मार्च के मुख्य कृषि कार्य      Publish Date : 15/02/2025

                              मार्च के मुख्य कृषि कार्य

                                                                                                                                                      प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

चना,  मटर और मसूर

                                                                     

  • चना फसल की कटाई विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु, तापमान, आर्द्रता एवं दानों में नमी के अनुसार विभिन्न समयों पर होती है। सामान्य रूप से जब चने की फसल से पत्तियां झड़ने या गिरने लगे, तने के साथ-साथ फलियां भी भूरे रंग से हल्के पीले रंग में बदलने लगे, दाने सख्त व अन्दर से खड़-खड़ की आवाज आने लगे और इसके साथ ही दानों में नमी 15 प्रतिशत के लगभग हो जाए, उस समय फसल की कटाई हसिया या शक्ति चालित यंत्रों से करते हैं।

किसानों को यह भी ध्यान देना चाहिए कि फसल के अधिक पकने से फलियां टूटकर मृदा में गिर जाती हैं, जिससे उत्पादन पर असर पड़ता है। काटी गयी फसल को एक स्थान पर इकट्ठा करके खलिहान में लगभग 4-5 दिनों तक धूप में सुखाकर मड़ाई की जाती है। मड़ाई (श्रेशिंग) हाथ से पीटकर, बैलों के द्वारा या थ्रेशर से कर सकते हैं या कम्बाइन के द्वारा कटाई एवं मड़ाई का कार्य पूर्ण करें। दानों में 10-12 प्रतिशत नमी रहे। देर से बोई गई सिंचित चने की फसल में यदि आवश्यकता  हो, तो दूसरी सिंचाई बुआई के 100 दिनों बाद की जा सकती है।

  • काबुली चना के लिए यह समय बहुत संवेदनशील माना जाता है। फसल की परिपक्वता का अनुमान पत्तियों एवं दानों की स्थिति पर निर्भर करता है।
  • चना फली छेदक कीटः यह एक बहुभक्षी और चना फसल में लगने बाला प्रमुख कीट है। इस कीट की प्रथम अवस्था की सूडियां कोमल पत्तियों को खुरचकर खाती हैं। यह सुंडी 5 6 बार केंचुल उतारती है और धीरे-धीरे बड़ी होती जाती है। तीसरी अवस्था की सूडियां चने की फलियों में मुंह घुसाकर दाना खाती हैं। दाना खाने के बाद सूडी मुंह निकाल लेती है। फिर दूसरी फली में छेद कर दाना खाती है। इसके चलते फलियों में गोल-गोल छेद बन जाते हैं। एक सुंडी अपने जीवन काल में 30-35 दाने खाती है। इस प्रकार ये कीट चने की फसल को बहुत हानि पहुंचाते हैं। इनका नियंत्रण इंडोक्साकार्ब 0.02 प्रतिशत घोल (1 मि.ली. प्रति लीटर पानी) या साइपरमैथरीन (25 ई.सी.) 125 मि.ली. या कार्बोरिल (50 डब्ल्यू.पी.) 1000 मि.ली. या डाइमिथोएट (30 ई.सी.) 400 मि.ली., 600-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से पहला छिड़काव अवश्य करें। चने में 5 प्रतिशत एनएसकेई या 3 प्रतिशत नीम के तेल तथा आवश्यकतानुसार कोटनाशी का प्रयोग करें।
  • मटर

                                                             

    मार्च में हरी मटर कम होने के साथ-साथ दाने वाली मटर की फसल तैयार हो जाती है, अगर मटर की फलियां सूखकर पीली पड़ जाएं, तो उनकी कटाई कर लेनी चाहिए। गहाई करने के बाद मटर के दानों को इतना सुखाएं कि सिर्फ 8 फीसदी नमी ही बचे। मटर की फसल प्रायः 100-120 क्विंटल प्रति हैक्टर (हरी फलियां) एवं 15-20 क्विंटल प्रति हैक्टर दानों की पैदावार प्राप्त हो जाती है। समय से कटाई भी बीजों को बिखराव से बचाती है। जब मटर की फसल पूरी तरह से पक जाए और धूप में पर्याप्त सुखाने के बाद ही मड़ाई करें।


