मार्च के मुख्य कृषि कार्य      Publish Date : 14/02/2025

                              मार्च के मुख्य कृषि कार्य

                                                                                                                                        प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

                                             

गेहूं और जौ

  • गेहूं की फसल में सिंचाई योजना बनाते समय मृदा की किस्म, फसल, फसल की प्रजाति, वृद्धि काल, मृदा में जीवांश पदार्थ की मात्रा और खेत में विगत वर्ष बोई गयी फसल आदि का विशेषरूप से ध्यान रखना चाहिए। जब भूमि में जल की इतनी कमी हो जाए कि पौधों की वृद्धि एवं विकास दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका हो, उस अवस्था में आवश्यकतानुसार सिंचाई कर देनी चाहिए। गेहूं की फसल में सिंचाई मृदा में 50 प्रतिशत उपलब्ध जल रहने पर करनी चाहिए। सिंचाई के सही समय का पता लगाने हेतु विभिन्न यंत्रों का उपयोग भी किया जाता है जैसे टेनशियोमीटर एवं रेपिडमॉयस्बरमीटर आदि परन्तु कृषक इनके उपयोग से बिल्कुल अनभिज्ञय हैं। इनका अधिकतर उपयोग अनुसंधान संस्थानों, विश्वविद्यालयों द्वारा किया जाता है।
  • गेहूं की फसल में जल का महत्वपूर्ण स्थान है। संरचना की दृष्टि से 84-99 प्रतिशत तक पौधों में जल पाया जाता है। पौधों की विभिन्न विकास क्रियाओं को जल प्रभावित करता है। फसलों की वृद्धि एवं विकास हेतु मृदा में नमी का होना आवश्यक है। फसल की अधिकतम एवं उच्च कोटि की उपज प्राप्त करने हेतु उचित मात्रा एवं उचित अंतराल पर सिंचाई करनी पड़ती है. जो सुनिश्वित्त व्यवस्था से ही सम्भव है।
  • गेहूं की फसल इस समय फूल निकलने से लेकर दाना भरने अथवा दाना सख्त होने की अवस्था में है। इस अवस्था में मृदा में नमी की कमी होने से उपज में भारी कमी आ जाएगी। अतः अपनी फसलों में आवश्यकतानुसार सिंचाई अवश्य करें। सामान्यतः बौने गेहूं की अधिकतम उपज प्राप्त करने हेतु हल्की एवं दोमट या भारी दोमट मृदा में जल की उपलब्धता के आधार पर सिंचाइयां करनी चाहिए। अन्यथा इन अवस्थाओं में जल की कमी का उत्पादन एवं उसकी गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ेगा। सिंचाई सदैव हल्की मृदा में 6 सें.मी. एवं दोमट या भारी दोमट मृदा में 8 सें.मी. गहरी सिंचाई करनी चाहिए।

 

गेहूं के रोगों का नियंत्रण

गेहूं धारीदार रतुआ रोगः यह पक्सीनिया स्ट्राइफारमिस नामक कवक द्वारा होता है। इस रोग के लक्षण प्रारम्भ में पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग की धारियों के रूप में देखने को मिलते हैं। ये धीरे-धीरे पूरी पत्तियों को पीला कर देते हैं। पीला पाउडर जमीन पर भी गिरने लगता है। इस स्थिति को गेहूं में पीला रतुआ कहते हैं। यदि यह रोग कल्ले निकलने वाली अवस्था या इससे पहले आ जाता है, तो फसल में बाली नहीं बन पाती है। यह रोग तापमान बढ़ने पर कम हो जाता है। पत्तियों पर पीली धारियां काले रंग की हो जाती हैं। इसके नियंत्रण के लिए उन्नत प्रतिरोधी प्रजातियों का प्रयोग करें। प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. (टिल्ट) 500 मि.ली. या हैक्साकोनाजोल 1.0 लीटर प्रति हैक्टर या मैंकोजेब 75 डब्ल्यू.पी. 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

