ऑनलाईन पढ़ाई के भरोसे ही नही चल सकता हमारा शैक्षिणक कार्यक्रम Publish Date : 23/07/2023
ऑनलाईन पढ़ाई के भरोसे ही नही चल सकता हमारा शैक्षिणक कार्यक्रम
ऑनलाईन शिक्षा से हमारी बहुत अधिक अपेक्षाओं के कारण यह हमारी आशाओं के अनुरूप साबित नही हो पा रही है। अक्सर कुछ लोगों के व्यवसायिक हित हम लोगों के भरोसे को तोड़ देते हैं, या फिर ऐसी तकनीकों हमारा अत्याधिक विश्वास भी, जिसमें सामाजिक एवं मानवीय पहलुओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। हालांकि, जो लोग इनसे अधिक प्रभावित नही होते, अन्ततः उन्हें भी अपनी उम्मीदों और हकीकत में एक विशाल अन्तर का अनुभव होता है।
आखिर ऐसा क्यों होता है? इसे समझनें के लिए हमें पहले यह जानना चाहिए कि आखिर यह शिक्षा होती क्या है और सीखना कैसे सम्भव हो पाता है?
असल में शिक्षा, शिक्षार्थियों में तीन प्रकार के तत्व विकसित करती है, इसलिए कह सकते हैं कि शिक्षा के मूल रूप से तीन लक्ष्य होते हैं। इनमे प्रथम है क्षमता का विकास, जैसे पढ़ना, आलोचनात्मक सोच, ठोस वर्क, एवं आत्म-अनुशासन आदि। दूसर तत्व है मूल्यों और स्वभाव का रोपण, जैसे कि सहानुभूति, भेदभाव रहित और दूसरे लोगों के प्रति सम्मान का भाव आदि। और इनमें तीसरा लक्ष्य है, ज्ञान का विस्तार, जैसे गुणा-भाग, चुम्बकत्व और इतिहास आदि का ज्ञान।
यह तीनों ही लक्ष्य एक-दूसरे का जुड़े हुए होते हैं और जिन प्रक्रियाओं के माध्यम से शिक्षार्थियों इनको सीखना होता है, उन्हें भी इससे अलग नही किया जा सकता। कुछ विशिष्ट प्रकार के लक्ष्य सामाजिक सम्पर्क बनाने और एक-दूसरे की संस्कृतियों समझने की प्रक्रिया के दौर प्राप्त होते हैं। अधिकाँशतः मूल्यों को इसी प्रकार से सीखा जाता है, और कुछ क्षमताएँ भी। ऐसे में ऑनलाइन शिक्षा के बड़े से बड़े पक्षधर और चैम्पियन भी यह दवा नही कर सकते कि ऑनलाइन शिक्षा मूल्य एवं मौलिक क्षमताओं में भी विकास कर सकती है।
किसी भी प्रकार की शिक्षा का लक्ष्य दो प्रकार का ज्ञान है यथा ‘नो व्हॉट’ जिसका अर्थ है क्या की समझा और ‘नो हाउ’ जिसका अर्थ कैसे की समझ। इसमें ‘नो व्हॉट’ का अर्थ पाठ्य-सामग्रियों और उनकी अवधारणाओं की समझ को विकसित करना, जैसे कि प्रायद्वीप क्या है और मुगल साम्राज्य का पतन क्यों हुआ आदि। जबकि ‘नो हाउ’ का अर्थ व्यवहारिक ज्ञान से होता है जैसे कि आखिर कोई कैसे सम्भव हो पाता है, उदाहरण के तौर पर ऊँचाई की माप कैसे करते हैं, सर्किट किस प्रकार से बनाए जाते हैं आदि।
यह दोनों लक्ष्य भी आपस में जुड़े हुए होते हैं। एक अच्छी शिक्षा बच्चों में केवल ‘क्या’ का विकास ही नही करती है अपितु वह ‘कैसे’ का संचार भी विधिवत रूप से ही करती है। इसका कारण ज्ञान के रूप में उपलब्ध सामग्रियाँ एवं अवधारणएं अथाह हैं, अतः हमें क्या जानना है इसका क्षेत्र भी अंतहीन होता है। हालांकि, कैसे के बारे में जानकारियों को पढ़कर विद्यार्थियों को क्या-क्या जानना चाहिए, का विस्तार किया जा सकता है।