    मसूर में फलो बनने की अवस्था में हल्की सिंचाई करें। जब फलियां पक जायें (70-80 प्रतिशत फलियां सूखने जैसी अवस्था में आ जायें) तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए। फसल को खेत में सुत्वाकर दाने अलग कर लेने चाहिए। पकने के बाद फसल को अधिक समय तक खेत में खड़ी न रहने दें।
  • खेसारी की फसल हल्की पीली पड़ने पर कटाई करें। हसिए से फसल की कटाई की जाती है। अधिक पक जाने पर फलियां चटकने लगती हैं। फसल की गहाई कर दानों को अच्छी तरह सुखाकर (8-10 प्रतिशत नमी) भंडारण करने पर घुन नहीं लगता है। इसके साथ ही भंडार गृह में घुन का उपचार अवश्य करें।

मूंग एवं उड़द

                                                       

  • मूंग व उड़द की खेती उत्तर भारत की बलुई दोमट मृदा से लेकर मध्य भारत की लाल एवं काली मृदा में भलीभांति की जा सकती है। इनकी खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली बलुई-दोमट मृदा उपयुक्त मानी जाती है। बुआई से पहले खेत में उचित नमी होनी अत्तिआवश्यक है। बारीक, भुरभुरा व चूर्णित खेत मूंग व उड़द की खेती के लिये अच्छा माना जाता है। खेत को 2-3 बार जुताई हैरोइंग पयांप्त होती है। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगायें। इससे मृदा की नमी संरक्षित रहती है। बुआई का उपयुक्त समय वायुमंडलीय तापमान, मृदा की नमी व फसल प्रणाली पर निर्भर करता है।
  • मूंग की बुआई का उपयुक्त समय 10 मार्चसे 10 अप्रैल तक है। उड़द की बुआई का उपयुक्त समय 15 फरवरी से 15 मार्च तक है। सरसों, गेहूं, आलू की कटाई के उपरान्त 70 से 80 दिनों में पकने वाली प्रजातियों की बुआई की जा सकती है। किसी कारणवश खेत समय पर तैयार न हो, तो वहां पर मूंग एवं उड़द की 60-65 दिनों में पकने वाली प्रजातियों की बुआई 15 अप्रैल के बाद कर सकते हैं।
  • अच्छी पैदावार तथा उत्तम गुणवत्ता युक्त उत्पादन लेने के लिए अच्छी प्रजाति का चयन अत्यन्त महत्वपूर्ण है इसलिए जल के साधन, फसल चक्र व बाजार की मांग की स्थिति को ध्यान में रखकर उपयुक्त प्रजातियों का चयन करें।
  • मूंग की उन्नत प्रजातियां जैसे पूसा 1431, पूसा 9531, पूसा रतना, पूसा 672, पूसा विशाल, के.पी.एम 409-4 (हीरा), वसुधा (आई.पी.एम.312-20), सूर्या (आई.पी.एम. 512-1), कनिका (आई.पी.एम.302-2), वर्षा (आई. पी.एम. 2 के 14-9), बिराट (आई. पी.एम. 205-7), शिखा (आई.पी. एम. 410-3), आई.पी.एम. 02-14, आई.पी.एम. 02-3. सम्राट, मेहा, अरुण (केएम 2328), आर.एम.जी. 62 आदि प्रजातियां प्रमुख हैं।
  • उड़द की उन्नत प्रजातियां जैसे- पीडीयू 1 (बसंत बहार), के.यू.जी. 479, मुलुंद्र उड़द 2 (के.पी.यू. 405), कोटा उड़द 4 (के.पी.यू. 12-1735), कोटा उड़द 3 (के.पी.यू. 524-65), के.यू.जी. 479, कोटा उड़द 4 (के.पी.यू. 12-1735), इंदिरा उड़द प्रथम, हरियाणा उड़द। (यू.एच. उड़द 04 06), शेखर 1, उत्तरा, आजाद उड़द 1, शेखर 2, शेखर 3, पंत उड़द 31. पंत उड़द 40. आई.पी.यू. 02-43. डब्ल्यू.बी. यू. 108, डब्ल्यू.बी.यू. 109 (सुलता), माश 1008, माश 479, माश 391 व सुजाता आदि प्रमुख प्रजातियां हैं।