पर्ण या भूरा रतुआ रोगः यह रोग सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है तथा पक्सीनिया रिकॉडिटाट्रिटिसाई नामक कवक के द्वारा होता है। इस रोग की पहचान यह है कि प्रारम्भ में इस रोग के लक्षण नारंगी रंग की सुई की नोक के बिन्दुओं के आकार के बिना क्रम के पत्तियों की ऊपरी सतह पर उभरते हैं, जो बाद में और घने होकर पूरी पत्ती और पर्णवृन्तों पर फैल जाते हैं।रोगी पत्तियां जल्दी सूख जाती हैं, जिससे प्रकाशसंश्लेषण में भी कमी होती है। दाना हल्का बनता है। गर्मी बढ़ने पर इन धब्बों का रंग, पत्तियों की निचली सतह पर काला हो जाता है। इसके बाद यह रोग आगे नहीं फैलता है। इस रोग से गेहूं की उपज में 30 प्रतिशत तक का नुकसान हो सकता है। रोग के नियंत्रण के लिए धब्बे दिखाई देने पर 0.1 प्रतिशत प्रोपिकोनाजोल  25  ई.सी. (टिल्ट)  का एक या दोबार पत्तियों पर छिड़काव करें।

अंगमारी झुलसा रोगः रोग के लक्षणों में सर्वप्रथम निचली पत्तियों पर छोटे-छोटे, अण्डाकार, भूरे रंग के और अनियमित रूप से बिखरे हुए धब्बे आपस में मिलकर पत्ती का अधिकांश भाग ढक देते हैं। इस रोग के नियंत्रण हेतु थीरम एवं डाइथेन बैड-78  का  0.25  प्रतिशत का छिड़काव करने से इस रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

चूर्णिल आसिता रोगः प्रभावित पौधे की पत्तियों पर भूरे सफेद रंग के चूर्ण के ढेर दिखायी देते हैं। रोग की उग्र अवस्था में पर्णछद, तना और तुषनिपत्र आदि भी भूरे-सफेद चूर्ण से ढक जाते हैं। रोग ग्रसित पौधों द्वारा दाने छोटे और सिकुड़े हुए उत्पन्न होते हैं। इस रोग के नियंत्रण हेतु सल्फर का बुरकाव 20 कि.ग्रा./हैक्टर करना चाहिए।

काला सिट्टा रोगः इस रोग में दानों का सिरा गहरा भूरा या काला हो जाता है। इस रोग की रोकथाम फूल आने से लेकर फसल पकने तक 800 ग्राम डाइयेथेनजेड 78 (जीनेब) या डाइथेन एम. 47 (मैकोजेब) को 2500 लीटर पानी में घोलकर 10-15 दिनों के अंतर पर छिड़काव करें।

कण्डवा रोगः यह रोग आन्तरिक रूप से संक्रमित बीज से पैदा होता है। इसका रोगजनक एक कवक अस्टीलैंगोंसेजेंटम प्रजाति ट्रिटिसाई बीज के भ्रूण भाग में छिपा रहता है। संक्रमित बीज ऊपर से देखने में स्वस्थ बीजों की तरह ही दिखाई देता है। इस रोग के लक्षण बाली निकलने पर ही दिखाई देते हैं। रोगी पौधों की बालियों में दानों की जगह काले पाउडर के रूप में पाये जाते हैं। ये हवा में उड़कर अन्य स्वस्थ बालियों में बन रहे बीजों को भी संक्रमित कर देते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला दें। बीजों को बीटावैक्स 2.5 ग्राम या कार्बन्डाजिम 2.5-3.0 ग्राम/कि.ग्रा. या कार्बोक्सिन 75 डब्ल्यू.पी. 1.5 ग्राम या टेब्यूकोनाजोल 2.0 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार कर बुआई करें।

