मोटे अनाजों के परिप्रेक्ष्य में एक बहुत ही सुन्दर कविता Publish Date : 28/10/2024
मोटे अनाजों के परिप्रेक्ष्य में एक बहुत ही सुन्दर कविता
यह ‘‘रागी’’ हुई अभागी क्यों?
चावल की किस्मत जगी क्यों?
जो ‘‘ज्वार’’ जमी थी जन-मानस में,
गेहूँूँ के डर से वह भागी क्यों?
यूँ होता श्वेत ‘‘झंगोरा’’ है।
यह धान सरीखा गोरा है।
पर यह भी हारा है गेहूँ से,
इसका हर कहीं ढिंढ़ोरा है!
जाने कितने थे श्रीअन्न अपने यहाँ?
एक-दूजे से थे प्रसन्न यहाँ।
जब आया दौर सफेदी का,
हो गए मगर सब खिन्न यहाँ।
अब कहाँ है वो ‘‘कोदो’’-‘‘कुटकी’’ है?
‘‘साँवाँ’’ की काया भटकी है।
संन्यासी हुआ ‘‘बाजरा’’ अब,
गुम हुई ‘‘काँगणी’’ छुटकी है।
अब जिसका रंग सुनहरा है।
सब तरफ उन्हीं का पहरा है।
अब कौन सुने मटमैलों की,
गेहूँ का साया बहुत गहरा है।
यह देता सबसे कम पोषण।
और करता है ज्यादा शोषण।
तोहफे में दिए रसायन अर
माटी-पानी का अवशोषण।
यह गेहूँ अब धनी-सेठ बना।
उपभोगी मोटा पेट बना।
जो हज़म नहीं कर पाए हैं,
उनकी चमड़ी का फेट बना।
अब फिर से आएँगे दिन ‘‘रागी’’ के।
उस ‘‘कुरी’’, ‘‘बटी’’, बैरागी के।
जब ‘‘राजगिरा’’ फिर आएगा
और ताज गिरें बड़भागी के।
जब हमला हो ‘‘हमलाई’’ का।
छँट जाए भरम मलाई का।
चीनी पर भारी ‘‘चीना’’ हो,
टूटेगा बंध हर कलाई का।
बीतेगा दौर गुलामी का।
गोरों की और सलामी का।
जो बची धरोहर अपनी है,
गुज़रा अब वक्त नीलामी का।
नोट:- रागी, ज्वार, झंगोरा, कोदो, कुटकी, साँवाँ, बाजरा, काँगणी, कुरी, बटी, राजगिरा, हमलाई, चीना ये सब विभिन्न प्रकार के अन्न (Millets) हैं, जो गेहूँ और चावल की साज़िश के शिकार हुए हैं। यह कविता एक प्रतीकात्मक है, जो मात्र अनाजों तक सीमित नहीं है।