  • बीज दर का निर्धारण मुख्यतः बीज के आकार, नमी की स्थिति, बुआई का समय, पौधों की पैदावार तथा उत्पादन तकनीक पर निर्भर होता है। ग्रीष्म कालीन मूंग व उड़द आदि की बुआई के लिये 20-25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर पर्याप्त होता है। ग्रीष्म कालीन मूंग एवं उड़द की फसल में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सें.मी. होनी चाहिए। बीज की बुआई कूड़ों में या सीड ड्रील से पक्तियों में को जानी चाहिए तथा बीजों को 4-5 सें.मी. गहराई में बोना चाहिए।
  • मृदा एवं बीज जनित कई कवक एवं जीवाणु जनित रोग होते हैं। ये मृदा अंकुरण होते समय तथा अंकुरण होने के बाद बीजों को काफी क्षति पहुंचाते हैं। बीजों के अच्छे अंकुरण तथा स्वस्थ पौधों की पर्याप्त संख्या हेतु बीजों को कवकनाशी से बीज उपचार के लिये प्रति कि.ग्रा. बीज को 2.5 ग्राम थीरम तथा । ग्राम कार्बेन्डाजीम से उपचार करने के बाद राइजोबियम कल्चर का प्रयोग करें। बुआई के समय बीज डालने से पहले सल्फर धूल का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। इसी प्रकार फॉस्फेट घुलनशील बैक्टीरिया (पीएसबी) से बीज का शोधन करना भी लाभदायक होता है।
  • उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण की संस्तुतियों के आधार पर किया जाना चाहिए। मूंग की फसल के लिये 10-15 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 45-50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस, 50 कि.ग्रा. पोटाश एवं 20-25 कि.ग्रा. सल्फर हैक्टर के दर से बुआई के समय कूड़ों में देना चाहिए। कुछ क्षेत्रों में जस्ता या जिंक की कमी की अवस्था में 20 कि.ग्रा./हैक्टर के दर से प्रयोग करना चाहिए। उड़द की फसल के लिये नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं गंधक क्रमशः 15.45 एवं 20 कि.ग्रा. प्रतिहैक्टर की दर से बुआई के समय कूड़ों में देना चाहिए। नवीनतम प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का पर्णीय छिड़काव यदि फली बनने की अवस्था में किया जाये, तो उपज में निश्चित रूप से वृद्धि होती है।
  • बुआई के प्रारंभिक 4-5 सप्ताह तक खरपतवार की समस्या अधिक रहती है। पहली सिंचाई के बाद निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार नष्ट होने के साथ-साथ मृदा में वायु का संचार भी होता है, जो मूल ग्रन्थियों में क्रियाशील जीवाणुओं द्वारा वायुमंडलीय नाइट्रोजन एकत्रित करने में सहायक होता है। खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण हेतु 2.5-3.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर बुआई के 2 से 3 दिनों के अन्दर अंकुरण से पूर्व छिड़काव करने से 4 से 6 सप्ताह तक खरपतवार नहीं निकलते हैं। चौड़ी पत्ती तथा घास वाले खरपतवार को रासायनिक विधि से नष्ट करने के लिये एलाक्लोर की 4 लीटर या फ्लूक्लोरालिन (45 ई.सी.) नामक रसायन की 2.22 लीटर मात्रा को 800 लीटर पानी में मिलाकर बुआई के तुरन्त बाद या अंकुरण से पहले छिड़काव कर देना चाहिए। अतः बुआई के 15-20 दिनों के अन्दर कसोले से निराई-गुड़ाई कर खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिए।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।