वर्षा जल संग्रहण-सब्जियों एवं खाद्यान्न फसल उत्पादन में इसका महत्व      Publish Date : 12/06/2025

                              वर्षा जल संग्रहण-सब्जियों एवं खाद्यान्न फसल उत्पादन में इसका महत्व

                                                                                                                                      प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि एवं बागवानी पर आधारित है। यहाँ विभिन्न प्रकार की मिट्टी एवं फसलोत्पादन के अनुरूप उपयुक्त जलवायु एवं मेहनतकश लोग हैं। खासकर बेमौसमी सब्जियों के लिए यहाँ की जलवायु अत्यन्त लाभकारी है। प्रदेश में लगभग 80 प्रतिशत कृषि वर्षा पर आधारित है। इस वर्षों का 80 प्रतिशत भाग 15 जून से 15 सितम्बर तक हो जाता है तथा 20 प्रतिशत भाग शेष 9 महीनों में होता है। वर्षा के इस प्रकार के बंटवारे से खरीफ एवं रबी फसलों की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध नहीं होता है।

फलस्वरूप सभी फसलों की पैदावार बहुत कम होती है। पानी की समस्या को मद्देनजर रखते हुये यदि हम वर्षा व किसी भी अन्य स्रोत के जल का संग्रहण करके उसका सदुपयोग करें तो सब्जियों एवं फसलों के उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।

वर्षा जल संग्रहण से अभिप्राय है वर्षा जल का एकत्रीकरण करना व उसकी उत्पादन क्षमता बढ़ाना जो किसी भी क्षेत्र में हो सकती है। इस जल का एकत्रीकरण किसी भी स्रोत से किया जा सकता है। जैसे नदी, नाले, कुहल, झरना व छत का पानी इत्यादि। वर्षा जल संग्रहण किसी भी क्षेत्र में किया जा सकता है चाहे वह अधिक वर्षा या कम वर्षा जल क्षेत्र हो, पहाड़ी क्षेत्र हो या मैदानी इन सभी क्षेत्रों में वर्षा जल संग्रहण का विशेष महत्व है। प्रायः जल संग्रहण दो तरह से किया जा सकता है।

1. जलागम आधारित एवं

2. व्यक्तिगत किसान आधारित।

जलागम आधारितः जलागम आधारित वर्षा जल संचय में पूरे जलागम का पानी बड़े-बड़े तालाबों में इकट्ठा किया जाता है तथा उसका उपयोग उस जलागम में रहने वाले सभी लोग करते हैं। इस विधि में जलागम में रहने वाले लोगों के अतिरिक्त कई सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं की भागीदारी अनिवार्य है। इस जलागम का क्षेत्रफल कुछ हैक्टेयर से लेकर कई किलोमीटर तक हो सकता है। परन्तु कृषि प्रधान जलागम प्रायः 500 हैक्टेयर तक ही किये जाते हैं। इस विधि की सफलता प्रत्येक भागीदारी की कार्यक्षमता, ईमानदारी व रुचि पर निर्भर करती है।

व्यक्तिगत किसान आधारितः व्यक्तिगत किसान आधारित जल संग्रहण में एक ही किसान परिवार अपने ही खेत में वर्षा जल इकट्ठा करता है तथा उसका कृषि उत्पादन में प्रयोग करता है। इस विधि में वर्षा जल छोटे-छोटे तालाबों में इकट्ठा किया जाता है। इस विधि की सिफारिश प्रायः उन पहाड़ी क्षेत्रों में करते हैं जहां किसानों के पास कृषि योग्य भूमि कम होती है। इस विधि से पानी इकट्ठा करने में लागत भी कम आती है और इसकी सफलता की संभावनाएं भी अधिक होती है। छोटे तालाबों में पानी करने हेतु निम्न बातों को ध्यान में रखना अति आवश्यक है।

उचित स्थान का चुनाव

2. तालाब का आकार एवं

3. क्षमता

यह तालाब ऊंचे स्थान पर होना चाहिए ताकि इकट्ठा किया गया वर्षा का जल निचले क्षेत्र में गुरूत्वाकर्षण से ही फसल की सिंचाई के लिए प्रयोग किया जा सके। ध्यान रहे कि तालाब के ऊपरी भाग में वर्षा दोहन क्षेत्र काफी पक्का रास्ता हो तो वह सोने पर सुहागे के समान होगा। इन तालाबों का लाभ उन क्षेत्रों में और भी अधिक है जहां सरकार द्वारा उठाऊ जल परियोजनाएं चलाई जा रही है। तालाब बनाते समय इस बात का ध्यान रखें कि तालाब में दीवारों की ढलान 1ः1 के अनुपात में हो। एक कनाल जमीन के लिए लगभग 100-200 घन मीटर क्षमता का टैंक होना चाहिए।

कच्चे तालाबों में पानी का रिसाव अत्यधिक होता है। इस रिसाव को रोकने के लिए जल अवरोधक पदार्थ का प्रयोग अति आवश्यक है। यह पदार्थ विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं जैसे चिकनी मिट्टी, कोलतार, सीमेन्ट, कंकरीट व पॉलीथीन शीट इत्यादि। शोध के अनुसार नीली पॉलीथीन शीट (सिलपालिन) का प्रयोग अति उत्तम हैं। इस शीट पर सूर्य की किरणों का कम प्रभाव पड़ता है। इसलिए यह बिना ढके भी 5-6 वर्ष तक खराब नहीं होती। इस शीट की कीमत लगभग 60 रूपये/वर्ग मीटर है। यदि इस पॉलीथीन शीट वाला 100 घन मीटर क्षमता का टैंक बनाना हो तो उसके लिए लगभग 13,000 से 15,000 रूपये तक खर्चा आता है अर्थात एक घन मीटर पानी इकट्ठा करने के लिए लगभग 130-150 रूपये खर्च होंगे।

छोटे तालाबों में इकट्ठे किये गये इस पानी का प्रयोग किसानों को अधिकतर सब्जी उत्पादन के लिए करना चाहिए। इसका प्रयोग खाद्य फसलों में बिजाई से. पहले या फसल को सूखने से बचाने के लिए सिंचाई के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इस पानी के प्रयोग से एक साल में सब्जियों की चार फसलें उगाई जा सकती हैं।

प्रायः देखा गया है कि किसान पानी को सिंचाई के लिए कच्ची नालियों द्वारा ले जाकर खेत में खुला छोड़ देते हैं जिसे फ्लड इरीगेशन कहा जाता है इस विधि से पानी उपयोग क्षमता लगभग 40 से 50 प्रतिशत तक रह जाती है और शेष पानी व्यर्थ चला जाता है। परन्तु सिंचाई की नई विधियों से जैसे फुव्वारा व टपकन विधि और व्यर्थ वनस्पति पदार्थ का आवरण के रूप में प्रयोग करने से जल उपयोग क्षमता लगभग 85 से 90 प्रतिशत तक बढ़ाई जा सकती है। इसके अतिरिक्त खेत में छोटी-छोटी नालियां बना कर उनमें सब्जियों की बिजाई/रोपाई करने वाली विधि भी बड़ी कारगर सिद्ध हुई है। हमारा किसानों से अनुरोध है कि वे इस बहुमूल्य पानी की एक बूंद भी व्यर्थ न गवाएं और इसका प्रयोग उन्हीं तरीकों से करें जिनमें पानी की उपयोग क्षमता से अधिक बढ़ सके।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।