बायोपेस्टीसाइड: पौधे संरक्षण में एक क्रान्ति Publish Date : 14/04/2024
बायोपेस्टीसाइड: पौधे संरक्षण में एक क्रान्ति
डॉ0 आर. एस. सेंगर
प्रकृति मंे रहने वाले प्रत्येक जीव में अन्य जीव के प्रति प्रतिस्पर्धा (कम्पीटीशन), परजीवी (पेरासिटिज्म) या परभक्षीपन (प्रीडकशन) की आदत पाई जाती है। वेद में कहा भी गया है कि जीव जीवस्य भोजनम्। अगर इस सिद्धान्त को सही ढंग से समझ लिया जाये तो अन्ततः ऐसी क्षमतायें/अवसर हमें मिलेंगे, जिनके प्रयोग से हम अपनी खाद्यान्न फसलों को आनिकारक जीवों के आर्थिक नुकसान से न केवल बखूबी बचा सकते हैं, बल्कि प्राकृतिक वातावरण में संश्लेषित नाशानाशी (सिंथेटिक पेस्टीसाइड्स) का बोझ भी कम कर सकते हैं, साथ ही अनेकों तरह के प्रदूषण की समस्यायें भी कम हो सकती हैं। प्रकृति ने अपने भण्डार में लाभप्रद एवं हानिकारक जीव इकट्ठा कर रखे हैं, कोशिश लाभप्रद जीवों के खोज संरक्षण एवं उपयोग की होनी चाहिये।
बायोपेस्टीसाइड्स - वे सभी जीव, जिनका उत्पादन प्रयोगशाला में वृहत स्तर पर होता है और इनका प्रयोग फसल के हानिकारक जीवों (पेस्ट) के नियंत्रण में होता है, बायो पेस्टीसाइड कहलाते हैं। उदाहरणार्थ लाभकारी कीट जातियों, जीवाणु, विषाणु, फफूंद, प्रोटोजोओ एवं निमेटोड इत्यादि।
बायोपेस्टीसाइड का व्यवसायिक स्तर - विश्व खुली बाजार व्यवस्था एवं संश्लेषित कृषि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग, ये दोनों पौध संरक्षण की नई दिशा में महत्वपूर्ण भागीदारी अदा कर रहे हैं। प्रत्येक खाद्यान्न, दुग्ध पदार्थ एवं मांस रसायनों से इस कदर प्रभावित हो चुके हैं कि उनमें विश्व खाद्य संगठन द्वारा निर्धारित मानक स्तर (परमिसिबल लिमिट) से अधिक कृषि रसायन पाये जाते हैं। सन् 1939 में डी.डी.टी. की खोज के समय प्रत्येक हानिकर कीट डी.डी.टी. से मर जाता था, लेकिन आज इनकी 600 कीट जातियां, इनके एक या अधिक के प्रति प्रतिरोध क्षमता विकसित कर चुकी है एवं 12 कीट जातियां सभी विकसित कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोध की क्षमता रखती है। इन सभी मानव निर्मित आपदाओं का हल बायोपेस्टीसाइड के प्रयोग से ही हो सकता है।
सन् 1990 में बायोपेस्टीसाइड की बिक्री संश्लेषित रसायनों की तुलना में केवल 0.5 प्रतिशत तक ही सीमित थी और उसमें भी 90 प्रतिशत अकेले बैसिलस थ्यूरिनजियेन्सिस (बी.टी.) जीवाणु प्रयोग में लिये गये। लेकिन इस स्थिति का सुखद पहलू यह है कि संश्लेषित कृषि रसायनों का बाजार जहां एक ओर स्थिर हो गया है, वहीं बायोपेस्टीसाइड का प्रयोग प्रतिवर्ष 10 से 25 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है।
बायोपेस्टीसाइड के प्रमुख अवगुण - बायोपेस्टीसाइड के प्रयोग को व्यापक बनाने में अनेकों परेशानियां आ रही हैं, जो निम्न हैं:
1. विश्वसनीयता (रिलायबिलिटी): बायोपेस्टीसाइड के प्रभाव में स्थिरता न होने के कारण किसान इनको सदैव शंकालु नजरों से देखता है। वहीं सजीव होने के कारण इन पर विभिन्न वातावरणीय कारक, जैसे तापक्रम, नमी, पी.एच., पैराबैगनी किरणें (अल्ट्रावायलट रेज) एवं मृदीय कारकों का भी विपरीत प्रभाव पड़ता है, जिससे इनकी क्षमता कम हो जाती है।
