
प्रदूषण के कारण शुक्राणुओं की संख्या में गिरावट Publish Date : 19/06/2025
प्रदूषण के कारण शुक्राणुओं की संख्या में गिरावट
डॉ0 दिव्यांशु सेंगर एवं मुकेश शर्मा
पिछले दिनों दुनिया भर के कई शोधकर्ता आश्चर्य चकित रह गये, जब किए गए शोधों के माध्यम से ज्ञात हुआ कि पचास के दशक की तुलना में वर्तमान में पुरुषों के शुक्राणुओं की संख्या और गुणवत्ता में 50 फीसदी की गिरावट आयी है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह गिरावट समान रूप से लगभग सभी पुरुषों में आयी है। सर्वप्रथम सितम्बर 92 के ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में डेनमार्क के वैज्ञानिक का शोध अध्ययन छपा, जिससे यह बात प्रकाश में आई थी।
यह अध्ययन 21 देशों के 15 हजार लोगों पर अलग-अलग किया गया था। इस अध्ययन के बाद शोधकर्ताओं ने बताया कि वर्ष 1938 की तुलना में वर्ष 1993 में शुक्राणु संख्या और गुणवत्ता में 42 फीसदी गिरावट आयी है।
पिछले दिनों इस रिपोर्ट के आधार पर ‘द वीक’ में एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें कहा गया है कि वर्ष 1938 में जहां पुरुषों में शुक्राणुओं की औसत संख्या 11.3 करोड़ प्रति मिली मीटर थी, वहीं वर्ष 1990 में यह घटकर केवल 6.6 करोड़ रह गयी थी। यह स्थिति थोड़ी विकट है क्योंकि शुक्राणुओं में आई इस कमी से पिता बनने में असमर्थ पुरुषों की संख्या भी औसत रूप से बढ़ी है। इन शोध अध्ययनों की समीक्षा करने वाले एक फ्रान्सीसी जैव वैज्ञानिक पियरे जोआनेट मानते हैं कि अगर गिरावट की यही रफ्तार बरकरार रही तो आज से 70 से 80 वर्ष के बाद शुक्राणु संख्या घटकर शून्य रह जायेगी।
इसका सीधा अर्थ तो यह हुआ कि दुनिया भर के पुरूष तब पिता बनने के योग्य नहीं रह जायेंगे। लेकिन कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि ऐसी स्थिति शायद कभी नहीं आएगी, लेकिन हां यह चिन्ता की बात अवश्य है।
शुक्राणुओं की संख्यां में लगातार गिरावट शुक्राणु बैंक के प्रबन्धकों ने (खासकर विकसित देशों में) इसके मानक स्तर में कमी कर दी है। कुछ साल पहले मुम्बई में खोले गये शुक्राणु बैंक ने वर्ष 1991 में दस करोड़ शुक्राणु प्रति मिलीमीटर के स्तर को घटाकर गत वर्ष इसे आठ करोड़ प्रति मिलीमीटर कर दिया। इस बैंक के प्रबन्धक कहते हैं कि यहां आने वाले 10 में से 9 पुरूषों को अपेक्षित शुक्राणु संख्या न होने के कारण वापस भेज दिया जाता है।
एक अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी द्वारा करवाये गए अध्ययनों से यह तथ्य सामने आया कि अमेरिकी युवाओं की शुक्राणुको संख्या स्केकबीक की रिपोर्ट से भी कम है।
शोधकर्ता अब यह जानने का प्रयास कर रहें हैं कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? कुछ शोधकर्ताओं का मानना ऐसा है कि बढ़ते प्रदूषण और कीटनाशकों के अति प्रयोग के कारण ऐसा हो रहा है, जैस- क्लोरीन व डी.डी.टी.।
