गम्भीर थैलेसीमिया रोग का निवारण Publish Date : 10/05/2024
गम्भीर थैलेसीमिया रोग का निवारण
डॉ0 दिव्यांशु सेंगर एवं मुकेश शर्मा
यदि जागरूकता के साथ बचाव के उपाय किए जाएं, तो थैलेसीमिया को नियंत्रित किया जा सकता है। जानें उपचार की नई विधाएं इस बीमारी को नियंत्रित करने के साथ-साथ कैसे इसे खत्म करने में प्रभावी सिद्व हो रही हैं-
थैलेसीमिया एक तरह का आनुवांशिक रक्त विकार है, जिससे शरीर में पर्याप्त हीमोग्लोबिन नहीं बन पाता। हमारे रक्त को लाल कणिकाओं में मौजूद हीमोग्लोबिन आक्सीजन वाहक होता है और इससे शरीर को ऊर्जा मिलती है। जब हीमोग्लोबिन की मात्रा कम हो जाए तो उसे एनीमिया कहा जाता है। इससे कमजोरी, जल्दी थकान आने, शरीर में पीलापन आने जैसी विभिनन समस्याएं उभरने लगती हैं।
थैलेसीमिया भी एक विशेष तरह का एनीमिया ही होता है। इस रोग में व्यक्ति में जन्म से ही हीमोग्लोबिन सामान्य से कम बनता है। इस बीमारी में हमारी जेनेटिक मशीनरी उचित ढंग से काम नहीं कर पाती है।
थैलेसीमिया माइनर एक बहुत आम समस्याः
थैलेसीमिया दो प्रकार का होता है। माइनर थैलेसीमिया और मेजर थैलेसीमिया। थैलेसीमिया माइनर अपने आप में बहुत आम है, हालांकि इसमें मरीज को ज्यादा समस्या नहीं होती, पर उसका हीमोग्लोबिन सामान्य से थोड़ा कम ही बना रहता है। सामान्य वयस्क की बात करें तो हीमोग्लोबिन की मात्रा पुरुषों में 13 प्रतिशत और महिलाओं में 12 प्रतिशत होनी चाहिए। थैलेसीमिया माइनर में यह 10 से 12 प्रतिशत के बीच ही रह जाती है।
अधिकतर लोगों को पता भी नहीं चलता, क्योंकि उनका शरीर हीमोग्लोबिन के उसी स्तर के शुरुआती लक्षण मुताबिक जन्म से ही ढल चुका होता है। कई बार ऐसे लोगों को रिपोर्ट देखकर अनावश्यक आयरन की दवाएं दे दी जाती हैं। ऐसा करने से नुकसान हो सकता है, क्योंकि ऐसे लोगों को आयरन की कमी नहीं होती ।
थैलेसीमिया मेजर एक गंभीर समस्या, पर उपचार भी है:
थैलीसीमिया का दूसरा प्रकार है मेजर, जो कि एक गंभीर समस्या है। इसमें जन्म के बाद से हीमोग्लोबिन बनना बंद हो जाता हैं बच्चे के जन्म के छह महीने बाद ही इस बीमारी का पता चल जाता है। हीमोग्लोबिन नहीं बनने से बच्चे का विकास अवरुद्ध होता है। सही उपचार नहीं मिलने पर जान पर जोखिम भी बन आता है।
थैलेसीमिया की आशंका:
भारत में थैलेसीमिया माइनर के जीन करीब तीन से चार प्रतिशत लोगों में मौजूद हैं। लेकिन, कोई स्पष्ट लक्षण नहीं उभरने से ज्यादातर लोगों को इसके बारे में पता नहीं होता है। यदि माइनर के दो लोगों का आपस में विवाह होता है, तो बच्चे में 25 प्रतिशत तक थैलेसीमिया मेजर होने की आशंका होती है। हालांकि, माइनर होने की आशंका 50 प्रतिशत तक ही होती है और 25 प्रतिशत मामलों में ही थैलेसीमिया के जीन के नहीं आने की संभावना भी होती है। कुल मिलाकर, मेजर होने की आशंका बहुत कम होती है।