2. प्राकृतिक संख्या नियंत्रण: कृषि तंत्र में बायोपेस्टीसाइड के प्रयोग में लेने पर (इनोकुलेशन) इनकी संख्या सदैव बढ़ती रहती है, लेकिन जब संख्या एक निश्चित सीमा पार कर जाती है तो मृदा में पाये जाने वाले अन्य जीव इनकी संख्या को नियंत्रित करना शुरू कर देते हैं, जिसे जनसंख्या वृद्धि पर स्व नियंत्रण (वफरिंग इफेक्ट ऑन पोपूलेशन इन्क्रीज) भी कहते हैं।
3. सीमित प्रभाव (हायली स्पेसिफिक): बायोपेस्टीसाइड कुछ विशेष कीट एवं व्याधियों की जाति के प्रति प्रभावी होने के कारण किसान इनके प्रयोग को प्रमुखता नहीं देते हैं। कृषक बहुआयामी (ब्रांड स्पेक्ट्रम) पेस्टीसाइड ज्यादा प्रयोग करते हैं। लिहाजा इसका यह गुण भी इसके व्यवसायीकरण में बाधा बना हुआ है। बायोपेस्टीसाइड से लाभकारी जीव प्रभावित नहीं होते, फलस्वरूप कृषि तंत्र स्वयं हानिकर जीवों के नियंत्रण में सक्षम रहता है। बायोपेस्टीसाइड से हानिकर जीवों की मृत्यु धीरे-धीरे होती है, जबकि कृषक तुरन्त प्रभाव देने वाले तत्वों/रसायनों का प्रयोग ज्यादा अच्छा समझता है।
4. प्रभावी जीवन (शेल्फ लाईफ): बायोपेस्टीसाइड, पेस्टीसाइड की तुलना में बहुत कम समय के लिये प्रभावी रहते हैं। सामान्य दशा में वितरण प्रणाली केग तहत बाजार में इनके एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचते-पहुंचते ही इनका प्रभावी जीवन या तो खत्म हो जाता है या फिर खत्म होने के समीप होता है। इस कारण भी इनका व्यवसायीकरण प्रभावित है।
5. संगतता: सामान्यतया बायोपेस्टीसाइड की संगतता (कम्पेटेबिलिटी) प्स्टीसाइड के साथ बहुत कम है। जैसे ट्राइकोडर्मा/वर्टीसीलियम पर आधारित फफूंदनाशी (बायोपेस्टीसाइड) रासायनिक फफूंदनाशी (सिंथेटिक फन्जीसाइड्स) के साथ मिलकर प्रयोग में नहीं लिये जा सकते। इसी प्रकार परजीवी एवं परभक्षी कीट को खेत में छोड़ने पर कीटनाशकों (इन्सेक्टीसाइड्स) का प्रयोग नहीं कर सकते हैं।
बायोपेस्टसाइड के लाभ - बायोपेस्टीसाइड के व्यापक होने में परेशानियों के बावजूद प्रत्येक देश की सरकार इनके प्रयोग को बढ़ाने पर जोर दे रही है। इसके पीछे विभिन्न कारण हैं, जोकि बायोपेस्टीसाइड के व्यवसायीकरण का प्रमुख आधार हो सकते हैं, जो निम्न हैं:
शोध खर्च: संश्लेषित कृषि रसायनों के एक उत्पाद को खोजकर बाजार तक लाने में अनुमानतः 36 अरब रूपये खर्च होते हैं, जबककि इसके विपरीत बायोपेस्टीसाइड के एक जाति की खोज में कुल 9 करोड रूपये ही खर्च होते हैं, अतः बायोपेस्टीसाइड, अनुसंधान पेस्टीसाइड की तुलना में बहुत सस्ता है।
उत्पाद विकास दर (प्रोडक्ट डेवलपमेन्ट रेट): बायोपेस्टीसाइड की तुलना में संश्लेषित पेस्टीसाइड की खोज अत्यन्त कठिन है। पाल बी रोजर्स (1993) के आलेख के अनुसार 1970-72 में प्रयोशाला मंे खोज किये गये 5 हजार रसायनों में से एक ही तत्व कीटनाशक गुण इन्सेक्टीसाइडल प्रोपर्टी) वाला मिल पाता है, जबकि यह दर 1990-93 में और भी घट गयी। उनके अनुसार यह संभावना 20 हजार तत्वों में एक सी है। ठीक उसी प्रकार कृषि रसायन विभाग में खर्च प्रतिवर्ष 3.1 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है, जबकि इनका बाजार केवल 2 प्रतिशत की दर से ही प्रतिवर्ष बढ़ रहा है।
