
क्षमता से अधिक बंदियों के बोझ से चरमराती भारतीय जेल व्यवस्था Publish Date : 27/04/2025
क्षमता से अधिक बंदियों के बोझ से चरमराती भारतीय जेल व्यवस्था
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
भारतीय जेलों से बंदियों का भार कम करने के लिए जरूरी है कि न्याय प्रक्रिया में तेजी लाई जाए और छोटे-मोटे मामले तो जेल के बाहर ही सुलझ लिए जाने चाहिए। बीते कुछ वर्षों के दौरान देश की सर्वाधिक सुरक्षित कही जाने वाली दिल्ली की तिहाड़ जेल हो या गुजरात की साबरमती जेल, कुख्यात अपराधियों के लिए एक सुरक्षित ठिकाना और अपने विरोधियों की हत्या जेल में ही कर देने के लिए कुख्यात हो चुकी हैं। भले ही कागजों में दर्ज हो कि जेल किसी भी अपराधी को प्रताड़ित करने के लिए नहीं, बल्कि सुधार घर होता है, लेकिन भारतीय जेलों की स्थिति इतनी भयावह है कि यह किसी हद तक अपराधी तैयार करने के एक अड्डा बन चुकी हैं।
भारतीय जेलें अत्याचार, मारा-पीटी, पैसे छुड़ा लेने, गरीब लोगों के बिना माकूल न्यायिक मदद के लंबे समय तक जेल में रहने, रसूखदारों के लिए आरामगाह व निरापद स्थलों के तौर पर कुख्यात हैं। दूसरी तरफ देखें, तो हमारी जेलें निर्धारित क्षमता से कई-कई गुना अधिक बंदियों की संख्या से अटी पड़ी हैं। भारत सरकार के कुछ महीनों पहले के आकड़े बताते है कि देश की 1,382 जेलों में 5,73,200 बदी है, जो कि क्षमता से 131 प्रतिशत अधिक है। जेलों में बंद लगभग 28 फीसदी बंदी विचाराधीन हैं।
देश में सर्वाधिक करीब सवा लाख बंदी उत्तर प्रदेश की जेलों में बंद है. जबकि इनकी क्षमता है 67.700 बेदियों की है। इसके बाद उत्तराखंड आता है, जहां का ऑक्यूपेंसी रेट 182.4 प्रतिशत है। इसके बाद पश्चिम बंगाल (181 प्रतिशत), मेघालय (167.2 प्रतिशत), मध्य प्रदेश (163 प्रतिशत) और जम्मू-कश्मीर (159 प्रतिशत) का स्थान आता है। गुजरात राज्य विधिक सेवा प्राधिकारण (जीएमएलए) ने 24 अक्तूबर, 2024 को जेल सुधारों पर अपनी रिपोर्ट जारी की, जो कि अपनी तरह की अनोखी पहल है। इस रिपोर्ट में उजागर हुआ कि गुजरात की जेलों में क्षमता से 119 प्रतिशत अधिक बंदी बंद है। मजेदार बात यह है कि राज्य की खुली जेलें खाली पड़ी है। मध्य प्रदेश के मंदसौर में अफीम की खेती होती है और वहां अफीम से जुड़े बंदी जेलों की भीड़ को बढ़ाते हैं। मंदसौर जिला जेल में बंदियों की क्षमता में अधिक बंदी बंद हैं। यहां एक बार में लगभग 370 बंदियों को रखा जा सकता है, जबकि वर्तमान में इन जेलों में 640 बंदी हैं। इनमें से 395 बंदी एनडीपीएस एक्ट के तहत बंद हैं।
जेलों में बंद बंदियों में 22 प्रतिशत दलित, 11 प्रतिशत आदिवासी और 20 प्रतिशत मुसलमान बंदी हैं। अपराध व जेल के आंकड़ों के विश्लेषण के मायने यह कतई नहीं है कि अपराध या अपराधियों को जाति या समाज में बांटा जाए। वहीं, न्याय प्रक्रिया में देरी की वजह से भी जेलों पर भार बढ़ रहा है। दिल्ली दंगों का केस इसकी बानगी है, जिसमें ज्यादातर लोगों की अन्य मामलों में जमानत हुई, क्योंकि तथ्य कमजोर थे, लेकिन पुलिस ने अधिक से अधिक समय तक जेल में रखने को यूएपीए लगा दिया। हाईकोर्ट में भी जज बदलते रहे और तीन वर्षों से तारीखे ही बढ़ रही हैं। आए दिन सुनने की आता है कि अमुक व्यक्ति आतंकवाद के आरोप में दस या उससे अधिक वर्षों तक जेल में रहा और उसे अदालत ने बरी कर दिया। इन फैसलों पर इस दिशा से कोई विचार करने वाला नहीं होता कि बीते 10 वर्षों में उस बंदी ने जो बदनामी, तंगहाली, मुफलिसी व शोषण सह लिया है, उसकी भरपाई किसी अदालत के फैसले से नहीं हो सकती।
इसी साल केंद्र सरकार द्वारा न्यायिक सुधार के लिए लाई गई भारतीय न्याय संहिता में बहुत से मामलों में थाने से जमानत का प्रावधान किया गया है। इनमें किसी मामले की जांच और न्याय की भी समय-सीमा तय है। चूंकि, अभी न तो पुलिस वाले और न ही बहुत हद तक जिला स्तर के न्यायाधीश इससे पूरी तरह परिचित हुए हैं। लिहाजा जेल भेज कर उत्पीडित करने का तंत्र यथावत जारी है। वैसे भी पहले से लांबित कई करोड़ मामलों पर यह नए प्रावधान लागू नहीं होते।
जेल में बंद विचाराधीन बंदियों की बढ़ती भीड़ अपने आप में एक गंभीर मामला है। जेल में विचाराधीन बंदी से कोई काम नहीं करवाया जाता है, सारा दिन लाखों लोग खाली रहकर समय बिताते हैं और इनमें से ही कई के दिमाग में और अपराध करने के फितुर उपजता हैं। हालाकि लोग अपराध न करें या उन्हें कोई गलत न फंसा सके। इसका निदान पहले शिक्षा या जागरूकता और उसके बाद आर्थिक स्वावलंबता ही है। इसके लिए कुछ प्रयास सरकार के स्तर पर और अधिक प्रयास समाज के स्तर पर किए जाने चाहिए। यह भी जरूरी है कि आम लोगों को पुलिस कार्यप्रणाली, आम लोगों के कर्तव्य और अधिकार अदालतों को प्रक्रिया के अधिकार मुक्त कानूनी सहायता जैसे विषयों की जानकारी दी जाए। इसके लिए स्कूली पाठ्यक्रम में प्रावधान के साथ कमजोर आर्थिक सामाजिक स्थिति के मुहल्लों और गांवों में नियमित कार्यशालाएं भी हो। साथ ही छोटे-मोटे अपराधों को जेल के बाहर ही निपटाने की प्रक्रिया पर जोर देना चाहिए।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।