अपने हुनर को बढ़ाएं Publish Date : 23/08/2023
अपने हुनर को बढ़ाएं
हुनर से आपकी बढ़ेगी तरक्की की रफ्तार
गांव-गांव में यह पंक्तियां काफी समय से प्रचलित हैं
उत्तम खेती मध्यम बान निषेध चाकरी भीख निदान
गाँवों में खेती किसानी की जरूरतों और मौसम के मिजाज की जबरदस्त तरीके से समझ रखने वाले महाकवि घाघ का यह कथन सदियों से हिंदी पट्टी में खूब पढ़ा और रटा जाता है। लेकिन, असलियत अब इसके बिलकुल विपरीत हो चुकी है। वर्तमान में चाकरी यानी नौकरी चाहे वह सरकारी हो या फिर निजी, रोजगार का दूसरा नाम बन चुकी है। यह किस्सा भी आज का नहीं है, अंग्रेजों के राज से जो सरकारी नौकरी का आकर्षण शुरू हुआ वह आजादी के बाद से वह लगातार बढ़ता ही जा रहा है। तो वहीं दूसरी तरफ गांव में खेती पर निर्भर परिवारों या छोटे कार्य करने वालों की जिंदगी में तकलीफ ही तकलीफ है जो लगातार बढ़ती जा रही है।
किसानों के परिवार बढ़ने के साथ खेतों का बंटवारा होता गया और धीरे-धीरे यह इतनी छोटी हो गई कि खेती से गुजारा करना भी मुश्किल होता जा रहा है। ऐसा ही हाल दुकान चलाने वालों या छोटे कारोबार में लगे परिवारों का भी हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ कि खेती या व्यापार में मुनाफा न देखकर हर परिवार से एक या ज्यादा लोग नौकरी तलाशने या नौकरी करने शहर की ओर निकल पड़े। वर्ष 1901 की जनगणना के अनुसार देश की 11.4 प्रतिशत आबादी शहरों में रहती थी, जबकि यही आंकड़ा वर्ष 2001 तक 28.53 प्रतिशत हो चुका था, और विश्व बैंक के मुताबिक 2017 तक भारत की 34 प्रतिशत आबादी शहरों में आ चुकी थी। विश्व बैंक के एक सर्वे का नतीजा है कि वर्ष 2030 तक यह आंकड़ा 40.76 प्रतिशत का हो चुका होगा।
विकास के इस दौर में शहरों की आबादी का बढ़ना कोई गलत बात नहीं है। वहीं अगर हम दुनिया का नक्शा देखें तो ज्यादातर अमीर देशों की ज्यादा बड़ी आबादी शहरों में ही रहती है। यानी देश की समृद्धि बढ़ने का एक पैमाना शहरों की आबादी भी होती है और आबादी में कम होने के बावजूद देश की कमाई में शहरों की हिस्सेदारी बाकी देश के मुकाबले कहीं ज्यादा है। अभी देश की जीडीपी में शहरों की हिस्सेदारी करीब 63 प्रतिशत है और सीबीआरई और क्रेडाई के एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2031 तक जीडीपी का 75 प्रतिशत हिस्सा शहरों से ही आएगा।
ऐसे में जाहिर है कि शहर बढ़ेंगे तो शहरों की आबादी भी बढ़ेगी और उस आबादी की जरूरतें भी बढ़ती चली जाएंगी। इन सब जरूरतों को पूरा करने के लिए शहरों में ही रोजगार के मौके बनेंगे। सरकार को भी अब यह समझ में आ रहा है कि बेरोजगारी की समस्या से निपटने का सबसे अच्छा रास्ता यही है कि लोगों को तरह-तरह के कामों का प्रशिक्षण देकर इस लायक बना दिया जाए कि वह अपना काम शुरू कर सकें।
पिछले हफ्ते ही केंद्रीय कैबिनेट ने प्रधानमंत्री विश्वकर्मा योजना के लिए 13000 करोड़ रुपए के खर्च की मंजूरी दी है। इसके तहत बढ़ई, लोहार, सुनार, कुम्हार, मोची और दर्जी जैसे अट्ठारह किस्म के परंपरागत कामों में लगे लोगों को पहले दौर में ₹100000 और उसके बाद ₹200000 का कर्ज दिया जाएगा। सस्ती दरों पर मिलने वाला यह कर्ज कारोबार बढ़ाने के लिए दिया जाएगा। देखा जाए तो यह सारा काम सिर्फ शहरों में ही नहीं अपितु गांव में भी हो सकता है।
हर गांव के अपने लोहार, कुम्हार, मोची और दलित तो यही करते थे। मगर पिछले कुछ वर्षों से धीरे-धीरे यह भी अब गायब होते जा रहे हैं। परंपरागत कामों में लगे बहुत से लोग इसलिए भी गांव से निकल गए हैं कि उन्हें शहरों में नौकरी करना ज्यादा अच्छा लग रहा है और उसमें उन्हें अधिक मुनाफा हो रहा है।
