धान के प्रमुख रोग एवं कीटों की पहचान और उनका नियंत्रण      Publish Date : 16/08/2024

              धान के प्रमुख रोग एवं कीटों की पहचान और उनका नियंत्रण

                                                                                                                                                 प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

                                                                   

विश्व की समस्त खाद्यान्न फसलों में धान का अपना एक विशिष्ट स्थान है। धान विश्व की लगभग आधी आबादी का भरण पोषण करता है। धान की फसल पर अनेक कीट रोग लगते हैं। भारत में धान की खेती लगभग 43 मिलियन हैक्टेयर रकबे में की जाती है। धान के प्रमुख कीट एवं रोग, उनकी पहचान तथा उनसे होने वाली हानि का विवरण निम्न प्रकार से हैं:-

1. भूरा फुदका (नीलोपर्वता ल्यूगेन्स):-

                                                                        

कीट की पहचानः- धान में लगने वाला यह कीट 3-4 मि.मि. तक लंबा होता है। प्रौढ़ हल्के से गहरे भूरे रंग के होते हैं। इनमें वयस्क कीट लघु एवं दीर्घ पंखी दोनों प्रकार के होते हैं। मादा कीट के उदर का आखिरी भाग गोलाकार होता है। नर कीट, मादा कीट की अपेक्षा पतले एवं गहरे रंग के होते हैं। यह कीट स्वभाव से आलसी होते हैं। विचलित करने या हाथ से छूने पर ये थोड़ा सा आगे खिसक जाते हैं।

हानि का प्रकारः- इस कीट की शिशु एवं प्रौढ़ दोनों अवस्थाओं में ही पौधे को हानि पहुंचाते हैं। ये पानी भरे खेत में ऊपर दिखने वाले फसल के भागों पर अपने सुई जैसी आकृति के मुखांगों को चुभाकर पौधे से रस चूसते हैं। जिससे पौधों की पत्तियाँ पीली पड़कर सूखने लगती हैं। इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर खेत में छोटे आकार के गोल घेरों में फसल झुलसी हुई और दबी दिखाई पड़ती हैं, जिसे हॉपर बर्न भी कहा जाता है। इस कीट का प्रकोप सितम्बर माह से बाली पकने की अवस्था तक होता है।

2. हरा माहू या फुदका (नेफोटेटिक्स जाति):- पिछले कुछ वर्षों से यह कीट एक गंभीर समस्या बन हुआ है। विशेषकर रीवा, ग्वालियर तथा छत्तीसगढ़ के रायपुर एवं बिलासपुर संभाग में इसका प्रकोप अधिक देखा गया है। सामान्यतः यह कीट धान की फसल में लगभग 5 से 20 प्रतिशत तक हानि पहुंचाता है।

कीट की पहचान:- इस कीट के प्रौढ़ कीट लगभग 3-5 मिमी. लंबे होते हैं। इनका चेहरा उभरा तथा आकार तिकोना होता है तथा यह कीट तिरछा चलता है। इन कीटों की श्रृंगिकाएं धागे के समान होती हैं। इस कीट की मुख्यतः दो प्रजातियां होती हैं।

निफोटेटिक्स निग्रोपिक्टसः- इनके सिर के ऊपरी भाग पर अर्धचंद्राकर काली लकीर होती है तथा अगले पंख के पिछले भाग पर काला धब्बा पाया जाता है।

निफोटेटिक्स व्हेरिसकेन्सः- इस प्रजाति के कीटों के सिर पर लकीर का अभाव होता है तथा इसके अगले पंख पर धब्बे की बजाय पैबंद होता है जो पंख के अंतिम छोर तक काले निशान फैले होते हैं। प्रौढ़ बड़ी संख्या में प्रकाश के प्रति आकर्षित होते हैं।

हानि का प्रकारः- यह कीट मुख्य तौर पर पत्तियों की निचली सतह पर रहते हैं। शिशु (निम्फ) एवं प्रौढ़ दोनों ही अवस्थाओं में पौधे से रस चूसते हैं। जिससे उनकी पत्तियां पीली पड़ जाती हैं एवं किनारे लाल होकर सूख जाते हैं। इस कीट का अधिक प्रकोप पौधों की बढ़वार में बाधा डालता है, जिससे पौधे छोटे रह जाते हैं। इसके साथ ही बालियां एवं दानों की संख्या कम हो जाती है। इस कीट द्वारा मधुरस स्रावित की जाती है जो काला फफूंद पैदा करती है। जिससे पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है।

