गजर घास के जैविक नियंत्रण की विधि      Publish Date : 19/02/2025

                    गजर घास के जैविक नियंत्रण की विधि

                                                                                                                      प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

कृषि मित्र कीट, मैक्सिकन बीटल (जाइगोग्रामा बाइकोलोराटा) का कृषि महाविद्यालय, जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, गंजबासौदा, विदिशा (मध्य प्रदेश) में गाजर घास के जैविक नियंत्रण करने के लिए सफल प्रयोग किया गया है। कृषि महाविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा प्रभावित स्थानों पर पहले मैक्सिकन बीटल को छोड़ा गया था। कृषि वैज्ञानिकों ने पाया कि इन स्थानों पर कीट ने एक माह के अंदर ही गाजर घास को खाकर खत्म कर दिया। यह कीट फसलों को नुकसान भी नहीं पहुंचाता है। भारत में इस कीट द्वारा गाजर घास के जैवकीय नियंत्रण की अपार संभावनाएं हैं।

                                                                   

किसान गाजर घास द्वारा फसलों की हो रही हानि के प्रति काफी सजग हैं। किसान अपने क्षेत्रों में इस मैक्सिकन बीटल को छोड़ रहे हैं, जिससे कि गाजर घास को नष्ट किया जा सके। कुछ वनस्पतियां जैसे- चकोड़ा और जंगली चौलाई आदि गाजर घास से प्रतिस्पर्धा कर इसे वर्षा ऋतु में कम कर सकती हैं। चकोड़ा से भी गाजर घास को नियंत्रण करने में अच्छी सफलता मिली है।

किंतु इस कीट द्वारा जैवकीय नियंत्रण काफी सस्ता एवं आसान हो जाता है। सघन कृषि प्रणाली के चलते रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग करने से मृदा स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कई बार समय पर रासायनिक उर्वरक नहीं मिल पाते हैं। इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए गाजर घास को फूल आने से पूर्व ही जड़ से उखाड ़कर इसका उपयोग कम्पोस्ट खाद बनाने के लिए भी किया जा सकता है।

देश में अनाज की कमी होने पर अमेरिका से भारत में गेहूं आयात किया गया था। गेहूं के साथ गाजर घास के बीज भी यहां आ गए। सबसे पहले इसे वर्ष 1955 में महाराष्ट्र के पुणे में देखा गया। यह मानव और पशु दोनों के लिए हानिकारक होती है। गाजर घास एक खरपतवार है। इसका वैज्ञानिक नाम पार्थेनियम  हिस्टेरोपफोरस है। यह खरपतवार कम्पोजिटी कुल की होती है और हूबहू गाजर के पौधों जैसी दिखती है। इसे कैरट ग्रास, कांग्रेस घास और क्षेत्रीय भाषा में सेफद टोपी, चटक चांदनी आदि नामों से भी जाना जाता है। राष्ट्रीय खरपतवार निदेशालय के शोध में गाजर घास में सेस्क्युटरियन लैक्टॉन नामक जहरीला पदार्थ का होना पाया गया है।

यह एक वार्षिक शाकीय पौधा है। इसकी लम्बाई लगभग 1 से 1.5 मीटर तक हो सकती है। गाजर घास का प्रत्येक पौधा लगभग 1000-5000 बहुत ही छोटे-छोटे बीज पैदा करता है। यह घास प्रत्येक तरह के वातावरण में उग जाती है तथा नम और छायादार स्थानों पर अधिक तेजी से उगती है। यह अपने क्षेत्र की प्रत्येक फसल को 40 से 45 प्रतिशत तक नुकसान पहुंचाती है।

                                                       

घास समझकर खाए जाने पर मवेशियों की दुग्ध उत्पादन क्षमता 40 प्रतिशत तक कम हो सकती है। गाजर घास को हाथ से नहीं उखाड़ना चाहिए। गाजर घास या उसके परागकणों के संपर्क में आने से इसमें मौजूद रासायनों के कारण एलर्जी होने की आशंका रहती है। इसके बहुल क्षेत्र के आसपास रहने पर सांस के रोग, खुजली, बुखार आना, आंखों के चारों ओर काले धब्बे, फफोले पड़ना, हाथ में लालिमा, पैरों में दाने घाव, गले और पीठ की त्वचा पर जलन और लाल धब्बे हो सकते हैं। इससे होने वाली एलर्जी का कोई इलाज भी नहीं है।

