पर्वतीय क्षेत्रों में समन्वित मछलीपालन      Publish Date : 20/02/2025

                         पर्वतीय क्षेत्रों में समन्वित मछलीपालन

                                                                                                                                     प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

‘‘पर्वतीय क्षेत्रों की कठिन भौगोलिक परिस्थितियाँ एवं कृषि के वर्षा आधारित होने के कारण कृषि उत्पादकता काफी कम है। अतः इस क्षेत्र के किसानों के लिए ऐसी तकनीक विकसित करने की आवश्यकता है, जिससे कम क्षेत्रफल में अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सके। ऐसे क्षेत्रों में मत्स्यपालन के साथ-साथ मुर्गीपालन तथा सब्जी उत्पादन की समन्वित प्रणाली कारगर हो सकती है। इससे कृषकों को कम लागत में मछली के अतिरिक्त सब्जी, मुर्गी का मांस व अण्डे के रूप में पौष्टिक एवं प्रोटीनयुक्त आहार भी प्राप्त हो सकते हैं।

                                                            

यह पद्वति अपशिष्ट पदार्थों के पुनरावर्तन एवं उनके निदान के लिए सर्वोत्तम है। इस पद्वति से भूमि और जल संसाधनों का कुशल उपयोग करना सुनिश्चित होता है।’’

समन्वित मछलीपालन, पर्वतीय क्षेत्रों के निवासियों के लिए खाद्य एव आजीविका सुरक्षा के अंतर्गत महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है। उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में औसत भूमि जोत का आकार 0.98 हैक्टर है, जबकि राष्ट्रीय औसत 1.57 हैक्टर है। राज्य के पर्वतीय जिलों में तो भूमि जोत का आकार बहुत कम है। इन क्षेत्रों में अधिकांश किसानों के खेत छोटे व बिखरे हुए होते हैं। ऐसी स्थिति में यहां के किसानों के लिए उन्नत तकनीक विकसित करने की नितांत आवश्यक है। इससे कम क्षेत्रफल में अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

जहां मध्यम ऊंचाई के पर्वतीय एवं घाटी वाले क्षेत्रों में जल की प्रचुरता है। वहां छोटे-छोटे तालाब बनाकर मत्स्यपालन शुरू किया जा सकता है। इसे समन्वित या एकीकृत मत्स्यपालन भी कहते हैं। समन्वित विधि में दो या अधिक पालन तकनीकों का समन्वयन होता है। यह एक दूसरे को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करते हैं। समन्वित मत्स्यपालन से कृषक वर्षभर विभिन्न प्रकार के कृषि व खाद्य उत्पाद प्राप्त कर सकते हैं।

वर्तमान में अधिकांश कृषक मुख्य रूप से मिश्रित कृषि कर रहे हैं। इसमें फसलें, मत्स्यपालन, पशुपालन उप-प्रणालियां एक दूसरे से स्वतंत्र होती हैं। उन्नत तकनीक अपनाकर इन उप-प्रणालियों को आपस में जोड़ना आसान है। समन्वित मत्स्यपालन के अंतर्गत उप-प्रणालियाँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई होती हैं।

एक उप-प्रणाली से उत्पन्न अपशिष्ट दूसरी अन्य उप-प्रणाली के लिए मूल्यवान आदान बन जाते हैं। इस प्रकार भूमि और जल संसाधनों का कुशलतम उपयोग सुनिश्चित होता है। इसका उद्देश्य न्यूनतम वित्तीय एवं श्रम लागत के साथ विविध कृषि सब्जी उत्पादन सह मात्स्यिकी उत्पादन प्राप्त करना है।

भूमि चयन एवं तालाब निर्माण

                                                               

पर्वतीय क्षेत्रों में मत्स्यपालन के लिए विदेशी कार्प प्रजाति मछलियों के बीज बरसात के मौसम में उपलब्ध होते हैं। इसलिए ग्रीष्म ऋतु में तालाब बनाकर तैयार कर लेना चाहिए। इन क्षेत्रों में कम से कम 100-200 वर्ग मीटर का समतल क्षेत्र मत्स्यपालन की दृष्टि से तालाब निर्माण के लिए उपयुक्त माना जाता है। इस भूमि के समीप उचित गुणवत्ता का पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध होना आवश्यक है। तालाब निर्माण से पूर्व मिट्टी व पानी की गुणवत्ता की जांच भी करवानी चाहिए।

चिकनी दोमट मृदा पानी के रिसाव को रोकने की दृष्टि से उत्तम मानी जाती है। उत्पादन के लिए इसके उपरांत 100-200 वर्ग मीटर क्षेत्रफल के आयताकार तालाब बनाये जाते हैं। इनकी गहराई 1.5-2 मीटर रखनी चाहिए। तालाब के बन्धों का ढाल 1:1 से 1:.5 के अनुपात में पर्याप्त माना जाता है। इन बन्धों की ऊपरी चौड़ाई 1.5 से 2.0 मीटर तक रखी जानी चाहिए। 100-200 वर्ग मीटर के कच्चे तालाब में सिल्पोलिन (200 जीएसएम) को बिछाकर तालाब के बंधो पर मिट्टी चढ़ाकर पॉलीथीन को दबा दिया जाता है।