पंजीकरण शुल्क (रजिस्ट्रेशन चार्जेज): संश्लेषित कृषि रसायनों के दुष्प्रभावों को देखते हुये प्रत्येक देश की सरकारें इनके पंजीकरण में काफी विश्वस्त होने के बाद ही निर्णय लेती हैं। साथी ही पंजीकरण कीमत भी बहुत अधिक रखी जाती है। अमेरिकन एवं यूरोपीय देशों में जहां संश्लेषित रसायनों के पंजीकरण देशों में 9 अरब रुपये खर्च होते हैं, वहीं बायोपेस्टीसाइड के पंजीकरण में कुल 90 लाख रुपये ही व्यय होते हैं।
चयनित प्रभाव (सिलेक्टीविटी): बायोपेस्टीसाइड हानिकर जीवों की कुछ विशेष जातियों के विरूद्ध ही सीमित होने के कारण इनसे विकसित होने वाली प्रतिरोध क्षमता नगण्य रहती है। इसके अतिरिक्त खाद्य पदार्थों में रसायन अवशेष एवं जीव जन्तुओं को प्रदूषण का खतरा भी नहीं रहता है।
बायोपेस्टीसाइड में नवीन अनुसंधान एवं विकास: बायोपेस्टीसाइड को व्यापक व्यवसायिक रूप प्रदान करने के लिये नये‘नये अनुसंधान प्रगति पर हैं। कुछ लोग इनको कृषि रसायन की तुलना में कम प्रभावी कहते हैं, जबकि बेसिल्स थ्यूरिनजियेसिन्स (बी.टी.) से विकसित हुये प्रोटीन जहर में संश्लेषित पायरेथ्राइडस की तुलना में 300 गुना एवं कार्बनिक फास्फेट की तुलना में 80 हजार गुना अधिक प्रभावी कीट नियंत्रण पाया गया है। इसी प्रकार सायडिया पोमोनेल ग्रैनुलोसिस विषणु बी.टी. की अपेक्षा 10 हजार गुना अधिक प्रभावी होता है। वैज्ञानिक नवीन एवं फलदायक अनुसंधान सतत् कर रहे हैं। बायोपेस्टीसाइड में अनुवांशिक बदलाव (जिनेटिक मेनीपुलेशन) करके इनके प्रभाव को और अधिक किया जा रहा है। जैसे बंदगोभी कुण्डलक सूंडी (ट्राइकोप्लूसिया निजी) ग्रैनुलोसिस विषाणु के प्रभावी कारक वी.ई.एफ. (एनहान्सिंग फेक्टर वी.ई.एफ.) को पहचान लिया गया है, जिससे कीटों के विरूद्ध इसको अधिक कारगर बनाया जा सके। इसी तरह वी.ई.एफ. के जीन कोडिंग के क्र को पहचान कर इसका क्लोन भी बना लिया गयाह ै जिसे चने की सूंडी के ग्रैनुलोसिस विषाणु में प्रवेश भी करा दिया गया है।
वैज्ञानिकों को बी.टी. की उच्च ताप सहनशील अवस्थाविपरीत करने में मदद मिली है। इसी प्रकार पैरावैंगनी किरणों (यू.वी. लाइट) से इनके प्रभाव को नष्ट न हाने के लिये भी कई रसायन खोज लिये गये हैं। जैसे लिग्नोसल्फोनेट्स (सनस्क्रीन) और स्टिलवीड डाईसल्फोनिक अम्ल (आप्टिकल ब्राइटनर्स), इसके अलावा (जेनेटिक मेनीपुलेशन) के द्वारा पराबैंगनी किरणों को सहन करने की क्षमता भी बी.टी. में विकसित की जा रही है।
बायोपेस्टीसाइड के अन्य घटक जैसे फफूंद एवं बीजाणुओं को कार्य करने के लिये उच्च आर्द्रता (हाई ह््यूमिडिटी) की जरूरत पड़ती है। अब ऐसे नुस्खे (इनवर्ट इमल्शन) विकसित हो चुके हैं, जिससे इनका अंकुरण आसान हो जायेगा और इनके कार्य करने में सहजता होगी। बी.टी. को कई कीट जातियों के प्रति कारगर बनाने के लिये कार्य शुरू हो चुका है। उदाहरणस्वरूप बी.टी. वैराइटी ऐजावाई प्रभेद एच.डी. 191 को बी.टी. वैराइटी कुर्सटाकी प्रभेद एच.डी. 135 के साथ संभाग कराकर एक नयी प्रभेद जी.सी. 91 विकसित की गई है, जोकि हेलिओथिस जातियां, स्पोडोप्टेरा लिट्टोरेलिस एवं मैमेस्ट्रा बेसिकी के लिये अत्यन्त प्रभावी है।
