गाजर घास की समस्या का वैज्ञानिक समाधान Publish Date : 28/12/2024
गाजर घास की समस्या का वैज्ञानिक समाधान
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
वर्तमान समय में देश का एक बड़ हिस्सा बड़े पैमाने पर पार्थेनियम (पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस एल.) के संक्रमण से जूझ रहा है। इसका प्रादूर्भाव भारत में उन्नीसवीं सदी में हुआ और देश के अधिकांश हिस्सों यह में फैलता चला गया। इसने भारतीय महाद्वीपीय क्षेत्र के एक बड़े क्षेत्र को कवर किया हुआ है और रेलवे पटरियों के पास, खाली स्थानों पर, कृषि क्षेत्रों में, बगीचों में और जंगलों आदि में बहुतायत में पाया जाता है।
यह एक जलवायु प्रतिरोधी खरपतवार है और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीवित रहने की क्षमता रखती है। एक अध्ययन के अनुसार खरपतवार विभिन्न फसलों की उपज को 13 प्रतिशत से 36 प्रतिशत तक कम करके देश को भारी आर्थिक नुकसान पहुंचा सकते हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि भारत के अठारह राज्यों में 10 प्रमुख खेतों की फसलों में अकेले खरपतवार के कारण लगभग 11 बिलियन अमेरिकी डॉलर का कुल आर्थिक नुकसान हुआ। इसके हानिकारक गुणों को कम करने के लिए पार्थेनियम हिस्टेरोफोरस को नष्ट करने के प्रयास किए जाते रहे हैं।
पार्थेनियम की समस्याओं को नियंत्रित और कम करने के लिए कई तरीके अपनाने की आवश्यकता होती है, जिनमें से कुछ पर यहां चर्चा इस लेख में की गई है।
गाजर घास का परिचय
खरपतवार के प्रकोप से विभिन्न फसलों में उत्पादन में कमी देखी गयी है जो कि अलग-अलग फसलों में 13.36 प्रतिशत तक पाई गयी है, एक और जहाँ प्रत्यारोपित धान की फसल में 13.8 प्रतिशत तक उत्पादन में कमी पारी गयी है तो वहीं मूंगफली में 35.8 प्रतिशत तक की कमी पायी जाती है।
गाजर घास एक खतरनाक खरपतवार है जिसका वैज्ञानिक नाम पार्थेनियम है। इस खरपतवार को भारत के अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग नाम से भी जाना जाता है, जैसे- कांग्रेस घास, गाजर घास, सफेद टोपी, चटक चांदनी तथा गंधी बूटी इत्यादि। सर्वप्रथम सन् 1956 में उष्ण अमेरिका से यह भारत में आया और उसके बाद से ही यह खरपतवार हमारे देश के किसानों के लिए एक बहुत बड़ी समस्या बना हुआ है और अब यह लगभग पुरे देश में ही फ़ैल चुका है।
यह एकवर्षीय शाकीय पौधा है जो विभिन्न वातावरण में तेजी से उगकर फसलों के साथ ही साथ पशुओं तथा मनुष्यों के लिए एक गंभीर समस्या बना हुआ है। इसके पौधों की लंबाई 1.0 सेंटीमीटर से लेकर 1.5 मीटर तक होती है तथा यह एक बहुशाखीय पौधा होता है जो अपना जीवनचक्र करीब पांच से छह महीने में पूरा कर लेता है तथा इसके पत्ते गाजर के पत्ते जैसे होते हैं इसलिए इस खरपतवार को गाजर घास कहते हैं। इसका प्रत्येक पौधा 5000 से 25,000 तक अत्यंत सूक्ष्म बीज पैदा करता है जो हवा, पानी तथा पशु, पक्षियों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पहुँच जाते हैं जो जमीन पर गिरने के बाद शीघ्र ही प्रकाश तथा नमी पाकर अंकुरित हो जाते हैं।
गाजर घास एक ऐसा खरपतवार है जो हर प्रकार की जलवायु में उगने की क्षमता रखता है तथा किसी भी प्रकार की मृदा में फल फूल सकता है। इसकी बढ़वार पर मृदा की अम्लीयता या क्षारीयता का भी कोई विशेष दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है।
तालिका 1. खरपतवार से विभिन्न फसलों के उत्पादन में कमी की मात्रा
फसल उत्पादन में कमी |
मात्रा (प्रतिशत) |
प्रत्यारोपित धान |
13.8 |
गेहूं |
18.6 |
मक्का |
25.3 |
सोयाबीन |
31.4 |