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में मत्स्यपालन की दृष्टि से विदेशी कार्प प्रजाति की मछलियां क्रमशः सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प एवं कॉमन कार्प उपयुक्त पायी गयी हैं। परम्परागत ढंग से किए गए मछलीपालन से लगभग 50 कि.ग्रा./100 वर्ग मीटर प्रतिवर्ष उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। पॉलीथीन के उपयोग से पानी का तापमान 2-6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है।

यह मछलियों की बढ़वार में सहायक होता है। पॉलीटैंक के तलीय क्षेत्र में 30 सेंमी. मोटी कंकड़-पत्थर रहित खेती की उपजाऊ मृदा की तह बनाई जाती है। तालाब में पानी भरकर चूने तथा कच्चे गोबर का लेप लगा दिया जाता है। इसके दो सप्ताह के उपरान्त विदेशी कार्प मछलियों की बड़े आकार की अंगुलिकाओं को 3-4 अंगुलिकाएं प्रति घन मीटर की दर से तालाब में डाला जाता है। तालाब में सिल्वर कार्प (3 प्रतिशत), ग्रास कार्प (4 प्रतिशत) एवं कॉमन कार्प (3 प्रतिशत) की दर से डालना चाहिए।

समन्वित मत्स्यपालन पद्वति में खाद एवं कृत्रिम आहार पर बिना व्यय या कम व्यय के मत्स्यपालन से अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है। इस पद्वति के अंतर्गत पशु-पक्षियों के अपशिष्ट का कुछ अंश तो मछलियों द्वारा आहार के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है तथा शेष जल में उनके प्राकृतिक आहार (प्लवक) की वृद्वि के लिए खाद की तरह से कार्य करता है।

बागवानी सह मत्स्यपालन

पर्वतीय क्षेत्रों की जलवायु परिस्थितियां मौसमी व बेमौसमी सब्जी तथा फल उत्पादन के लिए उपयुक्त हैं। मत्स्य तालाबों का जल, सूक्ष्म पोषक तत्वों से परिपूर्ण होता है। अतः इसका उपयोग सिंचाई के लिए किया जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में समन्वित प्रणाली के माध्यम से उच्च कीमत वाली सब्जियों जैसे-शिमला मिर्च, टमाटर, गोभी, चप्पन कद्दू और खीरा आदि का उत्पादन कर लाभ प्राप्त किया जा सकता है। सब्जियों की पत्तियां एवं अन्य अवशेष ग्रास कार्प मछली के आहार का कार्य करते हैं।

अनुसूचित जाति उपयोजना के माध्यम से बढ़ावा

                                                              

भाकृअनुप-शीतजल मात्स्यिकी अनुसंधान निदेशालय, भीमताल ने अनुसूचित जाति उप-योजना के अन्तर्गत उत्तराखंड में नैनीताल जिले के हरीनगर ग्राम को मत्स्यपालन के लिए अंगीकृत किया। मत्स्यपालकों को इससे जुड़ी विभिन्न तकनीकों की जानकारी प्रदान करने के लिए विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए गए। तालाबों में उच्च गुणवत्ता वाले विकसित कार्प अंगुलिकाओं की स्टॉकिंग की गई।

वर्तमान में मत्स्यपालन से इस ग्राम के कई मत्स्यपालक प्रतिवर्ष 12 से 20 हजार प्रति 100 वर्ग मीटर आय प्राप्त कर रहे हैं। उन्नत तकनीक का उपयोग कर वह पूर्व की तुलना में 2 से 2.5 गुना अधिक मछली उत्पादन प्राप्त कर रहे हैं। राज्य में इन प्रयासों से मत्स्यपालन का सब्जी उत्पादन एवं कृषि के साथ समन्वय हुआ है। इससे मत्स्य एवं सब्जी उत्पादन में भी बढ़ोतरी हुई है।

मुर्गी सह मत्स्यपालन

इस पद्वति के अन्तर्गत मुर्गियों को पौष्टिक आहार दिया जाता है। इसका कुछ भाग खाते समय विष्ठा में मिल जाता है। बिखरा हुआ एवं अधपचा आहार तालाब में मछली के लिए सीधे आहार का कार्य करता है। मुर्गी की विष्ठा तालाब में खाद के रूप में पोषक तत्वों की वृद्वि करती है। इससे मछलियों के प्राकृतिक आहार में वृद्वि होती है। इस प्रणाली से तालाबों में अलग से खाद एवं मछलियों के लिए परिपूरक आहार में होने वाले व्यय में कमी आती है।

इस पोषक तत्व युक्त पानी का प्रयोग फसलों की सिंचाई के लिए किया जा सकता है। मैदानी क्षेत्रों में तो मछलीपालन को व्यवसाय के रूप में अपनाया जा रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों में भौगोलिक परिस्थिति एवं तकनीकी जानकारी के अभाव में सीमित कृषकों द्वारा ही मत्स्यपालन को व्यवसाय के रूप में अपनाया गया है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।