बायोपेस्टीसाइड के व्यवसायीकरण में प्रमुख बाधक इनके बनाने में आने वाली अधिक लागत से थी, लेकिन वैज्ञानिकों ने ऐसे तरीके ढूंढ लिये हैं, जिनके माध्यम से अब इनका उत्पादन सस्ते दर में एवं कम समय में अधिक उत्पादन किया जा सकेेगा। ये जीवित जीव होने के केारण एक महत्वपूर्ण बाधा यह है कि इनको कृषि रसायनों की तरह बाजार में वितरित नहीं किया जा सकता है। साथ ही इनका प्रभावी जीवन भी कृषि रसायनों की तुलना में काफी कम है। वैज्ञानिक इस दिशा मंे प्रयासरत हैं और उन्हें कुछ सफलता भी मिली है।
बायोपेस्टीसाइड के प्रयोग:
कीट नियंत्रण में प्रयोग होने वाले प्रमुख बायोपेस्टीसाइड:-
जीवाणु - वैसिलस थयूरिनजियेन्सिस वैरा, कुर्सटाकी, ऐजावाई, इजरायलेन्सिस, टेनीब्रायोनिस, कालूगेट स्यूडोमोनास फ्लूरेसेन्स बी.टी. टाक्सिन, सेरेसिया, इण्टोमोफिल।
फफूंद - वर्टीसिलियम लेसेनाई, मेटाराइजियम एनाइसोपिली, बेवेरिया बैजियाना।
निमेटोड - हेट्रोरैबाडिटिस जाति, स्टेनरनिया जाति।
प्रोटोजोआ - नोसिमा लोक्स्टी।
विषाणु - विभिन्न न्यूक्लियर पालीहेड्रोसिस विषाणु, ग्रेनुलोसिस विषाणु।
लाभकारी कीट - ट्राइकोग्रैसा जाति, इनकार्सिया फार्मोसा, क्राइसोपा कार्निया, क्रिप्टोलेमस मोन्ट्रजिरी।
फफूंद नियंत्रण में प्रयोग होने वाले प्रमुख बायोपेस्टसाइड:
जीवाणु: स्ट्रेप्टोमाइसीज ग्राइसोविरिडिस।
फफूंद - ग्लायोक्लैडियम वायरेन्स, ट्राइकोडर्मा जाति, पेनिओफोरा जाइगैन्टिया।
जीवाणु नियंत्रण मंे प्रयोग होने वाले बायोपेस्टीसाइड:
जीवाणु - एग्रोबैक्टीरियम हैडियोबेक्टर, स्यूडोमोनास फ्लूरेसेन्स।
खरपतवार नियंत्रण मंे प्रयोग होने वाले बायोपेस्टीसाइड:
फफूंद - फाइटोपथोरा पामीवोरा, कालेटोट्राइकम ग्लेस्पोराइडिस।
लाभकारी कीट - कैक्टोब्लास्टिस कैक्टोरम, डैक्टीलोपिअस सीलेनिकस, टेलिओनिया स्क्रूपुलोसा, ओफियोमैइया लैन्टानी, क्राइसोलिना जाति इत्यादि।
भारत में बायोपेस्टीसाइड बनाने वाली कंपनियां:
परजीवी व परभक्षी (पेरासाइड्स व प्रिडटर्स) -
1. बायोकन्ट्रोल लैबोरेट्रजी - सिम्भावली शुगर मिल, सिम्भावली - 241002 (उ.प्र.)।
2. तामिलनाडू कोआपरेटिव शुगर फेडरेशन मेन बायो कन्ट्रोल रिसर्च लैबोरेट्री-राजेश्वरी वेदाचलम सड़क-चेगलपट्टू-603001 (तामिलनाडू)।
3. जे.पी. बायोअैक्स 25, चेन्नइया स्कूल स्ट्रीट, विरधनगर-603001 (तामिलनाडू)।
4. नाथकप बायोकन्ट्रोल लैबोरेटरी 55, श्रीराम नगर, वर्धा रोड, नागपुर।
5. बासारेश बायोकन्ट्रोल रिसर्च लैबोरेट्री, 3/204, मेन रोडद्य, पेन्नादनम आर.एस.-606111 (तामिलनाडू)।
6. बायोकन्ट्रोल रिसर्च लैबोरटरी पी.बी. नं. 3228, 479, बंगलौर-560032
7. ग्रीन टेक एग्रोप्राडक्टस लिमिटेड, 47-डी. राजाजी रोड, रामनगर, कोयम्बटूर।
8. इकोमैक्स एग्रोसिस्टम लिमिटेड इण्डस्ट्रीयल एश्योरेन्स बिल्डिंग, चर्चगेट, मुम्बई-400020
9. मेसर्स-सोम आई.पी.एम. सिस्टेम (इंडिया) लिमिटेड, फ्लैट नंबर 2, केमसोन अपार्टमेन्ट्सव, अमीरपेट, हैदराबाद-500016
10. बायोटेक उण्टरनेशनल लिमिटेड,
बी.आई.पी.पी.एस, सेंटर, 2 लोकल शापिंग सेन्टर, ग्रेटर कैलाश-2, नई दिल्ली-110048
11. इन्दौर बायोटेक इनपुट्स और रिसर्च प्रा॰ लि॰
6, सिख मोहल्ला, मेन रोड, इन्दौर-452007 (म.प्र.)
