ऑटिज्म का खतरा गर्भावस्था में भी Publish Date : 09/06/2023
ऑटिज्म का खतरा गर्भावस्था में भी
‘‘स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर अर्थात एएसडी के चलते व्यक्ति सही तरीके से संवाद करने के अतिरिक्त स्वयं को अभिव्यक्त करने की क्षमता को खो देता है, जिसका विकास गर्भाावस्था के दौरान भी हो सकता है। यह गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल विेकार, दौरे, नींद से सम्बधित विकार, चिन्ता, अवसाद एवं ध्यान आदि से सम्बन्धित विकार होता है।’’
ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (एएसडी), एक ऐसी स्थिति जिसके अन्तर्गत इससे प्रभावित व्यक्ति को सामाजिक कौशल, बोलने एवं समाज के साथ सम्पर्क स्थापित करने में परेशानियों का समाना करना पड़ता है।
यह एक प्रकार से की विकासात्मक असक्षमता (डेवलेपमेंटल डिसएबिलिटी) होती है, जिसके कारण प्रभावित व्यक्ति सही ढंग से संवाद करने और स्वयं को अभिव्यक्त करने की क्षमता को खो देता है, और वर्तमान में सम्पूर्ण भारत में लगभग 0.2 प्रतिशत बच्चे इस समस्या से जूझ रहे हैं। हालांकि, यह संख्या अधिक भी हो सकती है, क्योंकि कई बार इस इसकी पहिचान, विशेषरूप से ग्रामीण क्षेत्रों कर पाना सम्भव नही हो पाती है।
एएसडी के विभिन्न स्वरूप होते हैं। इससे पीड़तों में अलग-अलग गुण, अक्षमताएं एवं चुनौतियाँ सामने आती हैं। इससे पीड़ित कुछ लोगों को अपने दैनिक जीवन सहायता की आवश्यकता होती है तो कुछ लोग पूरी तरह से स्वतंत्र होकर भी रह सकते हैं।
ऑटिज्म के कारण अभी पूरी तरह से स्पष्ट नही हैं, ये पर्यावरणीय, जैविक एवं आनुवांशिक कारकों का संयोजन भी हो सकते हैं। एएसडी अधिकांशतः गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल विेकार, दौरे, नींद से सम्बधित विकार, चिन्ता, अवसाद एवं ध्यान आदि से जुड़े मुद्दे होते हैं।
ऑटिज्म से जुड़े कारणः- ऑटिज्म के सम्बन्ध में विभिन्न जोखिम कारकों में किसी अपने निकटतम सम्बन्धी को एएसडी होना, प्रभावित व्यक्ति के माता या पिता में एएसडी का पारिवारिक इतिहास, माता-पिता में नाजुक एक्स सिन्ड्रोम, मिर्गी के जैसी आनुवांशिक अथवा क्रोमोसोमल स्थितियाँ, माता-पिता में ऑटोइम्यून की समस्या, 35 वर्ष से अधिक आयु में माता-पिता बनना, गर्भावस्था के दौरान रूबेला एवं सीएमवी के जैसे संक्रमण, पोषक तत्वों की कमी, एंटीपीलेप्टिक्स (वैल्प्रोएट), एंटीडिप्रेसेंट (एसएसआरआई) जैसी दवाओं का सेवन करना आदि शामिल हैं।
समय से पूर्व प्रसव पीड़ा, जन्म के समय शिशु का वजन कम होना, गर्भावधि में मधुमेह का होना और प्रसव के दौरान समस्याओं के कारण ऐसा हो सकता है। इसके अतिरिक्त प्लास्टिक की चीजों जैसे बोतल, कप एवं कंटेनर इत्यादि, पेंट और नए कालीन आदि में उपस्थि पाए जाने वाले विषाक्त पदार्थों के सम्पर्क में आने से भी यह समस्या विकसित हो सकती हैं।
ऐसे विषाक्त पदार्थों में बीपीए, पीबीडीई, पीसीबी एवं पीसीडीडी आदि शामिल होते हैं। इसके साथ ही यातायात से निकलने वाले धुएं के कारण वायु प्रदूषण, सीसा एवं पारा के जैसी भारी धातुएं एवं प्रसव पूर्व तनाव एवं चिन्ता आदि भी इसका कारण हो सकता है, जबकि लड़कों में यह डिसॉर्डर चार गुना अधिक पाया जाता है।
लक्षणों की पहिचानः- एएसडी 6 से 12 महीने का उम्र में भी देखा जा सकता है, जबकि आमतौर पर यह 3 वर्ष की आयु में होता है, और जीवनभर ही विद्यमान रहता है। हालांकि, आरम्भिक स्थिति में पहिचान एवं उचित उपचार के द्वारा इस विकार के लक्षणों को कुछ कम किया जा सकता है।
वहीं कुछ बच्चों में यह चिंता, अवसाद एवं एडीएचडी (अटेंशन डेफिसिट/हाइपरएक्टिविटी डिसार्डर) के साथ जुड़ा होता है। इसका निदान संन्देह आधारित है, इसलिए चिकित्सा परीक्षण या कोई अन्य उपकरण जैसे कोई विशेष तरीके नही है।