हालांकि, दूर के ढोल सुहावने होते हैं यह कहावत साकार रूप से देखनी है तो करीब-करीब हर छोटे-बड़े शहर में सुबह-सुबह उन ठिकानों पर जाकर देखें जा सकते हैं, जहां घर बनाने का काम करने वाले मजदूर और मिस्त्री अपने लिए काम की तलाश कर रहे होते हैं। 9 बजे तक वहां मायूसी छाने लगती है और 10:00 बजे तक तो आधे से ज्यादा लोग हर रोज बेकार वापस घर लौट के लिए मजबूर होते हैं। परन्तु इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि जिस दौर में गांव में हुनरमंद कारीगरों की जिंदगी मुश्किल हो रही थी, करीब करीब उनके साथ ही भारत एक नई कहानी भी लिखी जाने लगी थी।
खासकर 1991 के आर्थिक सुधारो व राजीव गांधी के दौर की संचार क्रांति ने देश के कोने-कोने में अचानक बहुत से लोगों के लिए काम के लिए नए दरवाजे खोल दिए थे।
अब मनरेगा के बाद तस्वीर कुछ और बदल गई गांव में लोगों को मामूली मजदूरी का मेहनताना अच्छा मिलने लगा, तो बाकी सारे काम की रेट लिस्ट भी बदल गई है। आजकल शहरों में उन लोगों का भाव भी देखने लायक है जो किसी खास काम में कोई विशेष हुनर रखते हैं। यहां तक की अच्छे काम के लिए मशहूर दरजी या नाई के पास समय मिलना भी मुश्किल होता है। दूसरी तरफ ओला उबर, जोमैटो, स्विग्गी या अर्बन कंपनी जैसे ऐप चलाने वालों ने काम और कामगार का आपसी रिश्ता ही बदल दिया।
अब तो रोजगार के आंकड़े जुटाने वाले भी सर्वे कर ऐसे “गिग वर्कर्स” की गिनती को रोजगार में ही जोड़ रहे हैं और सरकारों को भी समझ में आ रहा है कि यह एक नई बिरादरी है जिसे खुश करके उनका कल्याण हो सकता है। इससे बड़ी बात यह है कि सरकार और विशेषज्ञों को भी रोजगार की समस्या का सबसे सटीक इलाज यही दिखाई पड़ रहा है। केंद्र सरकार के स्किल इंडिया पोर्टल पर एक नजर डालने से पता चलता है कि किस-किस तरह के नए काम बाजारों में आ रहें है जिनके लिए बाकायदा ट्रेनिंग भी दी जा रही है।
प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत अब कौशल को 60 से 70 श्रेणियां में बांटा गया है, जिनके तहत दर्जनों कामों की ट्रेनिंग युवाओं को दी जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा व्यवस्था को लेकर सबसे बड़ी शिकायत यही रही है कि कॉलेज से डिग्री लेकर निकलने वाले लोग भी रोजगार के लायक नहीं है।
तो सिर्फ शुरुआती पढ़ाई के बाद ही सीधे रोजगार तक पहुंचने वाली ट्रेनिंग ही क्या इस समस्या का जवाब है या हो सकता है कि यह पूरा जवाब ना हो लेकिन युवा आबादी के बड़े हिस्से के लिए एक सुरक्षित भविष्य का रास्ता तो है ही और बात इसके आगे भी की जा सकती है।
इंग्लैंड का एक किस्सा बहुत पुराना है कि एक डॉक्टर साहब ने किसी काम के लिए किसी प्लंबर को बुलाया, प्लंबर ने बताया कि आधे घंटे के काम के 40 पाउंड लगेंगे। डॉक्टर ने कहा भाई मैं एक डॉक्टर हूं और आधे घंटे के 30 पाउंड ही लेता हूं तो उन्हें इसका जवाब मिला जब मैं भी एक डॉक्टर था तो इतना ही लेता था। आपको यह मजाक लग रहा होगा, लेकिन ऐसा है नहीं।
अमीर देशों में ऐसे कामों में पैसा और इज्जत दोनों ही काफी ज्यादा है जिन्हें हमारे देश में निचले दर्जे का काम समझा जाता रहा है, हालांकि अब तस्वीर काफी तेजी से बदल रही है। शायद इसलिए लोगों को हुनरमंद बनाने की मुहिम का चारों ओर स्वागत हो रहा है और होना भी चाहिए, क्योंकि हुनर ही ऐसी चीज है जो हमारे रोजगार को बढ़ावा देती है और साथ ही साथ यह हमारी तरक्की की रफ्तार को और भी तेज कर सकती है।