इन्सेफेलाइटिस वायरस मिला चमगादड़ों में Publish Date : 21/08/2023
इन्सेफेलाइटिस वायरस मिला चमगादड़ों में
‘कोरोना की प्रथम लहर के दौरान गोरखपुर में मृत मिले थे, 150 चमगादड़”
पूर्वी उत्तर प्रदेश के साथ ही बिहार में अनेकों मासूमों की जान लेने वाले जापानी वायरस इंसंफेलाइटिस (जेई) अब चमगादड़ों को भी संक्रमित करने लगा है। ऐसा देश में पहली बार चमगादड़ों में जापानी वायरस इंसंफेलाइटिस के मिलने के कारण कहा जा रहा है। इस बात का खुलासा उत्तर प्रदेश के बरेली स्थित आईवीआरआई के द्वारा किये गये एक शोध में यह परिणाम सामने आए हैं। ज्ञात हो कि लगभग 150 चमगादड़ वर्ष 2020 में गोरखपुर में मृत अवस्था में पाये गये थे।
जिस समय देश कोरोना की पहली जहर के चलते लॉकडाउन लगा हुआ था, तो इसीके दौरान 26 मई 2020 को गोरखपुर के बेलघाट क्षेत्र में स्थित एक बाग में लगभग 150 चमगादड़ मृत अवस्था में पाए गए थें। उस समय कोरोना के सन्देह के कारण उन चमगादड़ों में से 52 मृत चमगादड़ों का पोस्टमार्टम एवं उनकी विस्तृत जांच के लिए बरेली स्थित भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान को भेजे थे।
आईवीआरआई की एनिमल एंड पब्लिक हेल्थ विंग में वरिष्ठ वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत डॉ0 हिमानी धान्जे के नेतृत्व में एक टीम ने इन चमगादड़ों की गहन जांच पड़ताल की। जांच के दौरान मस्तिष्क के ऊतक में वायरस की पहिचान करने के लिए आरटीपीसीआर जांच भी की गई थी जिसके परिणाम बहुत चौंकानें वाले रहे। इन चमगादड़ों के मिागी ऊतकों (टिश्यूज) में जापानी वायरस इंसंफेलाइटिस प्राप्त हुआ।
पहली बार हुई जापानी वायरस इंसंफेलाइटिस की पुष्टि
भारत में अभी तक कभी भी चमगादड़ों में इस वायरस के मौजूद होने की पुष्टि नही हुई थी। देश में ऐसा पहली बार है कि चमगादड़ों में जापानी वायरस इंसंफेलाइटिस के मौजूद होने की अधिकारिक रूप से पुष्टि की गई है। हालांकि इस वायरस से संक्रमित चमगादड़ों में कोई विशेष बीमारी किवसित नही हुई थी।
नये शोध से खुले आयाम
वर्ष 2020 में गोरखपुर में मृत पाये गये सभी चमगादड़ फलों के रस को चूसने वाले थे, जिन्हें फ्रूट बैट कहते हैं। यह चमागदड़ पूरी तरह से शाकाहारी होते हैं। भारत में पहली बार चमगादड़ों में जापानी वायरस इंसंफेलाइटिस की मौजूदगी को लेकर कोई शोध किया गया है।
चमगादड़ों में जेई वारयस कैसे पहुँचा, शोध का विषय
डॉ0 हिमानी के अनुसार मानव में जेई वायरस का प्रवेश मच्छरों के काटने से होता है। अब यह एक शोध का विषय है कि आखिर यह वायरस चमगादड़ों के अन्दर किस प्रकार पहुँचा।
ब्रेन हेमरेज एवं हीट स्ट्रॉक बना मौत का कारण
डॉ0 हिमानी धान्जे ने बताया कि यह चमगादड़ जापानी वायरस इंसंफेलाइटिस से संक्रमित अवश्य थे, परन्तु इनकी मौते होने का मुख्य कारण हीट स्ट्रॉक था। गर्मी के चलते होने वाला ब्रेन हैमरेज से ही उनकी मौत हो गई थी। चूँकि वह कोविड-19 का प्रारम्भिक दौर था इसलिए इन मृत चमगादड़ों में कोरोना के संक्रमण की भी आशंका थी, और इसीके मद्देनजर कोरोनार वायरस की पहिचान करने के लिए यह जांच की गई थी।