यह रसायन हमारी, सेहत को तो खराब कर ही रहे हैं, साथ ही ऐसा पता चला है, कि इसके कारण शुक्राणुओं की संख्या में भी कमी आ रही है, यह बात भी सामने आई है। यह रसायन हमारी खाद्य श्रृंखला में पहुंचकर हमारे शरीर में एस्ट्रोजन व इंट्रोजन जैसे महत्वपूर्ण हारमोन में मिल जाते हैं। एस्ट्रोजन महिलाओं में स्रावित होने वाला एक ऐसा रसायन है जो पुरुषोंमें शुक्राणु उत्पादन को भी प्रभावित करता है।
दरअसल यह एस्ट्रोजन महिलाओं के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण हारमोन है। इसका निर्माण महिलाओं के अंडाशय में होता है और यह फिर रक्त में मिलकर शरीर के अनेक अंगों को प्रभावित करता है। यह रक्तं में कोलेस्ट्रॉल का सन्तुलन बनाये रखने में मदद करता है और हड्डियों की सुरक्षा में प्रमुख भूमिका निभाता है।
यह हारमोन स्त्रियों की भावनाओं से लेकर उनके प्रजनन अंगों तक को प्रभावित करता है। यह इतना प्रभावशाली है कि इसकी कमी के कारण महिलाओं में कई शारीरिक व भावनात्मक परिवर्तन होने लगते हैं। इन परिवर्तनों का असर पुरुषों पर भी पड़ता है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि पर्यावरण में पाये जाने वाले रासायनिक जहर पुरुष की प्रजनन कोशिकाओं को भी नष्ट कर देते हैं और यह वह कोशिकाएं हैं जो शिशु के युवा होने पर शुक्राणुओं का उत्पादन करती है।
ये कोशिकाएं एक बार नष्ट होने के बाद दोबारा से जन्म नहीं लेती हैं। अधिकांश पश्चिमी देशों में यह समस्या बढ़ रही है, क्योंकि वहां प्रति व्यक्ति रसायनों की खपत भारत के मुकाबले बहुत अधिक है। वैसे भी कीटनाशक के चलते काम में आने वाली कमी की पूर्ति सम्भव नहीं है। कई कीटनाशक दवायें हमारी सेहत पर प्रतिकूल असर डाल रही हैं। अब तो इनके बारे में यह कहा जा रहा है कि यह कीट पतंगों को कम, इन्सान को अधिक मार रही है। वास्तव में कीटनाशकों के असर से कितने लोग बीमार पड़ते हैं या मरते हैं, यह जान पाना तो कठिन है, क्योंकि किसी भी बीमारी को कीटनाशक से जोड़ना एक लम्बी प्रक्रिया के बाद ही सम्भव है।
रोना तो इस बात का है कि इन कीटनाशकों का जहर जब मनुष्य तक पहुंचता है, तब हमारी आंखें खुलती है। इनका असली असर तो पर्यावरण की महत्वपूर्ण प्रणालियों पर पड़ता है, जिसमें फसल को लाभ पहुंचाने वाले छोटे-मोटे कीड़ों का हनन, पशु-पक्षियों का विनाश, पेयजल प्रदूषण तथा खाद्य पदार्थों का विषाक्त होना इत्यादि शामिल है। यदि कीटनाशकों के सभी दुष्प्रभावोंको आंका जाए तो एक बहुत ही डरावनी तस्वीर उभरकर सामने आती है।
यह वह है कि कीटनाशकों के कारण कीट पतंगों में इसके विरुद्ध धीरे-धीरे प्रतिरोधक शक्ति पैदा हो जाती और दुनिया को इसका प्रभाव लम्बे समय तक झेलना पड़ रहा है। फिर तो यह उन तक पहुंच रहे हैं, जिनके लिए यह बनाये ही नहीं जाते हैं।
वर्तमान समय में स्थिति यह है कि अब तो मां का दूध भी इन कीटनाशकों से सुरक्षित नहीं रहा है। फिर भी दुनिया भर में कीटनाशक उद्योग दिन-प्रतिदिन फलफूल रहा है। इसलिए अभी भी समय है कि हम शीघ्र ही बढ़ते प्रदूषण और कीटनाशकों के बेतहाशा प्रयोग पर काबू पाएं, नहीं तो आने वाले दिनों में हमें इनकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
लेखक: डॉ0 दिव्यांशु सेंगर, प्यारे लाल शर्मां, जिला चिकित्सालय मेरठ मे मेडिकल ऑफिसर हैं।