7 सितंबर को मनाया जाएगा गणेश चतुर्थी का महोत्सव      Publish Date : 02/09/2024

            7 सितंबर को मनाया जाएगा गणेश चतुर्थी का महोत्सव

                                                                                                                                                       प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

गणपति का महोत्सव मुंबई जैसे महानगरों से होता हुआ अब पूरे विश्व में धीरे-धीरे व्याप्त हो चुका है। सबसे पहले आदिवासियों ने ही गोबर के गणपति बनाए थे और आज भी आदिवासी समाज में गोबर के ही गणपति का ही पूजन किया जाता हैं। हालांकि, कुछ दशक पहले तक हमारे परिवारों में भी ब्याह शादी की शुरुआत गोबर के गणेश की स्थापना के साथ ही हुआ करती थी। वर्तमान नई पीढ़ी को शायद ही इस बात का भरोसा हो कि हमारे जीवन में उत्सव की परंपरा सदियों पहले इस तरह शुरू होती थी।

                                                            

लोक मान्यता है की आवाहन करते ही गणपति आते हैं और हमारे जीवन को एक उत्सव बना देते हैं। तांबूल के ऊपर छोटी सी सुपारी रखकर, जब भी किसी ने आवाहन किया तो लाभ और शुभ के आश्वासनों की पोटली लेकर गणेश जी अवश्य ही पधारें है। गणेश जी पाषाण में भी तराशे गए, फिर भले ही वह लाल रंग पत्थर के हो या फिर सफेद संगमरमर के।

ऐसी कोई धातु नहीं बची जिसमें गणेश प्रतिमाएं न बनाई गई हो। वह कास्ठ में दिखाई दिए, तो कभी खेत से उठाई गई मिट्टी से भी वह तराशे गए, जो किसान के बहते हुए पसीने से पवित्र हुई मिट्टी थी। गणपति ओंकारस्वरूप है और वह सूर्य के प्रतिनिधि भी है। उन्हें पृथ्वी पर लाने के लिए लोगों ने तरह-तरह के जतन किए। लोक जीवन और लोकाचार से जोड़कर मिट्टी के गणपति बनाए गए तो नाचते हुए गणपति, बैठे हुए गजबदन, ढोल बजाते लंबोदर, लेटे हुए गौरी सुत या फिर असुरों का संहार करते हुए शूपकर्ण।

हम गणपति जी के साथ जैसा भक्ति पूर्वक खेल खेल सकते हैं वैसा और किसी अन्य देवी-देवताओं के साथ नहीं खेल सकते है। मूर्तिकारों ने उन्हें बाइक चलाते, मोबाइल देखते, लैपटॉप चलाते, क्रिकेट खेलते और भी न जाने किन-किन रूपों में प्रदर्शित किया है। गणपति जी सब जगह फिट नजर आए हैं।  आजकल पूरे बाजार में गणपति जी के विभिन्न रूपों की मूर्तियां उपलब्ध हैं, जिनको लोग लाकर अपने घरों पर या फिर मंदिरों में उनका पूजन करते हैं।

गणपति जी का अनंत है विस्तार

                                                        

गणपति प्रथम पूज्य है। उन्हें केवल पुराणों ने ही प्रथम पूज्य नहीं बताया बल्कि वेदों में भी वही देवताओं में सबसे ऊपर हैं। वहां से ब्राह्मणस्पति हैं। ये ज्ञान के देवता होने के कारण इंद्र, अग्नि, विष्णु, वरुण और सोम सहित सब देवताओं से ऊपर ही उनकी प्रतिष्ठा है। कहते हैं कि महाभारत भी उनसे ही लिखवाई गई है। जिस प्रकार वेद में वर्णित रुद्रा बाद में शिव हुए, ठीक उसी प्रकार ब्राह्मणस्पति गणपति कहलाए। ऋग्वेद के ब्राह्मणस्पति सूक्त में ही गणपति जी प्रसिद्ध प्रार्थना मिलती है- ‘‘ऊँ गणनां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे’’ के रूप में मिलती है।