आमतौर पर चिकित्सक पीड़ित व्यक्ति के व्यवहार एवं उसके विकास के आधार पर ही उपचार करते हैं। गर्भावस्था में ऑटिज्म के लक्षणों की पहिचान करने के लिए शेधकार्य अभी जारी हैं। ऑटिज्म के जोखिमों को कम करने के लिए कुछ कदम तो जरूर उठाएं जा सकते हैं, परन्तु इसे पूरी तरह से रोक पाना सम्भव ही नही है।
ऑटिज्म से बचने के लिए कुछ सम्भावित उपाय:- दम्पति प्रयास करें कि वे 21 से 35 वर्ष की आयु के बीच ही माता एवं पिता बनें। चिन्ता, तनाव एवं मिर्गी आदि की दशाओं में सुरक्षित दवाओं का ही उपयोग करें। ओबजी का उपचार करने एवं मधुमेह पर नियंत्रण के साथ नियमित प्रसवपूर्व जाँच समय-समय पर कराते रहें। समय पूर्व प्रसव और जन्म के समय शिशु का कम वजन आदि के जोखिम कारकों की पहिचान कर समय पर ही उनका उपचार कराएं और नियमित रूप से व्यायाम करें।
पर्याप्त पोषण, फोलेट, ओमेगा-3, विटामिन-डी3, आयरन एवं कैल्शियम आदि का भरपूर उपयोग करें। बच्चे को अधिक समय तक स्तनपान न कराएं और तनाव कम करें। सैलून, नए घरों, कालीनों, पेंट, वाहनों से निकलने वाले धुएं से बचने का प्रयास करें। गर्भावस्था में होने वाले संक्रमणों की पहिचान कर उनका उपचार समय पर ही कराएं।
अपने भोजन में जैविक पदार्थों को स्थान दें और पके हुए भोजन एवं पानी आदि को प्लास्टिक के बर्तनों में न रखें।
पोनीटेल घर की बगिया का आकर्षण
दक्षिण मैक्सिको मूल का पोनीटेल प्लांट ‘ब्युकार्निया रिकरवेटा’ अपनी सुन्दरता के लिए पहिचाना जाता है। इस पौधे का मोटा एवं फूला हुआ तना एवं झूलती हुई बड़ी-बड़ी लम्बी पत्तियाँ किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता रखती है। यदि आप अपने बागीचे में कुछ नए पौधों को स्थान देना चाहते हैं तो यह पौधा इसका एक अच्छा विकल्प हो सकता है।
पोनीटेल एगेवेशी कुल का एक सुन्दर पौधा है, जिसका फ्लास्कनुमा तना जल का संग्रह करता है। तने के पतले ऊपरी सिरे पर दो सेन्टीमीटर चौड़ी एवं 90 सेन्टीमीटर लम्बी किनारे पर दांतेदार भूरे-हरे रंग की पत्तियाँ नीचे की ओर लटककर एक आकर्षक पिच्छक (टेल) बनाती हैं, जिसके कारण इसे पोनीटेल का नाम दिया गया है, और यदि इसे जमीन में ऐसे ही उगने दिया जाए तो पोनीटेल का पौधा लगभग तीन मीटर तक की ऊँचाई तक बढ़ सकता है। जबकि आमतौर पर इस पौधे में शाखएं नही बनती हैं।
पोनीटेल के पौधें को आप कहीं लगा सकते हैं। इसका पौधा धूप, गरम एवं हवादार स्थान पर अच्छी वृद्वि प्राप्त करता है, अत आप इसके पौधे को अपने बागीचे में भी लगा सकते हैं। इसके अतिरिक्त आप इस अनौखे पौधे से आप अपने घर में एक फोकल प्वाइंट भी बना सकते हैं।
ऐसा करने के लिए पोनीटेल के पौधे को आप अपने ड्राइंगरूम में खिड़की के पास या घर के किसी ऐसे कोने पर, जहाँ सूर्य की रोशनी परावर्तित होकर आती हो, लगाया जा सकता है।
पोनीटेल का पौधा नवम्बर से लेकर फरवरी तक कभी भी लगाया जा सकता है। इसके अलावा पोनीटेल के पौधे को वर्षा ऋतु में भी लगाया जा सकता है।
पोनीटेल के पौधे को उगाने का तरीकाः- इस पौधें को उगाने के लिए तीन भाग मिट्टी में एक भाग गाबर एवं एक भाग बालू रेत का मिश्रण तैयार करें एवं एक बाल्टी मिट्टी दो चम्मच सुपर फॉस्फेट एवं एक चम्मच म्यूरेट ऑफ पोटाश का मिश्रण तैयार कर गमले में भर दें और नर्सर्री से लाकर एक छोटा पोनीटेल के प्लांट को इसमें रोप दे।
ध्यान देने योग्यः- पोनीटेल के पौधे को अधिक पानी की आवश्यकता नही है, इसलिए गमले में जब ऊपर की मिट्टी सूख जाए तो उसके बाद ही पानी देना चाहिए। यदि आप इस पौधे को घर के अन्दर ही लगा रहें हैं तो इसे छोटे गमले में ही लगाएं ऐसा करने से यह मन्द गति से वृद्वि करेगा और वर्षों तक आपके घर की शोभा में वृद्वि करता रहेगा।