डिप्रेशन से कैसे बचे? Publish Date : 22/01/2024
डिप्रेशन के उपचार को बीच में न छोड़े
डॉ0 दिव्यांशु सेंगर एवं मुकेश शर्मा
डिप्रेशन, बेचेनी केवल शहरों में रहने वाले लोगों की ही समस्याएं नहीं है। बल्कि गाँव एवं छोटे शहरों में भी मानसिक समस्याओं के मामले अब लगातार बढ़ रहे हैं। अवसाद के 60 से 80 प्रतिशत मामले तरह ठीक हो जाते हैं, पर बहुत कम लोगों को ही सही उपचार मिल पा रहा है। इस मानसिक परेशानी से कैसे बचे? बता रहे है हमारे विशेषज्ञ-
एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षण कार्य करने वाली एकता, जिनकी आयु लगभग 32 वर्ष है, वे सदैव से ही अन्तर्मुखी स्वभाव थी। परन्तु बीते कुछ वर्षों से उनका लोगों से बात करना और मिलना-जुलना लगातार कम होता जा रहा था। इसके साथ ही उन्हें कभी भूख नही लगती थी तो कभी जोड़ों का दर्द भी उन्हें सताने लगता था और थोड़े-थोड़े दिनो के अन्तराल पर उन्हें बुखार भी हो जाता था।
हालांकि जांच रिपोर्ट्स में सब कुछ ठीक ही आ रहा था। उनकी ससुराल में भी सभी लोग नाराज रहते थे और कहते कि परिवार एवं दूसरों लोगों के साथ मिलजुलकर नही रहने के कारण ही ऐसा हो रहा था। ऐसे में एक दिन उनकी एक करीबी दोस्त जबरदस्ती उन्हें एक साइकोलॉजिस्ट के पास लेकर गई, तो वहाँ सामने आया कि वह अपने दूसरे बच्चे को जन्म देने के बाद से ही पिछले छह वर्ष से डिप्रेशन से ग्रस्त है और इसका सही उपचार नही लेने के कारण यह समस्या दिन प्रति दिन गम्भीर रूप धारण करती जा रही है।
बढ़ती जाती हैं कई समस्याएं
अभी कुछ दिन पहले अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दकी ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि डिप्रेशन, एंग्जाइटी और बाईपोलर के जैसी समस्याएं केवल शहरों में रहने वाले लोगों को ही होती हैं, क्योंकि शहरों में रहने वाले लोग अपने प्रत्येक भाव को ग्लोरिफाई करते हैं। जबकि गाँवों में किसी को कभी कोई डिप्रेशन जैसी चीज नही होती है और उनके इस बयान के कारण उनकी काफी आलोचना भी की गई थी।
यह सत्य है कि शहरों में दबाव और अकेलापन आदि मानसिक विकारों को बढ़ावा देता है, परन्तु ऐसा भी कतई नही है। कि छोटे शहरो और गाँवों में रहने वाले लोगों में अवसाद एवं मानसिक विकारों का विकास नही होता है। असल में, न तो छोटे शहरों में और न ही गाँवों में उपचार की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध नही होने के कारण जागरूकता की कमी है। वहाँ आज भी अधिकतर मानसिक रोगों को जादू-टोना और भूत-प्रेत आदि के साथ जोड़कर ही देखा जाता है।
नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-5 के अनुसार, कई राज्यों से आत्महत्या एवं संदिग्ध मौतों के मामले गाँवों से ही सामने आए हैं। वहीं डब्ल्यूएचओ के अनुसार दुनियाभर में करीब 1 अरब 20 करोड़ लोग अवासाद की समस्या से ग्रसित हैं। हालांकि अवसाद के 60 से 80 प्रतिशत मामले उपचार लेने के बाद पूरी तरह से ठीक हो जाते हैं, जबकि यह भी एक कटु सत्य है कि लगभग 25 प्रतिशत लोागें को ही उपचार मिल पाता है।
वर्ष 2019 में किए गए एक वैश्विक अध्ययन की माने तो प्रति एक लाख जनसंख्या पर सबसे अधिक आत्महत्या के मामले भारत, चीन और अमेरिका में सामने आते हैं, जिसका सबसे बड़ा कारण अवसाद ही होता है। मात्र इतना ही नही, भारत विश्व का सबसे बड़ा डिस्प्रेस्ड कंट्री एवं आत्महत्याओं के मामले में सबसे ऊपर वाले स्थान पर आता है।
पूरी दुनिया में आत्महत्या करने वाले लोगों में से 40 प्रतिशत लोग मानसिक रोगों का शिकार हो जाने के कारण ही आत्महत्या के जैसा कर्म करते है और इन मानसिक रोगों में भी डिप्रेशन सबसे बड़ा कारण होता है।
