जल प्रबन्धन नीति एवं समृद्विः जल-प्रशासन      Publish Date : 25/04/2025

         जल प्रबन्धन नीति एवं समृद्विः जल-प्रशासन

                                                                                                     प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

वर्तमान में भारत के विकास का वाहक माना जाने वाला गुजरात राज्य, 21वीं सदी के पहले दशक में पानी की कमी वाले राज्यों में से एक था, परन्तु वर्तमान में यह जल सुरक्षा वाला राज्य बन चुका है। पर्यावरण के अनुकूल नीतियों, जलवायु-स्थिति इंजीनियरिंग को अपनाने और जमीनी स्तर पर नेतृत्व को सुदृढ़ करने से यह राज्य पविर्तित हुआ यह राज्य, सतत विकास का एक अनुसरणीय उदाहरण है।

दो दशक पूर्व, इस क्षेत्र में पड़ने वाले बार-बार के सूखे और पानी की कमी, 26 जनवरी 2001 को कच्छ में आए विनाशकारी भूकम्प के कारण जीवन एवं आजीविका के नुकसान तथा संकुचित होती अर्थव्यवस्था के परिणामस्वरूप इस राज्य को आर्थिक संकट का भी सामना करना पड़ा। सामाजिक-आर्थिक विकास एवं आर्थिक विकास में पानी की कमी के नकारात्मक प्रभावों के अहसास ने, तत्कालीन मुख्यमंत्री को दीर्घकालिक जल-सुरक्षा को प्राप्त करने के लिए अपनी नीतियों तथा तरीकों में बदलाव करने के लिए प्रेरित किया। इसके अतिरिक्त, प्रकृति के स्वास्थ्य के साथ समझोता किए बिना चुनौतियों का सामना करने के लिए जल, पर्यावरण और पारिस्थितिकी तन्त्र के मध्य महत्वपूर्ण सम्बन्धों को स्वीकार किया गया इसके साथ ही इस दिशा में विभिन्न सुधार भी किए गए।

सुधार

    1990 के दशक के उत्तरार्ध में किसी ने यह कल्पना भी नही की होगी कि आने वाले समय में गुजरात ऐसा दिखाई देगा जैसा कि अब वह दिखाई देता है। इसके पश्चिमी एवं उत्तरी भाग भीषण सूखे के कारण सूख गए थे और कच्छ के बढ़ते रेगिस्तान ने वहाँ की आजीविका को बुरी तरह से प्रभावित किया था। मालधारी जैसे ग्राम्य समुदाय एक वृहद पैमाने पर पलायन करने के लिए विवश थे। उन्हें अपने पशुओं के लिए चारा और पानी आदि की तलाश में कच्छ एवं सौराष्ट्र से पूर्व की ओर जाना पड़ा।

इस अवधि के दौरान, यह राज्य विषम वर्षा की स्थितियों का भी सामना कर रहा था। मध्य एवं दक्षिण गुजरात में 80 से 200 से.मी. वर्षा, तो कच्छ जैसे क्षेत्रों में 40 से.मी. से भी कम वर्षा होती थी। असमान वर्षा के कारण औसतन प्रतिवर्ष सूखे का सामाना करना पड़ता था। पीने के पानी की कमी को पूरा करने के लिए तथा लोगों को पानी उपलब्ध कराने के लिए प्रतिवर्ष हजारों टैंकर इस कार्य में लगाए जाते थे और इस दौरान एक समय ऐसा भी आया कि जब विशेष जल-गाडियाँ पानी मुहया कराने का नया मानक बनकर उभरी।

राज्य एवं जिला प्रशासन ने इस प्रकार की अस्थाई व्यवस्थाओं के माध्यम से पानी की कमी के प्रबन्धन करने में काफी समय और संसाधन लगते थें, परन्तु जलभृत तथा पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भरपायी के लिए कोई कार्य नही किया गया।