इस कीट का प्रकोप प्रायः सितम्बर से जनवरी तक (अधिक आर्द्रता 70 से 80 प्रतिशत सामान्य तापक्रम 27 से 28 डिग्री. से.) कीट प्रकोप, सक्रियता तथा वृद्धि के लिये अनुकूल होता है।

3. सफेद फुदका या श्वेत पृष्ठ फुदका (सोगेटेला फुर्सीफेर):-

                                                                 

कीट की पहचानः इस कीट का प्रौढ़ नाव के आकार का होता है तथा इनकी पीठ पर सफेद रंग का धब्बा पाया जाता है। इनके पंख पारदर्शी होते हैं तथा पंख किनारे के मध्य में काला धब्बा पाया जाता है। इनके शिशु मटमैले रंग के होते हैं। प्रौढ़ नर कीट मादा की तुलना में पतला एवं गहरे रंग का होता है। इनमें मादा लघु एवं दीर्घ पंखी होती है। यह कीट बहुत सक्रिय होते हैं तथा हाथ लगाने पर तेजी से अलग हो जाता है।

हानि का प्रकारः- इस कीट की प्रौढ़ एवं शिशु अवस्था पत्ती के आधार भाग में झुंड बनाकर रस चूसते हैं। जिससे काला फफूंद पैदा होता है। जिसके कारण पौधों के आधार भाग काले दिखलाई पड़ते हैं। सामान्यतः अगस्त से अक्टूबर माह तक इस कीट का प्रकोप अधिक देखा गया है।

4. गंगई - ‘‘गालफ्लाई’’ (ओरिसोलिया ओराइजी):- यह मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में धान का विनाशक कीट है। मध्यप्रदेश में बालाघाट जिले में इस कीट का प्रकोप विशेष रुप से देखा गया है। इस कीट के द्वारा 5 से 50 प्रतिशत तक की हानि दर्ज की गई है। अधिक वर्षा वाले भागों तथा छिड़की गई धान की अपेक्षा रोपाई वाली धान में इसका अपेक्षाकृत अधिक प्रकोप देखा गया है।

कीट की पहचानः- इस कीट के प्रौढ़ आकार में मच्छर के समान होते हैं। इस कीट की मादा का उदर गुलाबी रंग का तथा नर सफेद से हल्के पीले रंग के होते हैं। इनकी प्रौढ़ (मक्खियां) रात्रि में 7 से 10 बजे तक सक्रिय रहती हैं और प्रकाश की ओर आकर्षित होती हैं। इनके अण्ड़ें पीली अथवा गुलाबी रंग की आभा लिए सफेद रंग और चावल के आकार के होते हैं। इस कीट की मैगट (इल्लियां) की होती है तथा शंख की अवस्था लाल रंग की और इसके पिछले भाग में काँटे होते हैं। जिनकी सहायता से यह पोंगा में ऊपर की ओर रेंग जाता है।

हानि का प्रकार:- गंगई मक्खी का आक्रमण प्रायः अगस्त से प्रारंभ हो जाता है। इसका मैगट (इल्ली) अण्डे से निकलने के 6 से 12 घंटे के अंदर विकसित होने वाले तने (कंसे) के अंदर पहुंचकर पौधे को हानि पहुंचाता है। जिससे ग्रसित तने के कक्ष का पत्रक गोल पोंगली (पोंगा) में बदल जाता है। पोंगा के ऊपरी सिरे पर छोटी पत्तियां रहती हैं। गंगई से ग्रसित पौधे में बालियां नहीं बनतीं।

5. गंधी कीट ‘गंधी बग’ (लेप्टोकोराइजा वेरीकोर्निस):- पिछले वर्षों में पूर्वी मध्यप्रदेश में इस कीट का प्रकोप अधिक देखा गया है। इस कीट की उपस्थिति का पता ग्रसित खेत से आने वाली विशेष प्रकार की दुर्गंध से आसानी से लगाया जा सकता है।

कीट की पहचानः- इस कीट के शरीर से विशेष प्रकार की दुर्गंध आती है। इसलिये इसे गंधी कीड़ा भी कहते हैं। इस कीट के अंडे गहरे लाल भूरे या फिर दूधिया रंग के होते हैं तथा उनके मध्य भाग में एक गड्ढा होता है। जबकि इसके प्रौढ़ हरापन लिये पीले रंग का होता है। इसकी टांगे पतली एवं शरीर से लंबी होती है।