करनालबंट रोगः इसे गेहूं का कैंसर भी कहा जाता है। इस रोग का प्रकोप अपेक्षाकृत ठंडे प्रदेशों जैसे पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड के मैदानी इलाके तथा उत्तरी राजस्थान में अधिक होता है। इस रोग का कारक एक कवक टिलेसियाइंडिका है। यह रोगजनक मृदा में रहता है तथा संक्रमित बीज इस रोग को नये क्षेत्रों में फैलाते हैं। इस रोग से दानों के अन्दर काला चूर्ण बन जाता है तथा अंकुरण क्षमता कम हो जाती है। करनालबंट रोग के नियंत्रण के लिए खेत में कम से कम पांच वर्षों तक फसल चक्र अपनाएं। रोग ग्रसित चालियों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए एवं साफ व स्वस्थ बीजों का चयन किया जाये एवं उन्नत प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें।बीटा वैक्स, औरियोफन्जिन, धीरम, जीनेव, ऑक्सीकाबर्बोक्सिन 2.5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें। रासायनिक जैसे प्रोपिकोनाजोल (0.1 प्रतिशत), ट्राइएडिमिफॉन (0.2 प्रतिशत), कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत), मैंकोजेब (0.25 प्रतिशत)  पुष्प निकलने की अवस्था में छिड़काव करें।

  • बौने गेहूं में बुआई के अनुसार पांचवीं सिंचाई दुधिया अवस्था में करनी चाहिए। यह अवस्था बीज बोने के 100-105 दिनों बाद आ जाती है और छठी सिंचाई दाने भरने की अवस्था में करनी चाहिए। यह अवस्था बीज बोने के 115-120 दिनों बाद आ जाती है। पछेती गेहूं की बुआई मध्य दिसम्बर के आसपास की गयी हो, तो उन में चौथी सिंचाई बाल निकलने की अवस्था और पांचवीं सिंचाई दूधिया अवस्था पर करें। तेज हवा चलने की स्थिति में सिंचाई न करें अथवा रात में करें क्योंकि फसल गिरने की आशंका रहती है। असिंचित क्षेत्रों में गेहूं की कटाई और मड़ाई का कार्य करें।
  • गेहूं के प्रमुख कीटों से नुकसान के कारण उत्पादन क्षमता कम हो जाती है परन्तु कभी-कभी फसल पूरी तरह से खराब हो जाती है। इसके लिए किसान स्वयं समय से गेहूं के हानिकारक कीटों का प्रबंध कर अधिकतम पैदावार प्राप्त कर सकते हैं।
  • तेला कीटः यह कीट गेहूं, जौ, जई की फसलों को प्रभावित करता है। यह कीट हरे रंग के जूं की तरह होता है। ये सर्द एवं बादलों वाले दिनों में बहुत अधिक संख्या में कोमल पत्तों या बालियों पर प्रकट होते हैं। गेहूं के दाने पकने के समय अपनी चरम संख्या में पहुंच जाते हैं। इस कीट के शिशु और प्रौढ़ दोनों पौधों के पत्तों से रस चूसते रहते हैं. विशेषकर बालियों को प्रभावित करते हैं। बादलों एवं ठण्ड वाले मौसम में तेला कीट अधिक नुकसान पहुंचाता है. जो फसल अधिक खाद, अच्छी तरह से सिंचित और मुलायम हो, वहां लम्बे समय तक इस कीट का प्रकोप बना रहता है। इस कीट के नियंत्रण के लिए (5 कीट प्रति बाली दिखाई देने पर) 1.5 मि.ली. मानोक्रोटोफॉस 36 एसएल या 1.5 मि.ली. डाइमेथोएट 30 ई.सी. प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
  • रस चूसने वाले कीट जैसे बेंपाभो गेहूं की पत्तियों व वालियों से रस चूसते हैं।फसल में 12 प्रतिशत बालियों या ऊपर के पत्तों पर 10-12 चंपा का समूह नजर आयें तो रोकथाम के लिए इमिडाक्लोरोप्रीड 200 एसएल अथवा 20 ग्राम सक्रिय तत्व का छिड़काव खेत के चारों तरफ दो मीटर बार्डर पर करें। शुरू में पूरे खेत में उपचार की आवश्यकता नहीं होती। अधिक प्रकोप होने पर इस कीटनाशी का प्रयोग पूरे खेत में करें। किन्हीं दो छिड़काव के बीच 15-20 दिनों का अंतर अवश्य रखें। इसकी रोकथाम के लिए फॉस्फोमिडान 2 मिली प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिये।
  • चूहों का प्रकोप गेहूं के खेत में होने पर नियंत्रण के लिए जिंक फॉस्फाइड से बने चारे अथवा एल्यूमिनियम फॉस्फाइड की टिकिया का प्रयोग करें।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।