धान की पराली का प्रबन्धन, बनाया जा सकता है उपयोगी खाद Publish Date : 26/10/2024
धान की पराली का प्रबन्धन, बनाया जा सकता है उपयोगी खाद
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं अन्य
धान की खेती करने वाले किसान पराली से खाद बना सकते है। आज के अपने इस लेख के अंतर्गत हम आपको बतान जा रहे हैं धान की पराली से खाद बनाने का तरीका एवं इसके लाभ-
खरीफ सीजन की प्रमुख खाद्यान्न फसल है धान, और धान की कटाई कर लेने के बाद धान के किसान के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है धान की पराली का प्रबन्धन। इसके कारण हर साल किसानों के द्वारा फसल अवशेष अर्थात पराली जलाया जाता है और पराली को जलाने से प्रदूषण का स्तर बढ़ता है और अब पराली को जलाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।
पली को खेतों में ही जलान देने से दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा और पंजाब आदि राज्यों में प्रदूषण की गंभीर समस्या खड़ी हो जाती है। दरअसल हरियाणा, पंजाब और दिल्ली-एनसीआर के इलाकों में खरीफ सीजन की प्रमुख फसल धान की खेती बड़े स्तर पर की जाती है और पराली के निपटान हेतु इसे खेतों में ही जला दिया जाता है।
यंत्रीकरण के के चलते धान आधारित फसल प्रणाली वाले क्षेत्रों में रबी फसल की बुआई के लिए किसान धान फसल के अवशेषों या पराली को अक्सर जला देते हैं। परली जलाने की इन घटनाओं के चलते इस क्षेत्र में प्रदूषण की बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है।
पराली को जला देने से धान के किसानों का खेत कम खर्चे एवं समय में साफ हो जाता है। परन्तु अब धान के अवशेषों या पराली की समस्या से निपटने के लिए पूसा डिकम्पोजर एक बहुत अच्छा विकल्प बनकर सामने आया है।
पूसा डिकम्पोजर के चलते अब किसान भाई धान की पराली से उपयोगी खाद बना सकते है, यह गोबर की खाद के समान ही रिजल्ट देता है। अब हम आपको बताते है पराली की खाद बनाने की विधि एवं च्नें क्मबवउचवेमत से प्राप्त होने वाले लाभों के बारे में-
धान के पराली प्रबंधन के लिए पूसा डिकम्पोजर एक बेहतर विकल्प
पूसा डिस्कंपोजर कवकों का मिश्रण है, जो एंजाइमों का स्राव करके पराली में स्थित सेल्यूलोज, लिग्निन और पेक्टिन को पचाकर 15 से 20 दिनों में पराली का अपघटन कर देता है। इससे धान की पराली या इसके फसल अवशेषों की खाद भी बन जाती है साथ ही पराली को जलाने की समस्या का भी एक उपयोगी समाधान हो जाता है।
वर्तमान समय में खेती में श्रमिकों की बढ़ती समस्या और गहन कृषि के तहत, समय की बचत हेतु धान आधारित फसल प्रणालियों में यान्त्रिक खेती को अपनाना आज के समय की मांग है।
उत्तर-पश्चिमी भारत में गहन खेती के अतर्गत धान-गेहूं फसल प्रणाली के लिए धान और गेहूं की कटाई मुख्य रूप से कम्बाइन के माध्यम से की जाती है। इससे खेत में बड़ी मात्रा में फसल अवशेष बाकी रह जाते है। यही कारण है कि धान की पराली धान के किसानों के लिए शुरू से ही एक बड़ी समस्या रही है।