भारत में ही खोजा गया था मलेरिया का परजीवी
हालांकि, अभी तक इस बात के कोई स्पष्ट संकेत नही हैं कि मानवीय रक्त-पान करने वाले ड्रैकुला वास्तव में होते भी हैं अथवा नही। परन्तु इसके सन्दर्भ में यदि मच्छरों को देखा जाए तो कह सकते हैं कि मच्छर ड्रैकुला के वंशज ही होंगे। जबकि एक बात यह है भी है कि सब के सब मच्छर ड्रैकुला नही होते है, यदि सभी मच्छर ड्रैकुला होते तो इस दुनिया में मानव का जीवन ही दूभर था।
हालांकि, वैद्यों एवं हकीमों का मच्छरों पर यह शक रहा है कि यह मच्छर ही न जाने कितनी बीमारियों के वाहक के तौर पर कार्य करते हैं। अतः मानव की गिद्व-दृष्टि सदैव ही मच्छरों के ऊपर केन्द्रित रही है, इसके बाद जब माइक्रोस्कोप का आविष्कार हुआ तो उसकी सहायता से मच्छर, मानव की पैनी नजरों में आ गए।
लगभग 125 वर्ष पूर्व की बात है, जब अल्मोड़ जिले में जन्में एक अंगेज सर्जने कि मच्छरों की गहन जांच-पड़ताल के लिए प्रसिद्व हुआ करते थे। उस समय कुनैन का व्यापक रूप् ये उपयोग किया जाता था, परन्तु इसके उपरांत भी हजारों लोग केवल मच्छरों के कारण ही मारे जाते थे।
इस अंग्रेज सर्जन को इस बात का ज्ञान अच्छी तरह से था कि मलेरिया का अध्ययन करने के लिए सबसे सटीक यदि कोई स्था है तो वह भारत ही है, क्योंकि यहाँ कुछ मौसमों में मच्छरों की बहार रहती है और शाम होते ही मच्छरों का शैतानी संगीत कानों में गूंजने लगता है। यह बात अलग है कि भले ही उन सबका संगीत एक जैसा ही हो परन्तु मच्छर तो विभिन्न प्रकार के होते हैं।
इस अंग्रेज सर्जन ने सिकन्दराबाद स्थित अपनी प्रयोगशाल में बड़ी संख्या में मच्छी पाले हुए थे। भारत में मलेरिया के एक मरीज हुसैन खान को तलाश कर उसे बामुशिकल इस बात के लिए तैयार किया गया कि उसे मच्छर से कटवाने के लिए पैसे दिये जायेंगे। इस प्रकार मरीज के तैयार हो जाने के बाद, मच्छरों को छोड़ा गया और हुसैन खान ने इन मच्छरों को स्वयं को काटने और खून पीने की अनुमति दी गई और इसके लिए हुसैन खान को कुल आठ आने का भुगतान भी किया गया।
वहाँ उपस्थित सेवकों ने हुसैन खान के रक्त का पान करने वाले मच्छरों को चारों ओर से घेरकर पकड़कर उन्हें परखनलियों में बन्द कर दिया गया। इन परखनलियों में कुछ बून्द पानी के साथ मच्छर एवं एक रूई के छोटे से फाहे की सहायता से परखनली के मुँह को बन्द कर दिया गया। कुछ मच्छर तो ऐसे ही मारे गये, तो बाकी बचे मच्छरों की चीरफाड़ अंग्रेज सर्जन के द्वारा की गई, जिससे कि उनके शरीर के अन्दर मौजूद मलेरिया के विषाणु का पता लगाया जा सके।
