बैठे रहने के दौरान भी हीट स्ट्रॉक की आशंका अधिक      Publish Date : 31/05/2023

                                                बैठे रहने के दौरान भी हीट स्ट्रॉक की आशंका अधिक
                                                                                                                                          डॉ0 दिव्याँशु सेंगर एवं मुकेश शर्मा 
राजधानी दिल्ली का अधिकतम तापमान अब 45 डिग्री तक पहुँच चुका है और अब हीट स्ट्रॉक के मामले भी सामने आने लगे हैं। ऐसे में एम्स के मेडिसन विभाग के एडीशनल प्रोफेसर डॉैक्टर नीरज निश्चल बताया कि गर्मियों में बैठ हुए भी हीट स्ट्रॉक आ सकता है और यदि शरीर का तापमान अचानक ही बढ़ने लगे तो ऐसे में लोगों को अतिरिक्त सावधानियाँ बरतनी चाहिए। यदि आपको चक्कर महसूस हो रहे हैं तो आपको एकदम अपने चिकित्सका से सम्पर्क करना चाहिए।

                                                         
शरीर का तापमान बढ़ जाता है- हीट स्ट्रॉक हमारे शरीर की एक ऐसी स्थिति होती है जिसके अतर्न्गत हमारे शरीर का तापमान दसामान्य से अधिक होने लगता है। अधिकतर मामलों में यह 103 से 104 डिग्री फॉरेनहाईट तक पहुँ जाता है और शरीर अपने आप को ठण्ड़ा रख पाने में विफल रहता है। ऐसा अक्सर शरीर का थर्मल प्वॉइन्ट फेल हो जाने के कारण होता है। हीट स्ट्रॉक के चलते कमजोरी का अनुभव करना, थकान का होना, उल्टियाँ आना, चक्कर आना और बहुत पसीना आना अदि लक्षण दिखाई देेते हैं। 
बच्चो, बुजुुर्गों एवं बीमार व्यक्ति का रखें विशेष ध्यान
    डॉक्टर नीरज निश्चल ने बताया कि अधिकतर मामलों में हीट स्ट्रॉक उस समय होता है, जब अत्याधिक परिश्रम के कारण आपके शरीर का तापमान बढ़ जाता है। इस स्थिति में आपातकालीन उपचार की आवश्यकता होती है। हालांकि, ऐसे लोगों को भी हीट स्ट्रॉक हो सकता है, जिनके शरीर में पानी की कमी हो जाया करती है। ऐसे व्यक्ति, जो कि पानी का सेवन पर्याप्त मात्रा में नही करते हैं और गर्मी में बैठे रहते हैं, को भी हीट स्ट्रॉक की समस्या हो सकती है। छोटे-छोटे बच्चों, बुजुर्गों एवं मधुमेह के जैसे असाध्य रोगों से जूझ रहे लोगों में ीाी हीट स्ट्रॉक होने का खतरा सामान्य से अधिक रहता है।  इस प्रकार का हीट स्ट्रॉक धीरे - धीरे र्क घंटों अथवा कई दिनों तक भी आ सकता है।
हीट स्ट्रॉक के लक्षण  
    हीट स्ट्रॉक से प्रभावित व्यक्ति के शरीर का तापमान 104 डिग्री अथवा उससे अधिक होना।
    प्रभावित व्यक्ति के शरीर से पसीने का निकलना ही बन्द हो जाता है।
    प्रभावित व्यक्ति के दिल की धड़कन तीव्र हो जाती हैं।
    प्रभावित व्यक्ति के मस्तियक में गफलत, असंतुलन एवं दौरे आदि की स्थिति का आना।
    डायरिया की समस्या का होना।
    प्रभावित व्यक्ति की वचा पर चक्तें का पड़ जाना।
    प्रभावित व्यक्ति के सिर में तेज दर्द का होना।
    प्रभावित व्यक्ति के शरीर की मांसपेशियों में अकड़न एवं कमजोरी का होना, इत्यादि।
इन बातों का रखें विशेष ध्यान-

                                                          
    यदि आप कहीं बाहर जाते हैं तो सुबह 11.00 बजे पहले और शाम को 5.00 बजे के बाद ही घर से बाहर जाएं और यदि दिन में बाहर जाना आवश्यक है तो कुछ समयन्तराल पर छाया में ब्रेक अवश्य लेते रहें। स्वयं को धूंप से बचाने के लिए ढीले सूती वस्त्र एवं टोपी पहनें।
     पानी का सेवन भरपूर मात्रा में करें और कम से कम 8 से 9 लीर पानी का सेवन प्रतिदिन अवश्य ही करें। यदि किसी को पले से ही दिल अथ्वास गुर्दें से सम्बन्धित कोई समस्या है तो वह अपने डॉक्टर से इसके बारे में बात करें।

