केले का उत्पादन उत्तक संवर्धन की तकनीक से      Publish Date : 09/02/2025

               केले का उत्पादन उत्तक संवर्धन की तकनीक से

                                                                                                                                          प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

उत्तक संवर्धन (टिश्यू कल्चर) आखिर है क्या?

                                                               

एक परखनली में बहुत नियंत्रित एवं स्वच्छ स्थितियों में पौधे के एक हिस्से या एक कोशिका समूह के उपयोग द्वारा पौधे के प्रसार को ‘टिश्यू कल्चर’ कहा जाता है।

कृषि जलवायु

केला मूलतः एक उष्णकटिबंधीय फसल है तथा 13 से -38 सें तापमान की रेंज में एवं 75-85 प्रतिशत की सापेक्षिक आर्द्रता में अच्छी तरह बढ़ती है। भारत में ग्रैन्ड नाइन जैसी उचित किस्मों के चयन के माध्यम से इस फसल की खेती आर्द्र कटिबंधीय से लेकर शुष्क उष्णकटिबंधीय जलवायु में भी की जा रही है।

शीत: शीत के कारण होने वाले नुकसान 12 सें0 से निचले तापमान पर होते है। केले की सामान्य वृद्धि 18 सें से शुरू होती है, 27 सें पर इष्टतम होती है, उसके बाद गिरकर 380C सें पर रूक जाती है। धूप की वजह से उच्च तापमान फसल को झुलसा देता है। 80 किमी प्रति घंटे से अधिक वेग की वायु भी फसल को नुकसान पहुँचा देती है।

मिट्टी

केले के लिए मिट्टी में अच्छी जल निकासी, उचित प्रजनन क्षमता तथा उचित नमी उपलब्ध होनी चाहिए। केले की खेती के लिए गहरी, चिकनी बलुई मिट्टी, जिसकी पी.एच. 6-7.5 के बीच हो, सबसे अधिक अच्छी मानी जाती है। खराब जल निकासी, वायु के आवागमन में अवरोध एवं पोषक तत्वों की कमी वाली मिट्टी केले के लिये अनुपयुक्त होती है। नमकीन, ठोस कैल्शियम युक्त मिट्टी, केले की खेती के लिए अनुपयुक्त होती है। निचले इलाकों की, अत्यंत रेतीली एवं गहरी काली सूखी, खराब जल निकासी वाली मिट्टी से बचें।

केलों के लिये ऐसी मिट्टी अच्छी होती है जिसमें अधिक अम्लता या क्षारीयता न हो, जिसमें अधिक नाइट्रोजन के साथ कार्बनिक पद्धार्थ की प्रचुरता हो एवं भरपूर पोटाश के साथ फॉस्फोरस का उचित स्तर हो।

किस्में

                                                                

भारत में केला विभिन्न परिस्थितियों एवं उत्पादन प्रणालियों के तहत उगाया जाता है। इसलिए किस्मों का चुनाव विभिन्न जरूरतों एवं परिस्थितियों के हिसाब से उपलब्धत कई किस्मों में से किया जाता है। लेकिन, लगभग 20 किस्में जैसे ड्वार्फ कैवेंडशि, रोबस्टास, मोन्थ न पूवन, नेन्ट्रीन, लाल केला, नाइअली, सफेद वेलची, बसराई, अर्धापूरी, रस्थाडली, कर्पुरवल्लीस, करथली, एवं ग्रैन्डेनाइन आदि प्रजातियां अधिक प्रचलित हैं। ग्रैन्डनाइन लोकप्रियता अर्जित कर रहा है तथा अच्छी गुणवत्ता के गुच्छों के फलस्वरूप पसंदीदा किस्म बन सकता है। गुच्छों में अच्छी दूरी पर, सीधे तथा बड़े आकार के फल होते है। फल में आकर्षक, एक समान पीला रंग आता है, उसकी बेहतर स्व-जिंदगी होती है।

भूमि तैयार करना

                                                            

केला रोपने से पहले डाइन्चान, लोबिया जैसी हरी खाद की फसल उगाएं एवं उसे जमीन में मिला दें। जमीन को 2-4 बार जोतकर समतल किया जा सकता है। पिंडों को तोड़ने के लिए राटोवेटर या हैरो का उपयोग करें तथा मिट्टी को उचित ढलाव दें। मिट्टी तैयार करते समय थ्ल्ड की आधार खुराक डालकर अच्छी तरह से मिला दी जाती है।

सामान्यतः 45 सेंमी x 45 सेंमी x 45 सेंमी के आकार के एक गड्ढे की आवश्यकता होती है। गड्ढ़ों का 10 किलो FYM (अच्छी तरह विघटित हो), 250 ग्राम खली एवं 20 ग्राम कॉन्बोफ्यूरॉन मिश्रित मिट्टी से पुनः भराव किया जाता है। तैयार गड्ढ़ों को सौर विकिरण के लिए छोड़ दिया जाता है, जो हानिकारक कीटों को मारने में मदद करता है, मिट्टी जनित रोगों के विरुद्ध कारगर होता है तथा मिट्टी में वायु मिलने में मदद करता है। नमकीन क्षारीय मिट्टी में, जहाँ पी.एच. 8 से ऊपर हो, गड्ढे के मिश्रण में संशोधन करते हुए कार्बनिक पदार्थ को मिलाना चाहिए।