इस कार्य में 20 अगस्त, 1897 को 5वाँ दिन था और उनकी प्रयोगशाला में केवल एक ही मच्छर उपलब्ध था। मच्छरों निरंतर निगरानी करने के कारण आँखें भी थकने लगी थी। उनके सामने हल्के भूरे रंग, चितकबरे पै, लम्बी सूँड़ अथवा डंक और बारीक काली पट्टियों वाले पंख वाला एक मच्छर था। अंगेज सर्जन ने बहुत ही सावधानी पूर्वक उस मच्चर का विच्छेदन किया, उनका मन भी बहुत दुखी था क्योंकि लगभग एक हजार मच्छर तो इस खोज की भेंट तो अभी तक चढ़ ही चुके थे।
प्रयोगशाला में बचे एकमात्र मच्छर का विच्छेदन कर सावधानीपूर्वक उसका परीक्षण कर उसके प्रत्येक माइक्रोन को इतनी सर्तकता के साथ उसका विश्लेषण कर रहे थे कि जैसे कोई किसी एक छोटे से छिपे खजाने के लिए किसी विशाल खण्ड़हर हो चुके महल का चप्पा-चप्पा खोजता है। समवतः यह अन्तिम मच्छर भी कोई सुबूत देकर नही जाएगा।
सर्जन को अपनी पहली नजर में तो कुछ भी दिखाई नही दिया, परन्तु जब उन्होंने गौर से देखा तो मच्छर के पेट में एक अजीब सी संरचना उन्हें दिखाई पड़ी। उन्होंने माइक्रोस्कोप की सहायता से गहन जांच-पड़ताल के दौरान सामने से ही नजर आ रही 12 कोशिकाओं में छोट-छोटे दानों का एक समूह दिखाई पड़ा। यह काले रंग के मलेरिया के परजीवी थे, जो कि मच्छर के पेट में पल रहे थे।
यही क्षण मानव जाति के लिए एक निर्णायक क्षण साबित हुआ, सर्जन ने खुशी से उत्साहित होकर अपने सहायक को पुकारा, हालाांकि, उन्हें यह ळाी शक हुआ कि कहीं जादूगरनी प्रकृति उनके साथ कोई खेल तो नही कर रही है, परन्तु उन्होंने इस आकृति को बार-बार देखा और उस मलेरिया परजीवी को उसकी आकृति के साथ अपनी नोटबुक में दर्ज कर लिया। उसी दिन उन्होंनें अपनी पत्नि से सम्बन्धित एक कविता भी लिखी, जिसमें उन्होनें अपनी प्रसन्नता को व्यक्त किया था-
आज के दिन खुश है ईश्वर,
मेरे हाथ पर उन्होने रख दी है,
एक अद्भुत वस्तु रख दी
और भगवान की करो स्तुति।
जिनके आदेश पर,
जिनके गुप्त कारनामों की खोज में
आंसुओं और भारी सासों के साथ,
मुझे तम्हारे धूर्त बीज मिल गए हैै,
हे लाखों हत्यारों की मौत,
अब यह छोटी सी बात मुझे पता है,
अब बचेंगे असंख्य लोग,
ऐ मौत के स्वरूप अब तुम्हारे डंक कहाँ है।
इस प्रकार सर्जन रोनाल्ड रॉस ने इस दुनिया को बताया कि वास्तव में मच्छरों के काटने से ही मलेरिया होात है, मच्छर काटता है और मलेरिया के परजीवी विषाणु मानव के शरीर में घर बनाकर उसके ऊपर जानलेवा हमला करते हैं। आज मानव सभयता उनकी इसकी खोज के प्रति उनकी ऋणी है, क्योंकि मलेरिया के विरूद्व लड़ाई में उन्होनें मानव की जीत का मार्ग प्रशस्त कर दिया था।
रोनाल्ड रॉस (1857-1932) को इस खोज के लिए वर्ष 1902 में नोबल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। जिस दिन अर्थात 20 अगस्त को रोनाल्ड रॉस ने मलेरिया के परजीवी की खोज की थी, उसी दिन को पूरी दुनिया में मच्छर दिवस के रूप में मनाया जाता हैं कवि ह्नदय वाले रॉस अक्सर इस खोज का पूरा श्रेय माइक्रोस्कोप को देते हुए अक्सर मजाक में कहा करते थे कि पनामा नहर को भी माइक्रोस्कोप के माध्यम से ही खोदा गया था।