    इन चुनौतियों से हमेशा के लिए पार पाने के लिए पानी को राज्य की विकास नीति के केन्द्र में रखा गया। राज्य के प्रत्येक घर में स्वच्छ जल को पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता कों सुनिश्चित करने का संकल्प ग्रहण करते हुए जल का संरक्षण एवं पारिस्थितिकी संतुलन को प्राप्त करने के लिए व्यवहार्य संसाधनों का पता लगाया गया। माँग एवं आपूर्ति के प्रबन्धन के लिए समग्र जल क्षेत्र के एकीकरण सहित नीतिगत निर्णयों की एक श्रृंखला के माध्यम से समस्त स्तरों पर सुसंगत रूप से जवाबदेही को सुनिश्चित् किया गया। दीर्घकालिक लक्ष्य, जल स्रोतों की संधारणीयता था, क्योंकि इसका सम्बन्ध सार्वजनिक स्वास्थ्य और लोगों की आजीविका से था।

    जल को एक ‘सीमित संसाधन’ के रूप में महत्व दिया गया था जिसे प्रत्येक वर्ष पूर्ती करने की आवश्यकता थी, चूँकि इस राज्य में जल की सम्पूर्ण मात्रा सीमित वर्षा के मौसम में वर्षा से ही प्राप्त होता है, राज्य को खुले में शौच से मुक्त बनाने, वर्षा जल का संचयन और जल के किफायती उपयोग पर अधिक जोर दिया गया। ऐसा करने से लोगों की समझ में जल्दी ही आ गया कि जल स्रोतों को प्रदूषित किए बगैर इसका उपयोग कुशलतापूर्वक किया जाना ही उचित है।

    जलवायु स्थिति स्थापक जल बुनियादी ढाँचें के निर्माण में सूखा-रोधी घटक को अपनाया गया था। ‘राज्यव्यापी पंयजल आपूर्ति ग्रिड’ की योजना रासायनिक एवं बैक्टीरियोलॉजिकल संदूषण से मुक्त, नल का स्वच्छ जल उपलब्ध कराने के लिए योजना बनाई गई थी। भूजल स्रोतों को, ऊपरी सतह के पानी को लगभग 2,000 कि.मी. की पानी की पाइपलाईनों तथा अनेक हाइड्रोलिक संरचनाएँ, भण्ड़ारण पंप, जल निस्पंदन, शोधन संयत्र आदि के साथ 1.15 लाख कि0मी0 से अधिक लम्बी आपूर्ति पाइपलाईनों के माध्यम से दूर से स्थानांतरित कर संरक्षित किया गया था। इसके साथ नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बाँध एवं वितरण नहर नेटवर्क के कार्य को पूर्ण करने आदि पर ध्यान केन्द्रित किया गया। मौजूदा नहर प्रणालियों को अधिक सुदृढ़ता प्रदान की गई। यथोचित जल-समृद्व दक्षिण एवं मध्य गुजरात से लेकर उत्तरी गुजरात, सौराष्ट्र एवं कच्छ में पानी के अंतर-बेसिन स्थानांतरण की योजना को मूर्त रूप प्रदान किया गया और इसे 332 कि0मी0 लम्बी सुजलाम् सुफलाम् नहर के रूप में क्रियान्वित किया गया। इसके द्वारा राज्य के निवासियों को न केवल निर्धारित गुणवत्तायुक्त पानी पयाप्त मात्रा में उपलब्ध कराया गया, अपितु नलकूपों के माध्यम से भू-जल निष्काशन में भी काफी कमी आई। उक्त ग्रिड 200 से अधिक शहरी निकायों और लगभग 14,000 गाँवों को पेयजल उपलब्ध करा रहा है।

    सूखाग्रस्त उत्तरी गुजरात, सौराष्ट्र एवं कच्छ में सतत कृषि को बढ़ावा देने के लिए, नहर/पाइप-लाईन नेटवर्क की की श्रृंखला के माध्यम से नर्मदा नदी में आने वाली बाढ़ के पानी को इन क्षेत्रों में स्थानांतरित करने के लिए एक अनुठे दृष्टिकोण को अपनाया गया। इसके अतिरिक्त, पानी की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु, विशेष रूप से भू-जल लवणताग्रस्त क्षेत्रों में, विलवणीकरण संयंत्रों की स्थापना भी की गई। अब तक, राज्य के तटीय क्षेत्रों में 270 मिलियन लिक्विड डिस्चार्ज (एमएलडी) पानी के ऐसे ही चार संयंत्रों को लगाया गया था।