                                         
    गाड़ी को पार्क करते समय गाड़ी में बच्चों, बुजुर्गों एवं अपने पालतू जानवरों को अकेला न छोड़े। 
    घर से बाहर निकले समय सनस्क्रीन लगा सकते हैं। अधिकाँशतः 30 से 50 एसपीएफ तक की सनस्क्रीन का उपयोग करना बेहतर रहता है।
    सभी प्रकार के पेय पदार्थ मानव शरीर को तर नही रखते हैं, शराब एवं अधिक शुगर युक्त पेय शरीर में डिहाईड्रेशन का कारण भी बन सकते हैं।
    एक साथ बैठकर अधिक भोजन ग्रहण न करें अपितु छोटे-छोटे समयन्तरालों पर पौष्टिक भोजन करें। हरी सब्जियाँ, सलाद एवं फलों को भोजन में शामिल आवश्यक रूप से करें। 
    घरों के ठण्ड़े कमरों से निकलकर अचानक गर्मी में बाहर निकलने से पूर्व थोड़ी देर के लिए किसी सामान्य तापक्रम वाले स्थान पर रूकने के बाद ही बाहर जाएं। 
भारतीय मूल की वैज्ञानिक के द्वारा खोजा गया ब्रेन कैंसर से बचाव का मार्ग  
    कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के सैन फ्राँसिस्को मेडिकल सेंटर के विज्ञानियों के एक दल ने ब्रेन कैंसर के कारण मौत को टालने और कैंसर के साथ जीवन को आसान बनाने के रास्े की खोज की है। 
    भारतीय मूल की वैज्ञानिक सरिता कृष्णा के नेतृत्व में किए गए शोध के माध्यम से ज्ञात हुआ है कि कैंसर की कोशिकाएं स्वास्थ्य मस्तिष्क कोशकाओं के साथ जुड़कर अतिसक्रिय हो जाती है, जो कि संज्ञानात्मक क्षमताओं की क्षति और मृत्यु का कारण बनती हैं।
    विज्ञान शोध पत्रिका नेचर में प्रकाशित किए गए इस शोध के परिणामों से कैंसर ग्रस्त ब्रेन ट्यूमर के उपचार में बड़ा बदलाव होगा। इसे विशेषरूप से ग्लियोब्लास्टोमा, जो सबसे घातक कैंसर माना जाता है, के रोगियों के उपचार के रूप में इसे एक महवपूर्ण खोज माना जा रहा है। ग्लियोब्लास्टोमा कैंस से पीड़ित रोगी अधिक से अधिक 15 माह तक ही जीवित रह सकता है। 
    मस्तिष्क में कैंसर कोशिकाएं संज्ञानात्मक क्षमताओं से सम्बद्व मस्तिष्कीय हिस्से की स्वस्थ्य कोशिकाओं पर तेजी से हमला करती हैं, जिसके कारण आरम्भ में प्रभावित व्यक्ति की विभिन्न संज्ञानात्मक क्षमताएं- जैसे सुनना, देखना, संूघना एवं मसूस करने की क्षमताएं समाप्त हो जाती हैं और अन्त में उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। 
माइन्ड को हाईजैक कर लेता कैंसर
    केरल के तिरूवनंतपुरम की रहने वाली कृष्णा ने बताया कि इस अप्रत्याशित खोज के माध्यम से ज्ञात हुआ कि घातक कैंसर कोशिकाएं, अपने आसपास के मानसिक ऊतकों को हाईजैक कर उनका पुनर्गठन करती हैं। इसके द्वारा उपन्न अतिसक्रियता के चलते ही संज्ञानात्मक प्रक्रिया में कमी आती है।, जो इससे प्रभावित पीढ़ितों के जीवित रहने की अवधि को कम कर देती है। 
आगामी समय में ट्यूमर को रोकना भी सम्भव होगा
    शोध की प्रमुख लेखिका सरिता कृष्णा ने बताया कि शोध के दौरान यह भी ज्ञात हुआ कि व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली एंटी-सीजर दवाओं के माध्यम से कैंसर ग्रस्त कोशिकाओं में होने वाली तीव्र वृद्वियों को मंद करते हुए इनकी इस वृद्वि को पूर्णरूप से रोक पाना भी सम्भव हो सकेगा। 
    सरिता कृष्णा के अनुसार शोध के दौरान सबसे अधिक महत्वपूर्ण जानकारी यह सामने आई है कि मस्तिष्क की स्वस्थ्य कोशिकाओं एवं कैंसर कोशिकाओं के मध्य होने वाले संचार में बदलाव करते हुए ट्यूमर की विकास प्रक्रिया को मंद करते हुए इन्हें बढ़ने से रोका भी जा सकता है।
गैबापेंटिन से मौतों को भी रोका जा सकता है-
    इस खोज के पश्चात् उन्होने ब्रेन ऑर्गेनोइइस (मानव स्टेम कोशिकाओं से प्राप्त न्यूरॉन्स के छोटे बंड़लों एवं मानव ग्लियोब्लास्टोमा कोशिकाओं के साथ सम्बद्व माउस मॉडल) का उपयोग कर ट्यूमर कोशिकाओं के व्यापक जैविक लक्षणों का अध्ययन भी किया गया। 
    इस अध्ययन के अंतर्गत न्यूरोनल हाइपरएक्सिटैबिलिटी में थ्रोम्बोस्पोन्डिन-1 नामक प्रोटीन की महत्वपूर्ण भूमिका भी सामने आई है, जो कि एंटी-सीजर दवाओं के गैबापेंटिन के साथ मिलकर न्यूरोनल हाइपरएक्सिटैबिलिटी को कम कर ट्यूमर के विकास को भी रोकती है। 
लेखकः डॉ0 दिव्याँशु सेंगर, प्यारे लाल शर्मा, जिला अस्पताल में मेडिकल ऑफिसर हैं।