देश के लगभग 35 मिलियन हैक्टर क्षेत्रफल में यह फैली हुई है। यह घास फसलों में नुकसान पहुंचाने के अलावा मनुष्य और पालतू पशुओं के स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचाती है। इसे एक विनाशकारी खरपतवार भी कहा जाता है। इसकी उपस्थिति के कारण स्थानीय वनस्पतियां उग नहीं पाती हैं। इससे स्थानीय जैवविविधता पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है और पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। इस खरपतवार की उपस्थिति के कारण मनुष्य में त्वचा रोग, बुखार और दमा आदि हो सकता है जो गंभीर रूप भी ले सकता है।

जैविक नियंत्रण प्रायः यह देखा गया है कि गाजर घास को काटने, उखाड़ने या रासायनिक खरपतवारनाशी द्वारा नियंत्रित करना काफी कठिन होता है। साथ ही गाजर घास मुख्यतः परती भूमि, सड़क किनारे और खाली स्थानों पर पाये जाने वाली खरपतवार है। अतः ऐसे स्थानों से इसे नष्ट करने के लिये जनसमुदाय अपना समय और पैसा लगाना व्यर्थ समझते हैं। इसकी रोकथाम के लिए काटने, उखाड़ने या रसायन द्वारा नष्ट करने वाले तरीकों को बार-बार अपनाना पड़ता है। इन तरीकों को अपनाने में खर्च भी अधिक आता है। ऐसे स्थानों के लिऐ इसका जैविक कीटों के द्वारा नियंत्रण करना एक उत्तम विधि है।

                                                              

जैविक खरपतवार नियंत्रण, ‘जीवों द्वारा हानिकारक खरपतवारों को नष्ट करना होता है। इस विधि में खरपतवारों को नष्ट करने के लिये विशेष कीट समुदाय का सहारा लिया जाता है। इस विधि को कीटों द्वारा खरपतवार का जैविक नियंत्रण विधि कहते हैं। इस विधि का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसे बार-बार अपनाना नहीं पड़ता और यह एक स्वचालित प्रक्रिया है। साथ ही इस विधि का कोई भी हानिकारक प्रभाव वातावरण, मानव एवं पशुओं पर भी नहीं पड़ता है। इस विधि के अंतर्गत ऐसे कीटों को खोजा जाता है, जो खरपतवार को अच्छी तरह नष्ट करने में सक्षम होते हैं। ये कीट उपयोगी वनस्पति पर कोई प्रभाव नहीं डालते हैं।

कृषि महाविद्यालय, गंजबासौदा, विदिशा (मध्य प्रदेश) के विभिन्न स्थानों पर गाजर घास का प्रकोप बहुतायत में था। इससे महाविद्यालय परिसर के छात्रावासों में रहने वाले छात्र तथा छात्राओं, अधिकारी एवं कर्मचारियों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड रहा था। रोकथाम के लिए बार-बार खरपतवारनाशकों का छिड़काव किया जा रहा था। महाविद्यालय में घास उन्मूलन सप्ताह के दौरान गाजर घास को उखाड ़कर भी नष्ट किया जाता था। श्रम, समय एवं पैसे खर्च करने के बाद भी महाविद्यालय परिसर को इस समस्या का स्थायी समाधान प्राप्त नहीं हो रहा था।

मैक्सिकन बीटल वर्ष 1982 में भृंग प्रजाति के कीट जाइगोग्रामा बाइक्लोराटा को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के् द्वारा बेंगलुरु में आयात किया। संगरोध प्रयोगशालाओं में सघन वर्णात्मक परीक्षणों के पश्चात् भारत सरकार ने इस कीट को गाजर घास को नष्ट करने के लिये वातावरण में छोड़ने की अनुमति प्रदान कर दी। इस कीट ने बेंगलुरु और आसपास के क्षेत्रों में गाजर घास के प्रकोप को कम करने में अपार सफलता प्राप्त की है।

इस सफलता को देखते हुए देश के कई प्रदेशों में इस कीट को छोड़ा गया और सफल पाया गया। मैक्सिकन बीटल का प्रजनन काल जुलाई और अगस्त माह माना जाता है। इस कीट को गाजर घास पर रख दिया जाता है। सप्ताह भर के भीतर यह पौधे की एक-एक पत्तियां न केवल खा जाता है, बल्कि उस पौधे का जीवनचक्र ही समाप्त कर देता है। यह बीटल वर्ष 1989 से अब तक लगभग 7 मिलियन हैक्टर क्षेत्र में फैल चुके हैं।