मूंगफली |
35.8 |
सरसों |
21.4 |
मूंग |
30.8 |
गाजर घास के दुष्प्रभाव
अन्य खरपतवारों की तरह ही गाजर घास का पूर्ण विकसित पौधा अपने आस पास की फसलों के पौधों से जलवायु तथा पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा करता है तथा पौधों को कमजोर कर देता है। इससे खाद्यान्न फसलों की पैदावार में कमी हो जाती है। इस खरपतवार की जड़ों से निकलने वाला घुलनशील वृद्धिरोधी रसायन फसलों की वृद्धि को रोक देता है। इसके अतिरिक्त गाजर घास के पौधों में एस्क्यूटरपिन लैक्टोन, फेरुलिक, कैफिइक अम्ल तथा कोरोपिलिन नामक विषैला पदार्थ पाया जाता है जो फसलों के अंकुरण को कुप्रभावित करते हैं।
इसके परागकण पर-परागित फसलों के मादा जनन अंगों में एकत्रित हो जाते हैं जिससे उनकी संवेदनशीलता ख़त्म हो जाती है तथा बीज नहीं बन पाता है। दाल वाली फसलों में यह खरपतवार जड़ ग्रंथियों के विकास को भी प्रभावित करता है तथा उनमें मौजूद नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं की क्रियाशीलता को भी बहुत कम कर देता है।
गाजर घास का मानव के स्वास्थय पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस खरपतवार के लगातार संपर्क में आने से मनुष्यों में डरमेटाइटिस, एक्जिमा, श्वसन समस्या, छींक, दमा, खाँसी, खुजली, एलर्जी, बुखार, तथा अन्य चर्म रोगों का प्रकोप होता है। प्रायः पशु इसके पौधे को नहीं खाते हैं क्योंकि इसमें एक बहुत ही ख़राब गन्ध आती है। लेकिन अगर गलती से पशु इसके पौधों को खा लेते हैं तो उनमें कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं एवं दुधारू पशुओं के दूध में भी कड़वाहट आने लगती है तथा धीरे-धीरे दूध की मात्रा कम होने लगती है। पशुओं द्वारा अधिक मात्रा में इसको चर लेने से इनकी मृत्यु भी हो सकती है। इसके खाने से पशुओं के मुंह में घाव, कोमा, छाले या जीभ का कट जाना इत्यादि देखा गया है ।
गाजर घास का नियंत्रण एवं रोकथाम के उपाय
गाजर घास के समुचित नियंत्रण एवं रोकथाम के लिए एक समेकित, एकत्रित खरपतवार नियंत्रण की आवश्यकता होती है। इसकी रोकथाम के लिए यांत्रिक रासायनिक तथा जैविक विधियों का उपयोग किया जा सकता है ।
1. यांत्रिक विधिः यांत्रिक विधि को निम्न दो भागों में बांटा जा सकता है-
(क) निरोधी उपाय
(ख) रोकथाम के उपाय
(क) निरोधी उपायः इसके अंतर्गत निम्नलिखित उपाय आते हैं:-
1. इस घास से प्रभावित खेतों में शीघ्र तथा तीव्र वृद्धि करने वाली फसलों जैसे ढैंचा, ज्वार, बाजरा इत्यादि को लगाना चाहिए। इस प्रकार की फसलें बढ़वार के समय जमीन को पूरी तरह ढक लेती हैं जो कि गाजर घास को बढ़ने के लिए आवश्यक जमीन हवा और सूर्य के प्रकाश में कमी लाती हैं जिससे गाजर घास की बढ़त प्राकृतिक रूप से कम हो जाती है।
2. एक उचित फसल चक्र अपना कर भी गाजर घास को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। ज्यादा लंबाई तथा अधिक शाखा वाले पौधों वाली फसल को लगाने पर गाजर घास में 50-60 प्रतिशत तक कम फूल आते हैं। इसके लिए अरहर, ज्वार तथा मक्का इत्यादि फसलें उपयुक्त होती है। ऊंचाई वाली फसलों के साथ फूल वाले गेंदा की फसल बोने से भी गाजर घास के फैलाव को कम किया जा सकता है ।
3. उर्वरकों का संतुलित प्रयोग खेत में उचित स्थान एवं समय पर करने से तथा जड़ के पास खाद का प्रयोग करने से गाजर घास इसे आसानी से ग्रहण नहीं कर पाती है तथा इसकी संख्या काफी हद तक नियंत्रित हो जाती है।
4. फसलों की सिंचाई के समय सिंचाई करने के लिए प्रयोग में आने वाले नालों को गाजर घास एवं बीज से मुक्त होना चाहिए। इसके लिए सिंचाई से पूर्व नालों को अच्छी तरीके से साफ कर लेना चाहिए।