रोपने की सामग्री

लगभग 500-1000 ग्राम वजन के सॉर्ड सकर्स, सामान्यतः प्रसार सामग्री के रूप में उपयोग किये जाते है। सामान्यतः सकर्स कुछ रोगज़नक़ों एवं नीमाटोड्स से संक्रमित हो सकते है। इसी प्रकार सकर की आयु एवं आकार में भिन्नता होने पर फसल एक समान नहीं होती है, फसल कटाई की प्रक्रिया लंबी हो जाती है और उसका प्रबंधन मुश्किल हो जाता है।

इसलिए, इन विट्रो क्लोनल प्रसार में टिश्यू कल्चर में, रोपाई के लिये पौधों की सिफारिश की जाती हैं। वे स्वस्थ, रोग मुक्ति, एक समान तथा प्रामाणिक होते हैं। रोपने के लिये केवल उचित तौर पर कठोर, किसी अन्य विधि से उत्पन्न पौधों की सिफारिश की जाती है।

टिश्यू कल्चर रोपाई सामग्री के फायदे

  • अच्छे प्रबंधन के साथ केवल मातृ पौधे।
  • कीट और रोग मुक्त विकसित छोटे पौधे।
  • एक समान बढ़त, अधिक पैदावार।

कम समय में फसल की परिपक्वता –

  • भारत जैसे कम भूमि स्वामित्व वाले देश में जमीन का अधिकतम उपयोग संभव है।
  • वर्ष भर रोपाई संभव है क्योंकि विकसित छोटे पौधे वर्ष भर उपलब्ध कराये जाते हैं।
  • कम अवधि में एक के बाद एक, दो अंकुरण संभव हैं जो खेती की लागत कम कर देते हैं।
  • बगैर अंतर के कटाई।
  • 95 से 98 प्रतिशत पौधें में गुच्छे लगते हैं।
  • कम अवधि में नई किस्में पेश की जा सकती व बढ़ाई जा सकती है।

रोपाई का समय

टिश्यू कल्चर केले की रोपाई वर्ष भर में कभी भी की जा सकती, सिवाय उस समय के जब तापमान अंतराल कम या अत्यन्त अधिक हो। ड्रिप सिंचाई प्रणाली की सुविधा महत्वपूर्ण है।

ग्रैन्डानाइन किस्म के लिये फसल की ज्यांमिति

                                                                    

रोपाई का तरीका

पौधे की जड़ीय गेंद को छेड़े बगैर उससे पॉलीबैग को अलग किया जाता है तथा उसके बाद छद्म तने को भूस्तकर से 2 सें.मी. नीचे रखते हुए पौधों को गड्ढ़ों में रोपा जा सकता है। अधिक गहरे रोपण से बचना चाहिए।

जल प्रबंधन

केला, एक पानी से प्यार करने वाला पौधा है, अधिकतम उत्पादकता के लिए पानी की एक बड़ी मात्रा की आवश्यकता मांगता है। लेकिन केले की जड़ें पानी खींचने के मामले में कमजोर होती हैं। अतः भारतीय परिस्थितियों में केले के उत्पादन में दक्ष सिंचाई प्रणाली, जैसे ड्रिप सिंचाई की मदद ली जानी चाहिए।

केले के जल की आवश्यकता, गणना कर 2000 मिली मीटर प्रतिवर्ष निकाली गई है। ड्रिप सिंचाई एवं मल्चिंग तकनीक से जल के उपयोग की दक्षता में बेहतरी की रिपोर्ट है। ड्रिप के ज़रिये जल की 56 प्रतिशत बचत एवं पैदावार में 23-32 प्रतिशत वृद्धि होती है।

पौधों की सिंचाई रोपने के तुरन्त बाद करें। पर्याप्त पानी दें एवं खेत की क्षमता बनाये रखें। आवश्यचकता से अधिक सिंचाई से मिट्टी के छिद्रों से हवा निकल जाएगी, फलस्वरूप जड़ के हिस्सें में अवरोध उत्पन्न होकर पौधे की स्थापना और विकास प्रभावित होगें। इसलिए केले के लिए ड्रिप पद्धति उचित जल प्रबंधन के लिये अनिवार्य है।

फर्टिगेशन

केले को काफी मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, जो मिट्टी द्वारा कुछ ही मात्रा में प्रदाय किये जाते हैं। अखिल भारतीय स्तर पर पोषक तत्वों की आवश्यकता 20 किग्रा FYM, 200 ग्राम नाइट्रोजन; 60-70 ग्राम फॉस्फोरस; 300 ग्राम पोटैशियम प्रति पौधा आंकी गई है।

केले को अत्येधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। केले की फसल को 7-8 किलोग्राम नाइट्रोजन, 0.7-1.5 किलोग्राम फॉस्फोरस और 17-20 किलोग्राम पोटैशियम प्रति मीट्रिक टन पैदावार की आवश्यकता होती है। पोषक तत्व प्रदान करने पर केला अच्छे नतीज़े देता है। परंपरागत रूप से किसान अधिक यूरिया तथा कम फॉस्फोरस एवं पोटाश का इस्तेमाल करते हैं।

परम्परागत उर्वरकों में से पोषक तत्वों के नुकसान को बचाने के लिये यानि लीचिंग, उड़ाव, वाष्पीकरण द्वारा नाइट्रोजन का नुकसान तथा मिट्टी से जुड़ने द्वारा फॉस्फोरस एवं पोटैशियम का नुकसान बचाने के लिए ड्रिप सिंचाई (फर्टिगेशन) द्वारा जल में घुलनशील या तरल उर्वरकों का उपयोग प्रोत्साहित किया जाता है। फर्टिगेशन द्वारा पैदावार में 25-30 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। इसके अलावा, यह श्रम तथा समय की बचत करता है एवं इससे पोषक तत्वों का वितरण एक समान होता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।