट दिखाई दी तो राजनीतिक दलों ने जारी इस किसान आंदोलन को सरकारी विरोधी एक हथियार के रूप में उपयोग करने में कोई कसर बाकी नही छोड़ी। किसान आंदोलन की उग्रता के आगे सरकार को झुकना पड़ा और सरकार ने यह तीनों कृषि कानून को वापस ले लिया, किसान पूर्व की भाँति ही बिचौलियों के चुगुल में फसने को फिर से बाध्य हो गए।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।