12. सरकारी संस्थान:- भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, केन्द्रीय समेकित नाशीजीव प्रबन्ध केन्द्र, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, प्रोजेक्ट निदेशालय जैविक नियंत्रण, भारतीय उद्यान अनुसंधान संस्थान, आन्ध्र प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय।
जीवाणु नुस्खे:-
1. ल्यूपिन लैबोट्री लिमिटेड
15़9, सी.एस.टी. रोड कालिमा, शान्ताक्रुज (पूर्व) मुम्बई-400098
2. भारतीय रासायनिक प्रौद्यागिकी संस्थान,
उप्पल रोड, हैदराबाद-500007।
3. नोवार्टिस (इंडिया) लिमिटेड
एग्रो डिवीजन, सैण्डोज हाउस, डा॰ एनी बेसेन्ट रोड़, वर्ली, मुम्बई-400015
4. हिन्दुस्तान इन्सेक्टीसाइड लिमिटेड
स्कोप काम्पलेक्स, कोर-6, द्वितीय तल, लोदी रोड, नई दिल्ली-110003।
5. रैलिज इंडिया लिमिटेड
एग्रो केमिकल स्टेशन, प्लाटन नं॰ 21822, फेस-2, पीनया इण्डस्ट्रीयल एरिया, पो॰ बाक्स नं॰-5813, बंगलौर-560058।
6. वोकहार्ट लिमिटेड,
रेडीमनी टेरेसटेरेस, 167, डा॰ एनी बेसेन्ट रोड, मुम्बई-400018
7. इन्दौर बायोटेक इनपुट्स और रिसर्च, इन्दौर (म.प्र.)
एन.पी.वी. नुस्खे:-
1. पेस्ट कंट्रोल इण्डिया लिमिटेड
यूसुफ बिल्डिंग एम.जी. रोड, मुम्बई-400001।
2. बायोकन्ट्रोल रिसर्च लैबोरेट्री,
बंगलौर-560032
3. बायोटेक इंटरनेशनल लिमिटेड,
नई दिल्ली-110048
4. टी स्टेन्स एण्ड कम्पनी
8/23, रेस कोर्स रोड, कोयम्बटूर-641018
5. सन एग्रो इण्डस्ट्रीज
178, 9वी क्रास रोड, मंगल नगर, पोस्ट चेन्नई - 600016
6. सोम आई.पी.एम. लिमिटेड
निमेटोड:-
1. इकोमैक्स एग्रोसिस्टम लिमिटेड।
फफूंद नुस्खे:-
1. प्रेसियेन्ट इण्डस्ट्रीज लिमिटेड
पो.बा. नं-20, उदयसागर रोड, उदयपुर-310001 (राज॰)
2. बायो इर्रा टेक्नोलोजी,
12, श्री राम एपार्टमेन्ट्स, दीनदयाल नगर, रिंग रोड, नागपुर-22
3. भारतीय रसायन प्रौद्योगिकी संस्थान हैदराबाद।
विश्व समुदाय के समन्वित नाशीजीव प्रबन्धन एवं बायोपेस्टीसाइड के उपयोग पर जोर देने की वजह से एक बात तो स्पष्ट है कि आगे आने वाला पौध संरक्षण का दौर बायोपेस्टीसाइड का होगा, केवल हमें इनकी कारगुजारियों पर विश्वास करना होगा।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।