अब बात करते हैं सीखने की प्रक्रिया के बारे में, तो किसी विशेष चीज को सीखने के लिए एक शिक्षक की आवश्यकता होती है। जबकि, यदि शिक्षार्थी जागरूक है, तो शायद उसे ‘क्या’ से सम्बन्धित पाठ्य-सामग्रियों को समझने के लिए किसी शिक्षक की आवश्यकता न पड़े, परन्तु इस प्रक्रिया के दौरान अन्य इन्सानों की भागीदारी निःसन्देह आवश्यक होती है।
वहीं अधिकतर ‘कैसे’ को बिना किसी शिक्षक का सहयोग लिए समझ पाना काफी कठिन होता है। तो फिर आनलाइन शिक्षक ऐसा करने में असमर्थ क्यों रहते हैं।
दरअसल, किसी विशेष समयावधि के दौरान कुछ सीखना र्वििभन्न महत्वपूर्ण तथ्यों पर निर्भर करता है। पहला है फोकस, जो एक अमूल्य मानवीय संसाधन होता है, इस यदि हम ध्यान नही देंगे तो फिर हम सीख नही पायेगें। दूसरी बात है दृढ़ता- समस्त शिक्षार्थी, सीखने और समझने में तभी सफल हो पाते हैं, जब कि वे सफलता प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्पित होते हैं।
इसी क्रम में तीसरी बात भावनात्मक स्थिति की होती है- हमारी उत्साहित होने, ऊबने या फिर उदास होने की स्थिति में इन सभी भावनाओं का प्रभाव सीधे-सीधे हमारी सीखने की क्षमता को प्रभावित करता है। इस क्रम में चौथी और अन्तिम बात होती है प्रेरणा- कहने अर्थ यह है कि हमारी सीखने की इच्छाशक्ति ही हमें सीखने के लिए प्रोत्साहन देती है।
बच्चा कुछ सीख सके, इसके लिए शिक्षक बच्चों में ध्यान एवं दृढ़ता के भाव पैदा करने की योजना बनाते हैं और भावनाओं तथा प्रेरणा आदि को समझते हुए उनका प्रबन्धन करते हैं, जबकि यह कार्य ऑनलाईन किसी भी सूरत में नही हो सकता।
स्कूलों में शिक्षकों की भौतिक उपस्थिति इसलिए भी आवश्यक होती है, क्योंकि अलग-अलग शिक्षार्थ्राी सुननें, बातें करने, देखने और अनुभव करने के जैसे तरीकों को अलग-अलग ही सीख पााते हैं जिससे उनका सामाजिक सम्पर्क कारगर बनता है, अतः यह भी ऑनलाईन सम्भव नही हो पाता है।
यही कारण है कि शिक्षा की ऑनलाईन व्यवस्था एक अच्छी शिक्षा के लिए आवश्यक बुनियादी जरूरतों को पूर्ण नही कर सकती, इस कारण से इस शिक्षा का प्रभाव बहुत ही सीमित रहता है।
शिक्षा का महत्व
दिल्ली विश्व विद्यालय के शताब्दी वर्ष के समापन समारोह के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने यह ठीक ही कहा कि देश में खुशहाली एवं समृद्वि केवल शिक्षा के माध्यम से ही आयेगी। दुनिया में जिस किसी भी देश ने उल्लेखनीय प्रगति की है, उनका आधार वहाँ की उन्नत शिक्षा व्यवस्था ही रही है और हम सभी इस तथ्य से भली-भाँति परिचित हैं।
इस बात में भी कोई सन्देह नही है कि भारत में भी शिक्षा के महत्व को प्रचीन काल से ही तरजीह दी गई है और इसके लिए समय-समय पर यहाँ की शिक्षा व्यवस्था में भी यथोचित सुधार भी किए जाते रहें हैं।