उपचार की बढ़ी सुविधाओं का विकास:
थैलेसीमिया मेजर का आज सहजता से उपचार संभव है। बच्चे के जन्म के छह महीने भीतर ही नियमित खून चढ़ाने की आवश्यकता होती है। आज देश के हर जिले में ब्लड बैंक की सुविधा है, जिससे जीवन बचाना पहले से आसान हुआ है। हीमोग्लोबिन 10 के आसपास रखने से बच्चे का विकास सामान्य रूप से होता रहता है।
आयरन की अधिकता रोकने के लिए किलेशन थेरेपी: नियमित रक्त देने से शरीर में आयरन की मात्रा बढ़ जाती है। यह एक ऐसा यौगिक है जिसे शरीर बहुत नियंत्रित करके रखता है। दरअसल, शरीर में ऐसी कोई व्यवस्था उपलब्ध नहीं है, जो अतिरिक्त आयरन को बाहर निकाल सकें। लाल कणिकाओं से आयरन एकत्र होने लगता है। यह लिवर और हार्ट जैसे अंगों को नुकसान पहुंचाता है। ऐसे में थैलेसीमिया मेजर के मरीज की एक समय के बाद किलेशन थेरेपी शुरू कर दी जाती है।
थैलेसीमिया के आम्भिक लक्षण:
- बच्चे के विकास और वजन में ठहराव
- पेट में सूजन, शरीर का पीला पड़ जाना
- बच्चे का लगातार असामान्य रहना
कितनी गंभीर है यह समस्या
देश में हर साल औसतन 10-15 हजार थैलेसीमिया मेजर से ग्रसित बच्चे पैदा होते हैं। अभी देश एक से डेढ़ लाख लोग मेजर से ग्रसित हैं। इसमें हर साल 10-12 हजार नए मामले जुड़ जाते हैं। भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा थैलेसीमिया के मरीज हैं। बीते कुछ वर्षों से जिला अस्पतालों में निश्शुल्क रक्त और किलेशन की दवाएं मिल रही हैं।
इसमें बचाव ही सबसे बेहतर उपाय है और उसके लिए हम सबको जागरूक होना होगा। अगर पहले से थैलेसीमिया माइनर के बारे में पति-पत्नी को पता चल जाए, तो गर्भकाल के दौरान ही भ्रूण की जांच कराई जा सकती है। आजकल प्रेग्नेंसी की शुरुआत में ही एचपीएलसी टेस्ट कराया जाता है। अगर हर गर्भवती का टेस्ट करके थैलेसीमिया माइनर को कन्फर्म कर लिया जाए, तो बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है।
बोन मैरो ट्रांसप्लांट से प्रभावी उपचार
थैलेसीमिया मेजर को बोन मैरो ट्रांसप्लांटेशन से भी समाप्त किया जा सकता है। इसमें बच्चे के डीएनए को स्वजन से मैच करते हैं, खासकर सगे भाई-बहनों से। सही डोनर के मिल जाने पर बोन मैरो को ट्रांसप्लांट किया जाता है। इससे मरीज को बोन मैरो देकर बीमारी को खत्म कर दिया जाता है। इससे खून बनने का सिस्टम ही बदल जाता है। यह तरीका इस बीमारी को पूरी तरह खत्म कर सकता है। देश के बड़े शहरों में बोन मैरो ट्रांसप्लांट की सुविधा आसानी से उपलब्ध है ।
कैसे पता लगाएं
हीमोग्लोबिन के स्तर से पता चल जाता है। सीबीसी जांच के अलावा एचपीएलसी टेस्ट से बीमारी का पता किया जाता है और थैलेसीमिया को कन्फर्म किया जाता है।
लेखक: डॉ0 दिव्यांशु सेंगर, प्यारे लाल शर्मा जिला अस्पताल मेरठ में मेडिकल ऑफिसर हैं।