कृषि में जल-उपयोग की दक्षता को सक्षम करना

    समस्त मीठे पानी का लगभग 85 प्रतिशत भाग कृषि उद्देश्यों की पूर्ती हेतु उपयोग किया जा रहा है, खेतों में पानी के उपयोग को न्यूनतम करने के लिए सूक्ष्म सिंचाई तथा सहभागी सिंचाई प्रबन्धन (पीआईएम) को व्यापक रूप से बढ़ावा दिया गया था। किसानों को ‘प्रति बूँद पानी, अधिक फसल’ की अवधारण के बारें में शिक्षित करने के लिए कृषि विस्तार गतिविधियों को एक अभियान के रूप में संचालित किया गया था। कैच द रेन वॉटर अर्थात वर्षा जल-संचयन के लिए किसानों को उनके खेत या उसके आस-पास चैक डैम, खेत में तालाब, बोरी-बँध आदि को स्थापित करने के लिए उन्हें वित्तीय एवं तकनीकी सहायता प्रदान की गई। जल-संरक्षण अभियान के तहत खेतों में पानी के लिए लगभग 1.85 लाख चैकडैम, 3.22 लाख खेत तालाब और एक बड़ी संख्या में बोरी-बंध का निर्माण किया गया। लगभग 31,500 तालाबों की गाद को हटा दिया गया और उन्हें गहराई प्रदान की गई। राज्य में 1,000 हजार से अधिक बावडियों को स्वच्छ कर उन्हे पुर्नजीवित किया गया और उन्हे उपयोग में लाया गया। एक लम्बे समय तक, इनमें से कई बावड़ियों को खाली छोड़ दिया गया था, परन्तु वर्षा जल संचयन तथा जल-भृत पुनर्भरण की सहायता से इन पारम्परिक प्रणालियों को नया जीवन प्रदान कर उनका कायाकल्प किया गया।

राज्य को जल-सुरक्षित बनाने में मिशन-मोड अभियानों की क्षमता को महसूस करते हुए, वर्षा से पूर्व ही जल निकायों को गहरा करने और वर्षा-जल के संचयन के लिए जल भण्ड़ारण को बढ़ानें के दोहरे उद्देश्यों पूर्ति के लिए ‘सुजलाम् सुफलाम् जल अभियान’ का शुभारम्भ किया गया था। इसके अन्तर्गत भागीदारी के दृष्टिकोण के माध्यम से तालाबांें, नहरों, टैंकों, चैकडैम तथा जलाश्यों को साफ कर उन्हें गहराई प्रदान करने, जल भण्ड़ारण संरचनाओं की मरम्मत, वर्षा जल संचयन संरचनाओं के निर्माण आदि समेत विभिन्न जल-संरक्षण गतिविधियाँ भी शामिल रही।

गुजरात में, प्रति वर्ष बरसात के मौसम में उत्तरी गुजरात, सौराष्ट्र तथा कच्छ में जलाश्यों एवं बाँधों की भंड़ारण क्षमता का औसतन मात्र 24 प्रतिशत भाग ही भर पाता था। जल-संचयन की गम्भीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस दिन भुज शहर में हमीरसर झील के नाम से जाने जाना वाला स्थानीय जलाश्य लबालब भर गया था, उस दिन को जिला प्रशासन के द्वारा सार्वजनिक अवकाश घोषित कर दिया था और इस दिन को जल उत्सव के रूप में मनाया जाता था। सौराष्ट्र नर्मदा अवतारन सिंचाई (सौनी) योजना का भी शुभारम्भ किया गया था, जिसके तहत, मानसून के दौरान, नर्मदा के अधिशेष पानी को सौराष्ट्र के लगभग 115 जलाश्यों में अंतरित एवं संग्रहीत किया जाता है।