5. बीज का चुनाव करते समय इस बात का ध्यान देना चाहिए कि उपयोग/प्रयोग में आने वाले बीज गाजर घास बीज मुक्त हैं या नहीं। इसके लिए प्रमाणित बीज का ही सदा प्रयोग करना चाहिए।
6. पूर्ण रूप से सड़ी हुई तथा गाजर घास के बीजों से मुक्त गोबर की खाद तथा कंपोस्ट का प्रयोग करना चाहिए।
7. विभिन्न प्रदेशों में गाजर घास को खतरनाक घास घोषित कर इसके उन्मूलन के लिए सामूहिक प्रयास किया जाना चाहिए।
(ख) रोकथाम के उपाय
1. उन्मूलन विधिः इस विधि के अंतर्गत पौधों को उनके फूल आने से पूर्व ही उन्हें जड़ सहित बिना स्पर्श किए उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए, तथा फूल आने के बाद पौधों को जड़ से उखाड़ कर उन्हें सूखने के बाद, उसी स्थान पर जलाकर नष्ट कर देना चाहिए। यदि पानी की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध हो तो वहां पूरे पौधों को लगभग 1 से 2 सप्ताह तक पानी में डुबाये रखने से भी इसके पौधे पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं ।
2. नियंत्रण विधि
यांत्रिक विधिः मिट्टी के गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए जिससे इसके बीज गहराई में दब जाते हैं तथा वह अंकुरित नहीं होते हैं। गाजर घास जब 50 प्रतिशत तक बीज बनने की अवस्था में आ जाए तो इसे काटकर कंपोस्ट बनाने में भी इसका प्रयोग किया जा सकता है। कंपोस्ट खाद बनने की प्रक्रिया में तापक्रम अधिक होने के कारण गाजर घास तथा खरपतवार के बीजों के अंकुरित होने की क्षमता समाप्त हो जाती है।
जैविक एवं पारिस्थितिकी विधियाँ:- गाजर घास के नियंत्रण के लिए जैविक विधि के अंतर्गत कुछ प्रजाति के पौधों को लगने से गाजर घास की वृद्धि एवं विकास में कमी आती है। विभिन्न प्रकार के पौधों जैसे कैसिया सिरेसिया, कैसिया तोरा, कैसिया पूमिफ्लोरा से निकलने वाला केवलिन नामक पदार्थ/रसायन गाजर घास के पौधों के अंदर प्रवेश कर इनकी वृद्वि को रोकता है जिससे एलिलोपैथिक प्रभाव के कारण बीज बनने की क्रिया मंद पड़ जाती है।
यूकेलिप्टस तथा पॉपुलर आदि के वृक्षों को लगाने पर भी इनमें से कुछ रसायन निकलते हैं जिससे गाजर घास पौधों की संख्या कम हो जाती है तथा इसके बीजों का अंकुरण कम हो जाता है।
गाजर घास का नियंत्रण करने के लिए हम इसके प्राकृतिक शत्रुओं मुख्यतः कीटों तथा रोगों के जीवाणुओं का प्रयोग भी कर सकते हैं। मैक्सिकन बीटल (जाईगोग्रयाया बायिकोलोराटा) जिसको वर्षा ऋतु में गाजर घास पर छोड़ देने से यह गाजर घास की पत्तियों को खा जाता है तथा इस कीट के लारवा और वयस्क पत्तियों को चटकर गाजर घास को सुखाकर मार देते हैं।
3. रासायनिक नियंत्रण
गैर कृषि क्षेत्रों में इस घास के नियंत्रण के लिए ग्लाइफोसेट एवं पैराकाट नामक खरपतवारनाशी की 5-2 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व 400- 500 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव किया जाता है।
अनाज वाली फसलों जैसे ज्वार, मक्का, बाजरा फसलों में गाजर घास के नियंत्रण हेतु एट्राजिन की 5-3 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर 600 से 800 लीटर पानी में घोल बनाकर बुआई के तुरंत बाद तथा फूल आने से पहले छिड़काव करना चाहिए।
अनउपजाऊ भूमि पर गाजर घास के नियंत्रण के लिए नमक के 15-20 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
2-4-डी. ईस्टर का 5 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से भी इस खरपतवार का प्रभावी नियंत्रण होता है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।