लक्षणों को पहचानने में होती है उलझन
अवसाद / डिप्रेशन के लक्षणों की पहिचान करना अपने आप में काफी अहम होता है, क्योंकि इसमें सदैव ही ऐसा नही होता है कि मरीज उदास रहे या फिर वह रोता ही रहे। इससे प्रभावित मरीजों में जोड़ों का दर्द, शरीर के विभिन्न भागों में दर्द, बुखार, किसी सोच में डूबे रहना, मरीज की पाचन क्रिया का मन्द पड़ जाना जैसे लक्षण भी दिखाई देते हैं। अधिकाँशतः लोग अवसाद से जुड़े संकेतों को पहचानने में असफल रहते हैं। कई बार अवसाद से पीड़ित के तन, मन एवं व्यवहार आदि के स्तर पर बदलाव तो नजर आते हैं परन्तु इन बदलावों को गम्भीरता से नही लिया जाता है।
हालांकि इन लक्षणों को पहचानना इतना आसान भी नही होता है, क्योंकि विशेषज्ञ भी लगातार बातचीत और जांच आदि के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुँच पाते हैं।
यदि इस समस्या की पहिचान हो जाए और उसका उपचार समय पर ही शुरू कर दिया जाए तो यह समस्या पूरी तरह से ठीक भी हो जाती है और पीड़ित एक सामान्य जीवन जी पाने के योग्य हो जाता हैं। अवसाद के उपचार में दवाई और काउंसलिंग दोनों की ही आवश्यकता पड़ सकती है। तो कई बार सिर्फ काउंसलिंग से भी काम चल जाता है। परन्तु इससे पीड़ित लोगों को सलाह दी जाती है कि वह इसके उपचार को बीच में ही न छोड़ें और अपने विवेक से किसी भी दवाई का सेवन नरी करें क्योंकि ऐसा करने से स्थिति अधिक गम्भीर रूप धारण कर सकती हैं।
कुपोषण का बढ़ना भी होता है खतरनाक
प्रमुख रूप से भावनात्मक आघात के अतिरिक्त इसके कई अन्य कारण भी हो सकते हैं। जनरल ऑफ फिजीकल न्यूट्रीशन में प्रकाशित एक शोध के अनुसार मन्थर गति से बढ़ता कुपोषण भी डिप्रेशन का एक अहम कारण होता है। यह बात अलग है कि बच्चा, बूढ़ा या जवान, अमीर और गरीब कोई भी व्यक्ति इसका शिकार हो सकता है। खानें की विभिन्न महंगी एवं ब्राँडेड चीजों में कैलोरी काफी अधिक मात्रा में होती है, परन्तु पोषक तत्वों का अभाव होता है, ऐसे में इनका सेवन करने वाले व्यक्ति का पेट तो भर जाता है, परन्तु उसके शरीर को आवश्यक मात्रा में पोषण नही मिल पाता है।
विभिन्न शोधों के माध्यम से यह सिद्व हो चुका है कि विटामिन-डी, ओमेगा-3, विटामिन-सी, मैग्नीशियम तथा आयरन आदि की कमी के होने से व्यक्ति का मानसिकस्वास्थ्य प्रभावित होता है, अतः भोजन में इन सब तत्वों का उपलब्ध होना भी आवश्यक है। टूडेज डायटिशियन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, हम क्या खाते है और कब खाते हैं, इसके साथ यह भी आवश्यक है कि हम किस क्रम में खाते हैं।
अतः जब भी हम खाना खाएं तो इन पोषक तत्वों को हमें इसी सीक्वेन्स में खाना चाहिए, अर्थात पहले फाइबर, फिर प्रोटीन तथा उसके बाद कार्बोहाईड्रेट का सेवन करना चाहिए। यदि हमारे शरीर में ऊर्जा का स्तर अच्छा है तो हम डिप्रेशन और एंग्जईटी जैसे विकारों के शिकार नही होते हैं। यदि आपके शरीर में मल्टीविटामिन्स की कमी है तो आपके डॉक्टर आपको सप्लीमेन्ट भी दे सकते हैं।
ऐसे संकेतो पर रखें करीबी नजर
- किसी भी व्यक्ति का लगातार उदास रहना अथवा उसका अपने पसंदीदा कार्यों में रूचि नही लेना।
- लगातार दो सप्ताह तक अपने दैनिक कार्यों को संपादित करने में परेशानी होना।
- छोटी-छोटी बातों पर क्रोधित हो जाना।
- रोगी का अत्याधिक सोचना एवं उसका भ्रमित हो जाना।
- रोगी का सामाजिक रूप से कटा-कटा रहना।
- रोगी में लगातार उदासी, बेचैनी तथा उत्तेजना का रहना।
एंग्जाईटी डिसऑर्डर का होना
जब इससे प्रभावित व्यक्ति में आने वाले कल का भय और चिंता इस स्तर तक बढ़ जाए, जिससे आज की दिनचर्या भी प्रभावित होने लगे।