कुछ विद्वानों का मत है कि वेदों में वर्णित गणपति का गजवदन विनायक से कोई संबंध नही है। परंतु श्रीणेश-अथर्वशीर्ष, जो गणपत्युषिद् के नाम से भी लोकार्पित है, यह हमें वेदों में वर्णित गणपति जी के सामने ले जाकर खड़ा कर देता है। गणेशाभर्वाशीर्ष का पाठ दक्षिण भारत और उत्तर भारत में श्रद्धापूर्वक किया जाता है। तंत्र साहित्य में इसकी महिमा का विस्तार अनंत है। इस स्त्रोत का पाठ शुद्ध उच्चारण और आरोह अवरोह के साथ किया जाता है।

जहां गणपति को प्रत्यक्ष तत्व और साक्षात आत्मा कहकर संबोधित किया गया है या उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, रूद्र, अग्नि, वायु, सूर्य, चंद्रमा और ओंकारस्वरूप कहा गया है तथा उन्हें ही भूमि, जल, अनल, अनिल और आकाश भी कहा गया है। गणपति जी के उद्गम को समझने के लिए उपनिषद ही हमारी सहायता करते हैं। उपनिषद में ही पहली बार ‘‘एकदंताय विद्यमहे, वक्रतुंडाय धीमहि तन्नो दंती प्रचोदयात्’’ मंत्र के साथ उन गणपति जी से हमारा परिचय होता है, जो एकदंत और वक्रतुंड है और जो पाश और अंकुश धारक है, मूषकध्वज है, शूपकर्ण है, लंबोदर है और लाल वस्त्र धारण किए हुए हैं, लाल रंग के फूलों से पूजित है तथा लाल चंदन से लिप्त है।

‘‘शिवसुताय श्रीवरदमूर्तये नमः’’ कहकर यहां पहली बार गणपति जी के शैव होने का स्पष्ट संकेत दिया गया है। यहां वैदिक गणपति और पौराणिक गणपति जिस तरह एकाकार हो गए हैं, उसे देखकर हमारी सांस्कृतिक विरासत और उसके समृद्ध इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।

खुलते हैं भविष्य के द्वार

                                                      

प्रकृति में गणपति जी से अच्छा शुभंकर तो कोई हो ही नहीं सकता। गणपति जी का मंगलमूर्ति और विघ्नहर्ता वाला स्वरूप केवल सनातन धर्मावलंबियों को ही नहीं, अपितु उन सब को सुहाता है जो कर्म करते हुए अपने मानस में श्रद्धा और विश्वास को समर्पित कर निर्भय हो जाना चाहते हैं। वह यश की प्राचीन मूर्ति परंपरा के साथ चलते-चलते आज जहां खड़े हैं वह आर्यों की महान सांस्कृतिक यात्रा का एक पड़ाव ही है, क्योंकि गणपति हमेशा से ही भविष्य के द्वार खोलते रहने वाले एक देवता रहे हैं, इसलिए सुदूर भविष्य में भी उन्हें चलते चले जाना है। गणपति का जो अभीराम स्वरूप हमारे सामने है, वह पांचवीं और छठी शताब्दी में भी ऐसा ही था।

इससे पहले बौद्ध धर्म की महायान शाखा में विघ्नेश और विरूप नायक के रूप में उनकी जो विकराल छवि थी, उसे हमने कालांतर में सुखकर्ता व विघ्नहर्ता के रूप में ढालकर स्वीकार किया। इसमें गणपति जी की पुरातन और पौराणिक छवियां भी मिलकर एकाकार हो गई है।

चेतन की चेतना को जगाते हैं गणपति

                                                    