देश में कीट द्वारा जैवकीय नियंत्रण की अभी भी अपार संभावनाएं हैं। शुरूआत में जब इस बीटल का देश में प्रयोग हेतु उपयोग किया गया था, तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह माना गया कि यह कीट देश के बहुत कम और बहुत अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में अधिक सक्रिय नहीं हो पाएगा।

इस धरणा के विपरीत अब तक यह कीट देश के पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं जम्मू और कश्मीर के अनेक स्थानों पर अच्छी तरह से स्थापित हो चुका है। जबलपुर (मध्य प्रदेश) में किए गए अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि मैक्सिकन बीटल छोड़ने के तीसरे साल से गाजर घास का नियंत्रण होना शुरु हो गया। यह पांचवें वर्ष तक लगभग 4000 हैक्टर भूमि पर सफल रहा है। इतने क्षेत्र में गाजर घास के उन्मूलन के लिए मेट्रीब्यूजिन नामक शाकनाशी द्वारा नियंत्रण करने पर लगभग एक करोड़ रुपये की लागत आती है। इसके साथ ही अगर पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टि से बीटल द्वारा लाभ का आकलन करें, तो यह कई गुना अधिक होगा।

                                                       

अनुकूल परिस्थितियां प्रयोगों के माध्यम से यह पाया गया है कि एक वयस्क बीटल गाजर घास के पूरे पौधे को 6 से 8 सप्ताह में खाकर नष्ट कर देता है। यदि इस दृष्टि से गणना करें, तो लगभग एक हैक्टर क्षेत्र के लिये 7 से 11 लाख कीटों की आवश्यकता होगी। इतने अधिक कीटों को छोड़ना भी एक बड़ी समस्या होगी। जाइगोग्रामा वाइक्लोराटा में प्रजनन की अद्भुत क्षमता होती है। एक ऐसा स्थान पर जहां गाजर घास अधिक मात्रा में होती है, वहां कम से कम 500 से 1000 की संख्या में वयस्क कीट छोड़ने चाहिये।

एक हैक्टर क्षेत्र में कम से कम 7500 वयस्क कीट छोड़ने पर उसी वर्ष से अच्छा लाभ मिलना शुरू हो जाता है। एक स्थान की गाजर घास के खत्म हो जाने पर बीटल पास वाले क्षेत्रों की गाजर घास पर आकर्षित होकर स्वतः ही चले जाते हैं। यदि एक बड़े क्षेत्र में कई स्थानों को चिन्हित कर सीमित संख्या में कीट छोड़े जाएं, तो उनका प्रसार तेजी से होता है और गाजर घास अधिक तेजी से नष्ट की जा सकती है।

पुनः प्रयोग हेतु संग्रहण नए स्थानों पर छोड़ने के लिये कीट को जुलाई से सितम्बर के दौरान संक्रमित स्थानों से पकड़ा जा सकता है। इस दौरान प्रयोगशाला में आसानी से पालकर इसकी संख्या भी बढ़ाई जा सकती है। यह कीट अधिक प्रतिरोधी होते हैं। इन्हें पकड़ने और रखने के लिये कोई भी वस्तु उपयोग में लायी जा सकती है। घरों में पाई जाने वाली प्लास्टिक की थैलियों में सुई के द्वारा छेदकर बीटल को इसमें संग्रहीत किया जा सकता है। इन थैलियों में गाजर घास की छोटी-छोटी पत्तीविहीन टहनी डाल देनी चाहिएं, ताकि बीटल इन टहनियों को पकड़ सके और थैली संकुचित न होने पाए।

यदि इन बीटलों को कहीं दूर ले जाने के लिए पकड़ना है और ऐसी संभावना हो कि तीन से चार दिन यात्रा में लग सकते हैं तो ऐसी स्थिति में गाजर घास की ताजा टहनियां छेद की हुई थैलियों, गत्तों के डिब्बों या प्लास्टिक के डिब्बों में रखकर बीटल को इनमें छोड़ देना चाहिए। पत्तियों की वजह से बंद थैलियों या डिब्बों में अधिक नमी होने से कीट पर बुरा प्रभाव भी पड़ सकता है। यदि पांच से सात दिनों तक कीटों को आहार न भी मिले, तो भी इनकी मृत्युदर काफी कम ही रहती है। इस कीट का जीवनचक्र मिट्टी में पूरा होता है।