अक्टूबर और नवम्बर में रबी की फसल की बुआई करने के लिए किसानों को अपने खेत धान की पराली से खाली या साफ करने होते हैं। क्योंकि यह फसल अवशेष अगली फसल के लिए जुताई और बुआई के कार्य में बाधा उत्पन्न करते हैं। इसलिए किसान अक्सर इन फसल अवशेषों को जलाना ही अधिक पसंद करते हैं। पराली जलाने से किसानों का खेत कम खर्चे एवं समय में खाली या साफ हो जाता है तथा समय पर गेहूं या अन्य किसी फसल की बुआई आसानी से की जा सकती है।
फसल अवशेषों की स्थिति नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत प्रत्येक वर्ष औसतन 500 मिलियन टन फसल अवशेष उत्पन्न करता है। इन फसल अवशेषों का अधिकांश हिस्सा चारा, ईंधन, औद्योगिक और अन्य घरेलू उद्देश्यों से उपयोग कर लिया जाता है।
ठतना सब होने के बाद भी 140 मिलियन टन फसल अवशेष बचा रह जाता है। इस बचे हुए फसल अवशेष में से 92 मिलियन टन फसल अवशेष को प्रतिवर्ष खेत में ही जला दिया जाता है। पराली जलाने के जैसे मुद्दे से निपटने के लिए वर्षों से कई समाधान दिए जा रहे थे।
इसी क्रम में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किये गये पूसा डिकम्पोजर कैप्सूल का उल्लेख प्रमुख रूप से किया जा सकता है। यह पराली को खेत में ही अपघटित कर उसकी खाद बना देता है। इस कैपसूल ने किसानों की पराली की समस्या के समाधान के लिए एक गेम चेंजर के रूप में काम किया है।
क्या है पूसा डिकम्पोजर, कैसे करता है काम और खाद बनाने की विधि
पूसा डिकम्पोजर कैप्सूल सात कवकों का एक मिश्रण है, जिसे हरे और लाल रंग के कैप्सूल में पैक किया जाता है। पूसा डिकम्पोजर कैप्सूल, गुड़ एवं बेसन की सहायता से किण्वन प्रक्रिया के द्वारा लगभग 8-10 दिनों में एक तरल कल्चर अथवा मिश्रण तैयार करके खेत में फसल अवशेषों या धान की पराली पर छिड़क दिया जाता हैं।
इसके बाद यह कवक धान की पराली या भूसे में उपस्थित सेल्यूलोज, लिग्निन और पेक्टिन को पचाने अथवा अपघटित करने के लिए एंजाइमों का स्राव करता है। इससे धान की पराली या अवशेषों का अपघटन 15 से 20 दिनों में ही हो जाता है तथा यह एक उत्तम खाद बन जाती है। यह पराली को जलाने से रोकने का एक स्थाई समाधान है। पूसा डिकम्पोजर कैप्सूल से कल्चर खेत में उपयोग करने से पहले पूसा डिकम्पोजर का तरल कल्चर तैयार करना होता है।
इस खाद को बनाने के लिए सर्वप्रथम 5 लीटर पानी में 150 ग्राम गुड़ को उबालकर मिश्रण बना लिया जाता है। इसके बाद इस मिश्रण को चार कोनों वाले किसी बर्तन जैसे ट्रे या टब आदि में ठंडा कर कर लिया जाता है। जब यह मिश्रण हल्का गुनगुना रह जाए, तब इसमें 50 ग्राम बेसन अथवा चने का आटा मिला लिया जाता है।
इसके बाद पूसा डिकम्पोजर के 4 कैप्सूल को तोड़कर इस मिश्रण में मिलाकर किसी लकड़ी की सहायता से अच्छी तरह मिलाकर इस मिश्रण के बर्तन को हल्के कपड़े द्वारा ढककर सामान्य तापमान पर रख देते हैं। इस मिश्रण को हिलाया नहीं जाता है।
दो से तीन दिनों के अन्दर इस मिश्रण की सतह पर मलाईनुमा कवकों की एक परत सी बनने लगती है, जो 4 दिनों बाद एक मोटी परत के रूप में बदल जाती है। अब दोबारा से इस मिश्रण में 5 लीटर हल्का गुनगुना अैर बिना बेसन मिलाया हुआ गुड़ का घोल मिला दिया जाता है तथा कुल 25 लीटर मिश्रण बनने तक यह प्रक्रिया प्रत्येक दो दिनों बाद दोहराते रहते हैं। इस प्रकार 25 लीटर मिश्रण तैयार हो जाने के बाद तैयार मिश्रण को अच्छी तरह से मिलाकर उपयोग में ले लिया जाता है, जो एक हैक्टेयर या 2.5 एकड़ भूमि में छिड़काव करने के लिए पर्याप्त होता है।