इस कीट के शरीर के पश्च भाग में ग्रथियां होती हैं। इन्हें छेड़ने पर यह आवाज करके उड़ता है। यह कीट सुबह एवं शाम के समय अधिक सक्रिय होता है। जबकि दिन के समय पत्तियों तथा घास में छिप जाता है।

हानि का प्रकारः- इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही फसल को हानि पहुंचाते हैं। यह कीट पत्तियों का रस चूसते हैं जिससे उन पर छोटे-छोटे सफेद धब्बे पड़ जाते हैं तथा बाली पीली पड़कर कमजोर रह जाती है। जिससे बाली में दाना नहीं भरता अथवा कमजोर और सिकुड़ा हुआ दाना बनता है। इस प्रकार यह कीट धान की गुणवत्ता तथा मात्रा दोनों को हानि पहुंचाता है।

6. तनाछेदक (ट्राइपोराइजा इंसर्टुलस):- भारत में कोई आधा दर्जन से अधिक इल्लियों का धान की फसल पर आक्रमण होता है। जिसमें मध्यप्रदेश में मुख्यतः तना छेदक जाति का आक्रमण विशेष रुप से होता है। अत्यधिक प्रकोप की स्थिति में इस कीट द्वारा 20 से 44 प्रतिशत तक हानि होती है।

कीट की पहचानः- इस कीट की इल्ली सफेद-पीले रंग की होती है तथा इसका शरीर चिकना होता है। पूर्ण विकसित इल्ली 2 से 3 मि.मी. लंबी होती है। प्रौढ़ पंखी हल्के रंग की होती है।

इसके मुखांग नुकीले तथा ऊपर की ओर उठे रहते हैं। मादा के अगले पंखों के शीर्ष भाग के किनारे पर एक काला धब्बा होता है। जबकि नर पंखी में इसका अभाव रहता है। यह कीट प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं।

हानि का प्रकारः- इस कीट की इल्ली अवस्था फसल के लिये अधिक हानिकारक होती है। इसका प्रकोप नर्सरी से लेकर पकते समय तक होता है। इल्ली तने के अंदर पहुंच जाती है। जिसके कारण मध्य कलिका सूख जाती है और मृत केंद्र बन जाता है।

फूल आते समय फसल पर कीट का प्रकोप होने से बालियां सफेद रंग की ओर पोची रह जाती हैं।

इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर फसल में 44 प्रतिशत तक की हानि दर्ज की गई है, तना छेदक से ग्रस्त तना खींचने पर आसानी से निकल आता है तथा तने के अंदर इल्ली अथवा इसकी विष्ठा नजर आती है। प्रायः देखा गया है कि फसल में नाइट्रोजन की अधिकता के चलते इस कीट का प्रकोप अधिक होता है।

सामान्यतः इस कीट का प्रकोप अगस्त-सितंबर से लेकर जनवरी तक होता है। फसल की 5 प्रतिशत तक बालियां इस कीट के द्वारा ग्रसित होने पर फसल आर्थिक क्षति की अवस्था में होती है। अतः इस कीट की रोकथाम के उपाय समय रहते ही किए जाने चाहिए।

7. पत्ती लपेटक (नेफ्रेलोक्रोसिस मेडिनोलिस):-

                                                                              

कीट की पहचानः- इस कीट के प्रौढ़ पीले भूरे रंग या हल्की बादामी रंग के होते हैं। इनके पंखों पर काले भूरे रंग की लहरदार धारियां होती हैं। पंखों के किनारे काले रंग के होते हैं। नर प्रौढ़ कीट का उदर नुकीला तथा पिछले भाग में बालों का गुच्छा लिये होता है। इल्ली चमकीले हरे पीले रंग की तथा इनका सिर भूरे रंग का होता है। ये इल्लियां छूने पर सक्रिय होकर फड़फड़ाने लगती हैं। प्रौढ़ कीट रात्रि काल में प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं।

