किसान अपनी अगली पीढ़ी को शिक्षित कर लाभ कमा सकते हैं      Publish Date : 08/10/2024

      किसान अपनी अगली पीढ़ी को शिक्षित कर लाभ कमा सकते हैं

                                                                                                                                                            प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

यूनाइटेड नेशंस (यूएन) किसी पुरानी कंपनी की तरह है जो बाजार के साथ पूरी तरह से नहीं चल पा रही है, लेकिन बस यह जगह घेरे हुए ही है। स्टार्टअप और नवाचार वाली आज की दुनिया में यह समय से पीछे है, और वे बाजार में मुख्यधारा में आना चाहते हैं और देखना चाहते हैं कि इसके मुख्य खिलाड़ी नए ट्रेंड पकड़ पा रहे हैं या नहीं। पर जब ऐसा नहीं होता, तो कंपनियों की तरह देश भी अपने हिसाब से ही चीजें करने लगते हैं।

                                                     

मतलब आज यूएन का क्या औचित्य है, यह अपने कामकाज में भी अब किसी मूकदर्शक की भूमिका में है। इस रविवार को नई दिल्ली में आयोजित आर्थिक सम्मेलन में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने यह बात कही।

विदेश मंत्री की इस टिप्पणी को मैंने हमारे सदियों पुराने भारतीय किसानों से जोड़कर देखा, जिन्हें अभी तक भी फल व सब्जियों के दाम का एक तिहाई पैसा ही मिल पाता है, जबकि अधिकांश हिस्सा बिचौलिए, थोक और फुटकर विक्रेता ही ले लेते हैं। ग्राहक जिस कीमत पर सामान खरीदते हैं, टमाटर के मामले में किसानों को उसका 33 प्रतिशत, प्याज का 36 प्रतिशत, आलू का 37 प्रतिशत, केलों का 31 प्रतिशत, अंगूर का 35 प्रतिशत और आम का केवल 43 प्रतिशत तक दाम ही किसानों को मिल पाता है।

महंगाई पर आरबीआई की रिसर्च रिपोर्ट में यह पता चला है। इसमें डेयरी जैसे अन्य क्षेत्रों पर भी प्रकाश डाला गया है, जहां किसानों को उपभोक्ता मूल्य का लगभग 70 प्रतिशत दाम मिलता है और अंडा उत्पादकों को उपभोक्ता मूल्य का 75 प्रतिशत मिलता है।

कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी के सह-लेखन में प्रकाशित रिपोर्ट में किसान समूहों को बढ़ावा देने, वायदा कारोबार को फिर से शुरू करने, अधिक कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं का विस्तार करने, सौर ऊर्जा से चलने वाले भंडारण को बढ़ावा देने, प्रोसेसिंग क्षमता बढ़ाने का सुझाव दिया गया है।

                                                           

इस विसंगति को समझते हुए, डिग्री से लैस अगली पीढ़ी टिकाऊ खेती को अपनाने के लिए कॉर्पारेट जीवन छोड़ रही है, और न केवल फसलों की खेती कर रही है, बल्कि पेशे के लिए एक उद्देश्य बनाने के अलावा लाभ भी कमा रही है, इस प्रकार कृषि क्षेत्र के लिए नए रास्ते बना रही है। साधु प्रवीण कुमार का उदाहरण लें, जिन्होंने एमफार्मा के बाद अमेरिका में प्रतिष्ठित कंपनियों में काम किया, फिर नौकरी छोड़ने का निश्चय किया और हैदराबाद में खेती शुरू कर दी, वो भी महज 26 साल की कम उम्र में ही।

अपने चार एकड़ के खेत में कुमार जैविक तरीके से 20 अलग-अलग फसलें उगाते हैं। हालांकि यह एकमात्र और अकेला ही उदाहरण नहीं है। सिंगापुर की फार्मा कंपनी में काम कर रहे मधु कुडुमुला ने 24 साल की उम्र में भारत लौटकर अपने 12 एकड़ के पुश्तैनी खेत में काम करने का निश्चय किया, जहां वह आम-अमरूद से लेकर एवोकाडो और मैकाडामिया नट्स जैसी विदेशी फसलों तक सब उगाते हैं।

27 साल के एमबीए ग्रैजुएट श्रीनिवास बाट्टिनी ने भी हैदराबाद में कॉर्पाेरेट नौकरी छोड़ी और बुजुगों की विरासत पुनर्जीवित करने के लिए जड़ों की ओर लौट आए क्योंकि उनका मानना था कि खेती सिर्फ एक करिअर नहीं है, बल्कि जीने का तरीका है।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ पुश्तैनी जमीन वाले ही खेती में आ रहे हैं। जिन परिवार में कभी कोई जमीन नहीं रही, वे भी नौकरी छोड़कर अब खेती की तरफ लौट रहे हैं। हैदराबाद में सफल सॉफ्टवेयर इंजीनियर राजशेखर चल्ला को ही लें। खाद्य पदार्थों, खासकर तेल व दूध में मिलावट से व्यथित होकर उन्होंने निश्चय किया कि वे इसके सेहतमंद विकल्प देंगे।

                                                                   

इसके लिए नौकरी छोड़ी और आंध्रप्रदेश के अट्टापुर में तीन एकड़ का खेत किराए पर लिया, जहां वो जैविक तरीके से कोल्ड प्रेस्ड खाद्य तेल व घास खाने वाली गायों का दूध का उत्पादन करते हैं। उनके उत्पादों से उनके पक्के ग्राहक बने हैं, जिन्हें गुणवत्ता व शुद्धता पर भरोसा है।

समय आ गया है कि पढ़ाई पूरी होने के बाद अगली पीढ़ी के हाथों में भारतीय किसान खेती-किसानी सौंपें। अगर संयुक्त परिवार में ज्यादा बच्चे हैं, तो अलग- अलग वर्टिकल्स में भी जा सकते हैं- जैसे कॉमर्स, लॉजिस्टिक, मार्केटिंग, मार्केट रिसर्च आदि।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।