इस योजना के अन्तर्गत सौराष्ट्र में 8.25 लाख एकड़ भूमि के लाभान्वित होने की आशा की जा रही है। राज्य में विद्युत से जुड़े मुद्दों को दूर करने के लिए राज्य में बढ़ती सौर ऊर्जा की उपलब्धता का पूर्ण लाभ लेते हुए, सौर पम्पों को प्रमुखता से चालू किया गया। इसके बाद से विभिन्न समूह जल आपूर्ति योजनाओं के लिए व्यापक ऊर्जा ऑडिट के अनुसार, ऊर्जा की बचत हुई और जल आपूर्ति के क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन में कमी दर्ज की गई है।

एकीकृत जल-प्रबन्धन दृष्टिकोण एवं भू-जल स्तर में लगातार सुधार के साथ, राज्य के कुल सिंचित क्षेत्र में 77 प्रतिशत तक की वृद्वि दर्ज की गई, और राज्य के कृषि उत्पादन में भी 255 प्रतिशत की वृद्वि दर्ज की गई जिसके चलते हरित अर्थव्यवस्था का निर्माण हुआ। इसने एक सतत और पर्यावरण के अनुकूल मार्ग प्रशस्त किया है।

गुजरात के ही मार्ग पर चलते हुए, जल-सुरक्षा को प्राप्त करने के लिए समुदाय के द्वारा संचालित प्रयासों को अंजाम देने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर भू-जल संरक्षण की योजना को तैयार किया गया था। अटल भू-जल योजना के तहत, स्थानीय समुदायों को उनकी भागीदारी सुनिश्चित् करने और अन्य समस्त हितधारकों के बीच स्वामित्व की भावना में सुधार कर उन्हें सशक्त बनाने के लिए एक अनूठी नीतिगत पहल की गयी थी। भारत में सबसे अधिक पानी की आवश्यकता वाले कृषि क्षेत्र के लिए सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली जैसे तरीकों को अपनाए जाने की आवश्यकता है।  प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अन्तर्गत किसानों को पानी की कम बरबादी के साथ उत्पादकता में सुधार के लिए जल स्मार्ट सिंचाई प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ‘कैच द रेन’ अभियान वर्षा जल संचयन में सुधार के लिए किये गये महत्वपूर्ण उपायों में से एक है।

परिवर्तनकारी ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की सफलता एवं गुजरात में जल प्रबन्धन के लिए एकीककरण के दृष्टिकोण की सफलता से प्रेरित होकर, वर्ष 2019 में दो जल क्षेत्रों-पंयजल आपूर्ति तथा जल संसाधनों- को संयुक्त कर जल-शक्ति मंत्रालय का गठन किया गया। इसके तुरंत बाद, ‘जल-श्क्ति अभियान’ को अभियान और मिशन-मोड पहल के रूप में आरम्भ किया गया था, जिससे कि मानसून को सर्वश्रेष्ठ बनाया जा सके और विशेष रूप से जल की कमी वाले 226 चिन्हित जिलों में जल का संरक्षण किया जा सके और इसको जन आंदोलन बनाने का प्रयास भी किया गया। ये उपाय सही मायनों में पानी को ‘सबका सरोकार’ बनाने और सभी के लिए जल-सुरक्षा प्राप्त करने की दिशा में सटीक कदम साबित हुए।

नदी को एक जीवित संस्था के रूप में मानने और यह सुनिश्चित करने के लिए ऐसे समस्त उपयों को लागू करना ताकि वे सांस लेते रहें तथा स्वस्थ्य रहें, इस दिशा में उठाया गया एक परिवर्तनकारी कदम रहा। गंगा नदी एवं उसकी सहायक नदियों के कायाकल्प के लिए ‘नमामी गंगे’ कार्यक्रम का शुभारम्भ, चार श्रेणियों- प्रदूषण का उपशमन; प्रवाह तथा पारिस्थितिकी में सुधार, मानव और नदियों के सम्बन्ध को सुदृढ़ करने, और अनुसंधान, ज्ञान तथा प्रबन्धन में बहु-स्तरीय एवं बहु-एजेंसी दृष्टिकोण को अपनाने के लिए की गई थी। नमामी गंगे की सफलता के साथ, 13 अन्य नदियों का कायाकल्प और इनमें प्रदूषण के स्तर को कम करने का कार्य आरम्भ किया गया है।