बाईपोलर डिसऑर्डर का होना
व्यक्ति के मूड में असामान्य उतार-चढ़ाव, ऊर्जा के स्तर में कमी होना और दैनिक कार्यों के सम्पादन में भी परेशानी का अनुभव करना आदि।
बॉर्डर लाईन पर्सनेलिटी डिसऑर्डर का होना
भावनाओं के नियन्त्रण में कमी आना, छोटी-छोटी बातों से उत्तेजित होना तथा अपने रिश्तों को नही सम्भाल पाना आदि।
ऑब्सेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर (ओसीडी) का होना
किसी विचार का बार-बार दिमाग में आना और प्रयास करने के बाद भी उस विचार को नियन्त्रित नही कर पाना और मरीज का अपने व्यवहार पर भी नियन्त्रण का नही होना आदि।
ईटिंग डिसऑर्डर का होना
मरीज की खानपीन की आदतों में असामान्य परिवर्त का आना, जिसमें मरीज का मन या तो बिलकुल भी खाने को नही करता है या फिर वह बहुत अधिक खाने लगता है। उक्त दोनों ही स्थितियाँ मानवीय स्वास्थ्य और जीवन के लिए खतरनाक होती हैं।
विटामिन डी की कमी भी डालती है मूड पर प्रभाव
एनल्स ऑफ जनरल साकिएट्री साइट में वैश्विक अनुसंधानों का एक विश्लेषण प्रकाशित हुआ, जिसमे यह कहा गया है कि विटामिन डी की कभी शरीर में 200 से अधिक जीस को प्रभावित करती है। खुली हवा में घूमने और गुनगुनी धुप का सेवन करने से अवसाद के लक्षणों में भी व्यापक सुधार आता है। विभिन्न शोधों के माध्यम से ज्ञात हुआ है कि डिप्रेशन के विभिन्न मरीजों में विटामिन डी-3 की कमी होती है और विटामिन डी की पूर्ति होने पर डिप्रेशन की स्थिति में सहायता प्राप्त होती है जबकि इस दिशा में अभी भी शोध कार्य जारी हैं।
भावनाओं पर काबू करने में में असमर्थ हैं तो अपने व्यवहार में करें बदलाव
अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हैल्थ (एनआईएच) ने बताया कि आपका शरीर उस प्रकार से प्रतिक्रिया देता है, जैसा कि आप सोचते, महसूस करते और कार्य करते हैं। अतः शारीरिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य भी आवश्यक है। जीवन में कई इस प्रकार के पल आते हैं कि जब अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण कर पाना आसान नही होता है, परन्तु यदि हम अपने व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन कर लें तो इससे धीरे-धीरे हमारी भावनाओं पर भी प्रभाव पड़ने लगता है। इसके लिए आप निम्न परिवर्तनों को अपना सकते हैं-
- सप्ताह में एक दिन गैजेटों से परहेज करे और अपने आत्मीय जनों के साथ क्वालिटी समय व्यतीत करें।
- अपने खाने और पीने की आदतों को बदलें और भोजन की थाली में पोषण को महत्व दें। नियत समय पर शयन करे और जगें।
- नियमित रूप से व्यायाम करें। सुबह शाम ताजी हवा और रोशनी में भी कुछ समय बिताएं।
पोस्ट पार्टम डिप्रेशन को गंभीरता से लें
प्रसव के बाद लगभग 80 प्रतिशत महिलाएं स्वयं को अवसादग्रस्त अनुभव करती है, क्योंकि इस दौरान बहुत अधिक हार्मोनल परिवर्तन होता है। अगर के छह सप्ताह के बाद भी भावनात्मक रूप से अस्थिरता महसूस करना, रोना, चिड़चिड़ापन, परेशान होना, उदासी, अपने करीबी लोगों से कटा हुआ महसूस करना, बच्चे को संभालने में उलझन होना, थकान का रहना, स्तनपान कराने में स्वयं को असहज महसूस करना आदि के जैसी समस्याएं हो तो यह अपने आप में सामान्य है, परन्तु प्रसव के छह सप्ताह के बाद भी इस प्रकार के लक्षण दिखाई दे तो इसे गम्भीरता से लें।
यदि समय के रहते ही इसका उपचार नही कराया जाए तो पीपीडी की समस्या लगातार ही बनी रहती है और इसके केवल स्वरूप बदलते रहते हैं।
लेखक: डॉ0 दिव्यांशु सेंगर, प्यारे लाल शर्मा, जिला अस्पताल मेरठ के मेडिकल ऑफिसर हैं।