परन्तु बावजूद इसके भारत की शिक्षा में अभी बहुत कुछ किया जाना अपेक्षित हैं। आज भले ही नई शिक्षा-नीति लागू की जा चुकी है, परन्तु इसके क्रियान्वयन की गति अभी संतोषजनक नही है। यह समय की माँग है कि अपनी इस नई शिक्षा नीति पर भारत तेजी से अमल करें और इसी के साथ ही पाठ्यक्रम में बदलाव के कार्य को भी प्राथमिकता प्रदान की जानी चाहिए, कारण क्योंकि इस विषय में अभी तक कोई विशेष प्रगति दिखाई नही दे रही है।
जो पढ़ाई, छात्रों के जीवन में किसी काम नही आये अथवा वह छात्रों को अनुशासित और एक जिम्मेदार नागरिक बनाने के कार्य को सही तरीके से न कर पाए, उन्हे ऐसी किसी भी पढ़ाई को पढ़ाने का कोई भी औचित्य नही है। शिक्षा के क्षेत्र में सरकार को अपनी उपलब्धियों को गिनाने के साथ ही इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि बदलते समय के साथ एक बेहतर तालमेल बिठाने की आवश्यकता है, क्योंकि सम्पूर्ण दुनिया में बहुत तीव्र गति के साथ बदलाव आ रहे हैं।
जिस प्रकार से वर्तमान समय में नई-नई तकनीकें आ रही हैं, वे सभी इसी आवश्यकता को रेखाँकित कर रही है कि शिक्षा व्यवस्था में भी तीव्र गति से परिवर्तन होने ही चाहिए। इस कार्य को युद्व-स्तर पर किया जाना आवश्यक है, क्योंकि देखने में यह आ रहा है वर्तमान में हमारे समस्त डिग्री कॉलेज युवाओं की एक ऐसी फौज तैयार कर रहें हैं, जो कि देश की वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम नही हैं।
अनेक औद्योगिक संगठन यह पहल कर चुके हैं कि उन्हें अपनी आवश्यकता के अनुरूप युवा उपलब्ध नही हो पा रहे हैं। विभिन्न शिक्षा संस्थानों से निर्गत हुए युवा डिग्रियों से तो लैस हो जाते हैं, परन्तु वह किसी भी कौशल में दक्ष नही होते हैं, जो कि अपने आप में सही नही है। विभिन्न प्रकार के कौशल विकास कार्यक्रमों का संचलन करने के साथ ही इस पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है कि कॉलेजों से निकलने वाले युवा इन संस्थानों से ही हुनर सीखकर बाहर की दुनिया में पदार्पण करें।
आज जबकि नई शिक्षा नीति पर अमल करने के प्रयास किए जा रहे हैं तो ऐसे में भी विभिन्न विश्वविद्यालय ऐसे भी हैं जो कि जीन वर्ष के पाठ्यक्रमों को पूरा करने में चार से पाँच वर्ष का समय ले रहे हैं। इन कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में शिक्षकों एवं कुलपितयों की नियुक्ति में होने वाली अनावश्यक देरी से हम सभी अच्छी तरह से परिचित हैं।
हमरे देश की शिक्षा में किये गये तमाम सुधारों के उपरांत भी एक बड़ी संख्या में हमारे छात्र विदेशी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा ग्रहण करने के लिए बाध्य है, इस सच्चाई से हमारे देश के नीति-नियंता भी मुँह नही फेर सकते। स्पष्ट रूप से इसका कारण देश में उच्च गुणवत्तायुक्त शिक्षण संस्थानों की कमी होना है और यह स्थिति तो तब है जबकि वर्तमान में एक बड़ी संख्या में निजी शिक्षण संस्थान भी खुल चुके हैं। अतः निजी शिक्षण संस्थानों का सही प्रकार से नियमन करना भी वर्तमान समय की प्रमुख माँगों में से एक है।