जल जीवन मिशन - हर घर जल

15 अगस्त, 2019 को, लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम अपने सम्बोधन में, प्रधानमंत्री के द्वारा वर्ष 2024 तक देश के प्रत्येक ग्रामीण घर में नल के पानी की आपूर्ति के वायदे के साथ जल जीवन मिशन की घोषणा की गई थी, यह मिशन राज्यों की भागीदारी के साथ तैयार किया गया था। इसका उद्देश्य केवल बुनियादी ढाँचें के निर्माण के बजाय दीर्घकालिक रूप से जल सेवा आपूर्ति को सुनिश्चित् करना है।

                                       

                                 चित्रः गर्मियों में पानी के लिए संघर्ष करती महिलाएं

जल जीवन मिशन के तहत, देश के 6 लाख गाँवों में पानी की समितियाँ/वीडब्ल्यूएससी की स्थापना की जा रही है, जहाँ उन्हें आरम्भ से अंत तक के दृष्टिकोण को अपनाते हुए अपने गाँव में जलापूर्ति प्रणाली की योजना बनाने, उन्हें लागू करने तथा उनका प्रबन्धन करने का अधिकार दिया जा रहा है। इसके अन्तर्गत, स्रोत स्थिरता, जल-आपूर्ति, ग्रेवाटर उपचार तथा पुनरूपयोग एवं संचालन तथा रखरखाव आदि के समेत चार प्रमुख घटक शामिल हैं।

स्वच्छ भारत मिशन-2.0, अपशिष्ट का उत्पादन कम करना और इसके उपयुक्त उपचार, पुनरूपयोग अथवा निपटान पर केन्द्रित हैं। इस मिशन के प्रमुख प्रभाव क्षेत्र- अवक्रमणीय ठोस अपशिष्ट, ग्रेवाटर, प्लास्टिक अपशिष्ट तथा जल-मल का प्रबन्धन है।

भारत, भू-जल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता होने के कारण, विकेन्द्रीकृत, माँग-संचालित और समुदाय-प्रबन्धित कार्यक्रमों को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। स्थानीय समुदायों में विशेष रूप से महिलाएं शामिल हैं, जो गाँवों में दीर्घकालिक जल-सुरक्षा के लिए वैज्ञानिक जल प्रबन्धन में जुटी हुई हैं। आज की जलवायु-जोखिम युक्त दुनिया में, विशेष रूप से चालू दशक में जहाँ कम दिनों में अधिक बारिश की भविष्यवाणी की गई है, बारिश के पानी को संग्रहित करना, उसका विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग करना तथा उपचार एवं पुनरूपयोग के माध्यम से काम में तेजी लाना पहले की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। भारत सरकार के द्वारा पिछले आठ वर्षों में लोगों के द्वारा संचालित कार्यक्रम की भावना से पानी की चक्रीय अर्थव्यवस्था की दिशा में विभिन्न पहले की गई हैं।

दुनिया अपनी मरह के सबसे बड़े कार्यक्रमों में से एक- जलभृत प्रबन्धन पर राष्ट्रीय परियोजना, भू-जल के स्थाई प्रबन्धन की सुविधा के लिए जलभृत प्रबन्धन योजनाओं के निर्माण की परिकल्पना करती हैं। अब तक देश के कुल क्षेत्रफल के आधे से अधिक भाग में मैपिंग की ज चुकी है।

आगे बढ़ने का मार्ग

आर्थिक विकास एवं सामाजिक-आर्थिक विकास, विशेष रूप से सूखा प्रवणा तथा रेगिस्तानी क्षेत्रों में, इस बात पर निर्भर करता है कि जल संसाधनों का उपयोग कितनी कुशलता के साथ किया जाता है। चूँकि जल के एक सीमित संसाधन होने के कारण, विशेष रूप से शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों में वनस्पतियों तथा अन्य जीवों के सहित पर्यावरण संरक्षण को बहाल करने तथा इसे बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। रोगों को कम करने, मानव आबादी के स्वास्थ्य, कल्याण एवं पृथ्वी पर अन्य जीवन के रूपों को सम्भव बनाने के लिए इसकी जीवन शक्ति को कम करके नही देखा जा सकता अथवा इसकी अनदेखी भी नही की जा सकती है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।