हानि का प्रकारः इस कीट का प्रकोप होने पर खेत में पौधों की पत्तियां सफेद धारीदार और मुड़ी हुई दिखाई देने लगती हैं। इस कीट की इल्लियां पत्ती की नोक को उसके चौड़े भाग अथवा दो पत्तियों को लार द्वारा स्रावित चिकने पदार्थ द्वारा चिपका लेती हैं और इस प्रकार खोल बनाकर इल्ली उसके अंदर रहकर पत्ती के हरे भाग को खाती हैं। इससे कारण पत्तियों में सफेद रंग की धारियां बन जाती हैं। कीट के द्वारा ग्रसित पत्तियां बाद में सूखकर मुरझा जाती है।

8. फौजी कटुआ इल्ली (मिथिम्ना):- हमारे प्रदेश में फौजी कटुआ इल्ली धान का बहुत ही खतरनाक कीट है जिसे फौजी कीट भी कहते हैं। इस कीट का अत्यधिक प्रकोप है। धान की बालियों पर समूह में आक्रमण के कारण इन्हें फौजी कीट कहते हैं। इस कीट का अत्याधिक प्रकोप होने पर यह कीट धान की उपज में 12 से 15 क्विंटल/हैक्टेयर तक की हानि होती है। पिछले कुछ वर्षों से जबलपुर संभाग में इस कीट का प्रकोप देखने को मिला है।

धान के अतिरिक्त यह कीट ज्वार, बाजरा, मक्का, गन्ना, कोदो, जौ, राई तथा गेहूं आदि फसलों को भी नुकसान पहुंचाता है।

कीट की पहचानः- इस कीट के प्रौढ़ मटमैले भूरे रंग के होते हैं। इस कीट की पूर्ण विकसित इल्ली 3 से 4 मि.मी. लंबे हरे से मटमैले रंग की तथा चिकनी होती है। इनका सिर गहरे हरे रंग तथा शरीर पर तीन भूरे रंग की धारियां होती हैं। जमीन पर गिरने के बाद यह इल्लियां गोल रूप धारण कर लेती हैं।

हानि का प्रकारः- इस कीट की इल्ली अवस्था ही फसल को हानि पहुंचाती हैं। सामान्यतः यह इल्लियां पत्तियों को खाती हैं तथा फसल की बालियां आने पर उन्हें काट कर गिरा देती हैं जिससे कभी-कभी दाने बिखर जाते हैं। ये इल्लियां दिन में कंसों के बीच या जमीन में छिपी रहती हैं। बालियों पर ये समूह में आक्रमण करती हैं। अतः इन्हें फौजी कीट भी कहा जाता है।

9. कोष कृमि बंकी (निम्फुला डिंपटालिस):- पिछले कुछ वर्षों से इस कीट का प्रकोप अधिक देखा गया है। यह कीट खरीफ एवं रबी धान दोनों पर ही आक्रमण करता है। छत्तीसगढ़ के अलावा प्रदेश के जबलपुर संभाग में भी इस कीट का प्रकोप अधिक देखा गया है। देर से रोपाई की गई धान तथा निचली सतह वाले खेत जहां पानी अधिक भरा रहता हो, इस कीट का प्रकोप अधिक देखा गया है।

कीट की पहचान:- इस कीट का प्रौढ़ छोटा दूध की तरह सफेद एवं बहुत नाजुक होता है। इल्ली का रंग हरा पारदर्शक और सिर हल्के पीले नारंगी रंग का होता है। इल्ली के दोनों पार्श्व भागों पर धागे के समान गिल्स होते हैं। जिनकी सहायता से यह पानी से ऑक्सीजन लेता है। रात्रि में यह कीट प्रकाश की ओर आकर्षित होता है।

हानि का प्रकार:- धान की रोपाई के 25 से 30 दिन बाद इस कीट का प्रकोप प्रारंभ होता है। मुख्यतरू इल्ली अवस्था ही हानिकारक होती है। जो पत्तियों के किनारे को रेशमी धागे (जो यहां से निकलती है) के द्वारा लपेटकर खोल बनाती है। इल्ली इन खोलों को काट देती है। पत्ती के ऊपरी सिरे या मध्य में धारियां बन जाती हैं। कीट का प्रकोप सामान्यतः सितम्बर से अक्टूबर माह तक तथा देर से रोपी गई फसल में नवम्बर-दिसम्बर माह में होता है।

10. हिस्पा (डाइक्लोरोडिस्पा, हिस्पा आर्मीजेरा):- यह कीट खरीफ तथा रबी धान दोनों पर आक्रमण करता है। मध्यप्रदेश के जबलपुर संभाग में इसका प्रकोप अधिक देखा गया है।