गणपति गणनायक है, गणों के स्वामी है, वाचस्पति हैं, समूह के देवता हैं और इसीलिए वह समूह से प्यार करते हैं। वह व्यक्ति की अपेक्षा समूह की गतिविधियों में रुचि लेने के कारण ही सच्चे लोक देवता हैं। गणपति जी उस संगठित समाज के सूत्रधार कहे जाते हैं, जो जातिभेद, लिंग भेद, वर्ग भेद और वर्ण व्यवस्था से ऊपर विराजान हैं। गणपति जी सम्मान शुभ-समान लाभ का विचार फैलाने के कारण सबके आराध्य देव हैं।

गणपति जी ने उत्तर दक्षिण और पूरब पश्चिम की संस्कृति को आपस में मिलाने का अद्भुत काम किया है। हमारे देश को स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए जब समाज के संगठन की आवश्यकता महसूस की गई, तब बाल गंगाधर तिलक को गणेश जी ने सबसे बड़ा कोई देवता नहीं मिला। बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव मनाने की जो राष्ट्रीय परंपरा एक बार डाल दी, वह आज 125 बरस पूरे होने के बाद भी निर्बाध रूप से चल रही है।

गणेश जी को लेकर कभी कोई विवाद नहीं है, क्योंकि यह सबके हैं और सब की सहायता करते हैं। वह सबके साथ चल देते हैं। वह किसी भी शुभारंभ के देवता हैं, तभी तो किसी काम आरंभ करने को ‘‘श्री गणेश करना’’ कहा जाता है। पार्थिव गणेश की स्थापना का अर्थ है कि हमने पार्थिव सत्ता को स्वीकार किया है, किंतु यह सत्ता अंतिम नहीं है। इससे भी आगे अभी कुछ और भी है और उसके भी आगे कुछ और है। जब तक हम एक सत्ता का विसर्जन नहीं करते, तब तक उसके आगे के साथ दिखाई नहीं देता, इसलिए गणेश विसर्जन का विचार सामने आया होगा।

पार्थिव गणपति की स्थापना, उनकी प्राण प्रतिष्ठा और फिर उनका विसर्जन ना जाने कितने सारे संदेश अपने पीछे छोड़ जाता है। महाकवि कालिदास जी की यह उक्ति कितनी महत्वपूर्ण है ‘‘आदानं हि विसर्गाय’’। इसका अर्थ है कि इस संसार से जो कुछ भी लेना है वह सब विसर्जित भी करना होगा फिर चाहे वह कितना भी प्रिय क्यों ना हो। यही सनातन चक्र है, जो अनवरत चलता रहता है। अतः विश्व का स्वभाव संचय में नहीं अपितु विसर्जन में है जो निरंतर विसर्जित होता रहता है वास्तव में वही चेतन है और जो एक जगह इकट्ठा हो जाता है वह जड़ बन जाता है।

सनातन धर्म ‘‘तेन त्यक्तेन भुज्जीथा ता गृधः कस्य स्विद्वनम’’ त्यागपूर्वक उपभोग करो, लालच मत करो, आखिर धन किसका है? इस उपनिषद वाक्य की आधारशिला पर खड़ा है। चाहे कैसी भी विषम परिस्थितियां हो, घना अंधेरा हो, दुख और दुर्भाग्य के कैसे भी बदल उमड़-घुमड़ रहे हों, चाहे कैसी नकारात्मक ऊर्जाओं से हमारा घर भर गया हो, निश्छल मन और पवित्र भाव से गजानन गणपति को बुला लीजिए। वह तत्काल ही आते हैं और सबकुछ एक उत्सव में बदल जाता है सब कुछ, जैसा कि आप चाहते हैं।

इसी परंपरा को ध्यान में रखते हुए गणेश महोत्सव अर्थात गणेश चतुर्थी मनाई जाती है जो कि अब धीरे-धीरे बड़े शहरों से निकलकर हमारे गांवों तक भी पहुंच चुकी है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।