फालसा की खेती      Publish Date : 04/02/2025

                                  फालसा की खेती

                                                                                                                                               प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु

फालसा के खेती की विधि वितरण एवं उत्पत्ति स्थान वानस्पतिक विवरण जातियाँ है जिनमें से 40 जातियाँ भारत में पायी जाती है। फालसा (ग्रिविया सबइनेइक्वेलिस) के अलावा ग्रिविया एलास्टिका किस्म वेस्टीटा जंगली रूप में कम ऊँची पहाडियों एवं पहाड़ों के तलहटी में पायी जाती है। इसके अलावा ग्रिविया वंश के अन्तर्गत ग्रिविया गलेब्रा, ग्रिमाइकोकस, ग्रि. आप्टिवा, ग्रि. टिलिफोलिया, ग्रि. बिलोसा फालसा का पौधा झाड़ीनुमा होता है। इसमे बंगाली आदि जातियाँ भी आती है।

                                                       

फालसा का फल अण्ठिल होता भाषा में धामिनी भी कहते हैं। इसका फल हल्का अम्लीय है। खाने में फल का स्वाद खटासयुक्त मीठा होता है। प्रकृति का होता हैं जिसमें विटामिन ए एवं विटामिन सी इसके फूल पीले रंग के उभयलिंगी होते है। फूलों के खिलने प्रचुर मात्रा में पायी जाती हैं। इसके फल के सेवन से बुखार, पर तापमान व आर्द्रता का अधिक प्रभाव पड़ता है। कब्ज, हृदय रोग, खून की खराबी व सूजन में लाभदायक परागकण बडे (6.13 माइक्रोन्स) व अधिक जनन क्षमता होता है।

फल का उपयोग रस व स्कवैश बनाने में भी करते (70-75 प्रतिशत) वाले होते हैं। फल का खाद्य भाग गूदा हैं लेकिन फल स्वादिष्ट होने के कारण करीब 80 प्रतिशत होता है। जो पूरे फल का 69 प्रतिशत होता है। उपयोग ताजा खाने में होता है। पेड़ की छाल का चिपचिपा पदार्थ (गोंद) गुड़ बनाते समय गन्ने के रस के निर्मलीकरण काम में लाया जाता है।:फालसा के लिए जल निकास युक्त दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती है। इसकी खेती कंकड़-पत्थर युक्त, फालसा की उत्पत्ति का स्थान भारत है।

वैदिक ग्रन्थों में इसके औषधीय गुणों का वर्णन मिलता है। इसकी खेती क्षारीय व कमजोर भूमि में भी आसानी से की जा सकती है। जल भराव वाले क्षेत्रों में इसकी खेती नहीं की जा सकती है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और पंजाब आदि राज्यों में इसका उत्पादन कम होता है। फालसा उष्ण जलवायु का पौधा है जो बिहार, पश्चिम बंगाल के पहाड़ी क्षेत्र तथा मालाबार (केरल) पौधा है। इसकी ग्रिविया एलास्टिका किस्म वेस्टिटा पहाड़ों में उगाई जाती है।

                                                                     

फालसा की बागवानी उत्तर प्रदेश, पंजाब की तलहटी में प्राकृतिक रूप से पनपती है। जबकि अन्य हरियाणा, मध्य प्रदेश राजस्थान व आन्ध्र प्रदेश के शहरी जातियाँ मैदानी भागों में सफलतापूर्वक उगायी जा सकती हैं। अतः इसकी खेती इन्हीं क्षेत्रों के आस-पास ही की जाती है। इसका पौधा पर्णपती होता हैं, इसलिए भण्डारण क्षमता कम होती है। फालसा पर पाले का असर की नहीं होता है और यह सूखा प्रतिरोधी भी है, जिससे इसकी बागवानी बरानी क्षेत्रों में भी की जा सकती है। इसके पौधे समुद्रतटीय आर्द्र स्थानों पर भी उगाये जा सकते है। यह टिलिएसी कुल का पौधा है। इस कुल मे पुष्पन शुष्क मौसम अच्छा रहता है।

बारानी क्षेत्रों में फालसा की वैज्ञानिक खेती से अधिक लाभ कमाना और फलों की गुणवत्तायुक्त उत्पादन के लिए आवश्यक है। ऐसे बीज की बुवाई नर्सरी में लाइन से लाइन की दूरी 25 सेमी क्षेत्र जहाँ पर ठंडक के मौसम में ठंड कम पड़ती है वहाँ पर बीज से बीज की दूरी 5 सेमी रखते है। बीज से तैयार फालसा के पौधे की पत्तियाँ नही गिरती है। जिससे उत्पादन पौधां में काफी हद तक बना रहता है।

फालसा के पौधे को फरवरी माह में लगाना फालसा का प्रवर्धन कलम द्वारा भी कर सकते हैं। इसके लिए पकी शाखा से कलम काटकर लगाते है। क्योंकि इस समय पौधा सुषुप्तावस्था में पी.पी.एम. इन्डोल ब्यूटारिक अम्ल में 2-3 मिनट तक रहता हैं तथा पौधे को मिट्टी के पिन्डी के बिना भी नर्सरी से उपचार करके जुलाई-अगस्त के माह में लगाते हैं।

कलम निकाल कर यथास्थान पर लगाया जा सकता है। कलम को पौधे की सुषुप्तावस्था में भी लगा सकते हैं, उपचारित जुलाई-अगस्त में पौधों का रोपण पिन्ड सहित करते हैं। कलम लगाने से जड़े शीघ्र व अधिक निकलती है। रोपण हेतु 8-10 माह पुराना पौधा अच्छा रहता है। पौधा का रोपण स्थाई स्थान पर 3 मी. x 3 मी. के फासले पर फालसा का पौध प्रसारण गूटी बांध कर भी कर करते हैं। इसके पौधे को सघन बागवानी के रूप में लगा सकते हैं।

गूटी के लिए चयनित शाखा को 5000 पी.पी.एम 20-30 प्रतिशत की अतिरिक्त आमदनी प्राप्त कर सकते है। इन्डोल ब्यूटारिक अम्ल या एन.ए.ए. से उपचार करने पर सघन बागवानी हेतु पौधों को सुयक्त पंक्ति पद्धति में लगाने पर शत-प्रतिशत सफलता मिलती है।

                                                                   

दाब तथा ठूँठ प्ररोह दाब हैं इसके लिए दो पौधों को एक साथ 0.60 मीटर की दूरी पर द्वारा भी पौधे तैयार किये जा सकते हैं। इसके बाद दूसरा जोड़ा 3.0 मीटर छोड़कर लगाते मृदु शाख कलम द्वारा भी पौधे तैयार किये जा हैं। इस प्रकार 3.0 मीटर के फासले पर 2-2 पौधे सकते हैं। इसके लिए मूलवृन्त के पौधे की पत्तियाँ ग्राफ्टिंग मीटर की दूरी पर लगाते है, पौध लगाने से पूर्व 60 घन सेमी. से 10 दिन पहले तोड़ लेते हैं। इसके बाद एक वर्ष पुराने के आकार के पौधे में सुगन्ध तथा स्वाद बना रहता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।