अतः इसे शुरू में ऐसे स्थानों पर छोड़ना चाहिए, जहां मनुष्यों का कम व्यवधान होता हो और जमीन में उथल-पुथल कम हो, ताकि अधिक से अधिक कीट अपना जीवनचक्र पूर्ण कर अपनी संख्या में उत्तरोत्तर वृद्वि कर सके। जल से भरे रहने वाले क्षेत्रों में या ऐसे क्षेत्र जहां वर्षा ऋतु के दौरान पानी भरने और कई दिनों तक इकट्ठा रहने की आशंका हो तो ऐसी जगहों में भी इस कीट को नहीं छोड़ना चाहिए। महाविद्यालय परिसर के जिन स्थानों पर मैक्सिकन बीटल छोड़े गए थे वहां से उनके संग्रहण के प्रयास भी शुरू किए जा चुके हैं। इससे इनका पुनः प्रयोग किया जा सकता है।

जीवनचक्र अपने जीवनकाल में एक मादा 1500 से 2000 तक अंडे दे सकती है। मादा अंडों को कोमल पत्तियों की निचली सतह पर चिपका देती है। अंडे छोटे-छोटे और पीले रंग के होते हैं। इससे 4 से 6 दिनों में शिशु निकल आते हैं। जातक (ग्रब) पत्तियों को बहुत तेजी से खाते हैं। इससे पौधा पूरी तरह पत्तीविहीन होकर मर जाता है। यदि पौधे पर फूल आ भी जाते हैं, तो फूलों की संख्या बहुत कम रहती है। अधिक संख्या में होने पर तो इस कीट के लार्वा पौधों को बिल्कुल ठूंठ बना देते हैं। यदि गाजर घास पर इस कीट का आक्रमण इसके उगने या छोटी अवस्था में ही हो जाए, तो वयस्क कीट एवं इसके जातक गाजर घास को बड़ा होने से पहले ही चट कर जाते हैं। प्रयोग हेतु मैक्सिकन बीटल को गाजर घास के साथ कंटेनर में रखा गया था। इसे 24 घंटे के अंदर ही बीटल ने पूरी तरह से उपयोग कर लिया। यह कीट अपना जीवनचक्र लगभग 25 से 30 दिनों में पूरा कर लेता है। जून से अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े तक यह बीटल अधिक सक्रिय रहता है।

                                                         

मैक्सिकन बीटल का गाजर घास पर प्रभाव अध्ययन द्वारा यह पता चला कि मैक्सिको में, जो गाजर घास का मूल उत्पत्ति स्थान है, वहां अनेक कीट गाजर घास का भक्षण करते हैं। जैविकीय खरपतवार नियंत्रण विधि के अंतर्गत मुख्यतः ऐसी जगहों में पाए जाने वाले कीटों को ही आगे के अध्ययन के लिए दूसरे देशों में भेजा जाता है, जहां इसी प्रकार के खरपतवार को नष्ट करना होता है। एक आकलन के अनुसार प्रत्येक वर्ष यह कीट देश के विभिन्न प्रदेशों में वर्षा ऋतु में 10 प्रतिशत से भी अधिक क्षेत्रफल में गाजर घास का संपूर्ण नियंत्रण कर देता है। इस दृष्टि से गाजर घास का फैलाव देश में 350 लाख हैक्टर क्षेत्रफल में होने के कारण यह प्रत्येक वर्ष लगभग 35 लाख हैक्टर क्षेत्रफल में गाजर घास का सफाया करता है।

इसको शाकनाशी द्वारा नियंत्रित करने में लगभग 5.95 अरब रुपये का खर्च आयेगा। एक अन्य आकलन के अनुसार अगर यह कीट देश में न लाया गया होता तो गाजर घास का फैलाव 35 लाख मिलियन से बढ़कर 43 लाख मिलियन हैक्टर हो गया होता। इस कीट ने गाजर घास के फैलाव को लगभग 8 लाख मिलियन हैक्टर क्षेत्र में फैलने से रोका है।

महाविद्यालय परिसर के जिन स्थानों पर गाजर घास का अधिक प्रकोप था, उन स्थानों पर मैक्सिकन बीटल छोड़े गए। इसके लिए खरपतवार संचालयनालय, जबलपुर से 500 मैक्सिकन बीटल को प्रयोग के लिए लाया गया। जिन स्थानों पर कीट छोड़े गए, वहां 15 दिनों में इनका प्रभाव दिखने लगा व इन कीटों ने हरी पत्तियों को पूर्ण रूप से खाकर खत्म कर दिया था।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।