खेत में इस कल्चर का उपयोग 25 लीटर पूसा डिकम्पोजर के मिश्रण के साथ लगभग 500-600 लीटर पानी में मिलाकर एक हैक्टर अथवा 2.5 एकड़ भूमि के फसल अवशेषों या धान की पराली पर छिड़काव कर देते हैं। इसके बाद फसल अवशेषों या धान की पराली को रोटावेटर की सहायता से जमीन में अच्छी तरह से मिलाकर एक हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए।
पूसा डिकम्पोजर मिश्रण के छिड़काव के लगभग 20 दिनों बाद धान की पराली विघटित हो जाती है। किसान भाई भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के सूक्ष्म जीव विज्ञान विभाग से पूसा डिकम्पोजर के कैप्सूल प्राप्त कर सकते हैं।
पूसा डिकम्पोजर उपयोग करने के लाभ-
सामान्य परिस्थितियों में पराली को मिट्टी में मिलाने के बाद विघटन के लिए कम से कम 45 दिन का समय लगता हैं, जबकि पूसा डिकम्पोजर के प्रयोग से यह प्रक्रिया मात्र 20 दिनों में ही पूरी हो जाती है। ऐसा करने से किसानों की रबी फसलों के लिए जुताई एवं बुआई में आने वाली पराली की बाधा पूरी तरह से समाप्त हो जाती है और वातावरण भी स्वच्छ और प्रदूषण रहित बना रहता है। इससे किसान गेहूं या किसी अन्य फसल की बुआई समय पर बिना किसी बाधा के कर सकते हैं।
पराली के प्रबंधन के लिए यह एक कुशल, प्रभावी और सस्ती तकनीक है और इससे पराली जलाने की समस्या से छुटकारा मिल जाता है, जिससे हमारा वतावरण भी अच्छा रहता है और प्रदूषण की समस्या से भी छुटकारा मिल जाता है। पराली जलाने से निकलने वाली गैंसें, जो कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार होती हैं, उनसे भी छुटकारा मिल जाता है और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से राहत मिल पाने के आसार बनते हैं। पराली का मृदा में विघटन मृदा को भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में सुधार लाने के साथ-साथ मृदा की उर्वरा शक्ति की क्षमता बढ़ाने में सहायक होता है।
क्यों नहीं जलानी चाहिए धान की पराली
फसल कटाई के बाद खेतों में छोड़ी गई धान की पराली को किसानों के द्वारा जलाना पिछले कई वर्षों से चिंता का विषय रहा है। यह प्रक्रिया उत्तरी गंगा के मैदानी क्षेत्रों और दिल्ली जैसे पहले से ही प्रदूषित शहरों में वायु प्रदूषण में अहम् भूमिका निभा रहा है।
पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में फसल अवशेष या पराली को जलाने से निकलने वाला धुआं और जहरीली गैसें पर्यावरण को प्रदूषित करने के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिंग एवं मानव में श्वसन संबंधी रोग उत्पन्न करने में सहायक होता हैं। फसल अवशेष या पराली जलाने के मुख्य प्रतिकूल प्रभावों में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी शामिल है।
यह ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देती है तथा पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) और स्मॉग का बढ़ता स्तर स्वास्थ्य के लिए खतरनाक सिद्व होता है। फसल अवशेष या पराली जलाने से कृषि भूमि की जैव विविधता में नुकसान के साथ-साथ मृदा की उर्वरा शक्ति की क्षमता में भी गिरावट आती है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।