कीट की पहचान:- इस कीट का प्रौढ़ एवं शिशु दोनों ही अवस्थाऐं हानि पहुंचाती हैं। शिशु हल्के पीले रंग के तथा उनकी ऊपरी सतह दबी रहती है और ये पत्तियों में सुरंग बनाये हुये पाये जाते हैं। प्रौढ़ कीट काले रंग के होते हैं तथा इनके शरीर पर कांटे पाये जाते हैं।

हानि का प्रकार:- शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही फसल को हानि पहुंचाते हैं। शिशु धान की पत्तियों को खुरचकर हरे पदार्थ को खाते हैं। जिससे पत्ती पर सफेद धारियां बन जाती हैं। अत्यधिक प्रकोप होने पर फसल भूरी पड़ जाती है तथा 20 से 50 प्रतिशत तक की क्षति होती है।

11. धान की सींग वाली इल्ली:- यह कीट धान की तिल्ली के नाम से भी जाना जाता है। धान के अलावा यह गन्ना तथा ज्वार की फसल पर आक्रमण करता है।

कीट की पहचान:- इस कीट की इल्ली हल्के रंग की होती है तथा उसके सिरे पर दो लंबी अंगिकाएं पाई जाती है, जो अन्य इल्लियों की तुलना में लंबाई में अधिक होती है। पूर्ण विकसित इल्ली 30 से 45 मि.मी. लंबी होती है। इल्ली बादामी गहरे भूरे रंग के पंख लिये होती है। जिनके अगले पंखों पर आंख का चिन्ह तथा पिछले पंखों पर नेत्र समान धब्बे पाये जाते हैं इस कीट की शंखी हल्के हरे रंग की पत्तियों की निचली सतह में एक डंठल से लटकी रहती है।

हानि का प्रकारः- कीट की इल्ली अवस्था ही हानिकारक होती है। यह इल्ली पत्तियों को किनारे से अंदर की तरह काटती है। इल्लियां धान के कांसे निकलने से बालियां बड़ी होने तक हानि कर सकती हैं।

साधारणतः इसका प्रकोप कम होता है, परंतु कभी-कभी यह कीट अति प्रकोप का रुप धारण कर सकता है। जैसा कि सन 1967 में में अगस्त-सितम्बर एवं अक्टूबर माह में क्रमशः 28.0, 30.75 एवं 26.95 प्रतिशत कंसे इस कीट द्वारा ग्रसित पाये गये थे। धान की विभिन्न अवस्थाओं में इस कीट का प्रकोप होता है।

कीट का प्रकोप:- धान की फसल पर विभिन्न अवस्थाओं में किये गये अनुसंधान एवं सर्वेक्षण के मुताबिक इस फसल पर हानि पहुंचाने वाले प्रमुख कीट एवं फसल की कीट प्रकोप के प्रति संवेदनशील अवस्थाएं इस प्रकार हैं:-

हानिकारक कीट का सर्वेक्षणः-

                                                                        

खेत में हानिकारक कीटों के प्रकोप तथा जैव आर्थिक क्षति स्तर (ई.टी.एल.)

क्र. कीट का नाम 1. सफेद पृष्ठ फुदका 2. हरा फुदका

3. भूरा फुदका 4. पत्ती मोड़क कीट

फाका - धान टिड्डा (हीरोग्लाइफस बेनियान):’- धान के टिड्डे का प्रकोप कहीं-कहीं पर छुटपुट रुप से देखा गया है। इसे फड़के के नाम से भी पुकारा जाता है। जिन वर्षों में सूखा पड़ता है, उन वर्षों में इसके प्रकोप की संभावना अधिक रहती है। धान के अलावा यह गन्ना, ज्वार, कोदो तथा मक्का इत्यादि फसलों पर भी आक्रमण करता है।

हानि का प्रकार:- शिशु एवं प्रौढ़ टिड्डा दोनों ही फसल के तने एवं पत्तियों को कुतर-कुतर कर नुकसान पहुंचाते हैं। जिससे पौधे कमजोर होकर सूखने लगते हैं। इस प्रकार पैदावार में कमी आती है। अधिक प्रकोप होने पर केवल 16 गाल मिज पत्तियों की शिराएं रह जाती हैं तथा पौधे का सिर्फ ढांचा भर खड़ा रहता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।