वर्षा जल प्रबंधन एवं संरक्षण Publish Date : 29/06/2023
वर्षा जल प्रबंधन एवं संरक्षण
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, डॉ0 शालिनी गुप्ता एवं मुकेश शर्मा
राष्ट्रीय विकास में जल की महत्ता को देखते हुए अब हमे ‘जल संरक्षण’ को सर्वोच्च प्राथमिकताओं में रखकर पूरे देश में कारगर जन-जागरण अभियान चलाने की आवश्यकता है। जल संरक्षण के कुछ परंपरागत उपाय तो बेहद सरल और कारगर रहे हैं, जिन्हें हम विकास की दौड़ में भुला बैठे हैं।
कृषि भूमि पर जल संरक्षण
’भूमि’ एवं ’जल’ प्रकृति द्वारा प्रद्वत मनुष्य को दो अनमोल सम्पदाएं हैं, जिनका कृषि में उपयोग मनुष्य प्राचीनकाल से ही करता चला आया है। परन्तु वर्तमान में इनका उपयोग इतनी लापरवाही से किया जा रहा है कि इन दोनों ही सम्पदाओं का संतुलन पूरी तरह से बिगड़ चुका है और निकट भविष्य में इनके संरक्षण गम्भीरता पूर्वक किए बिना मानव का अस्तित्व ही संकट में पड़ जायेगा।
भारत की आर्थिक उन्नति में कृषि का बहुमूल्य योगदान है। देश की लगभग 70 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि जल के लिए वर्षा पर ही निर्भर है। वर्षा पर निर्भर खेती में अनिश्चितता सदैव ही बनी रहती है क्योंकि वर्षा की तीव्रता तथा मात्रा पर मनुष्य का कोई वश नहीं चलता है। इस प्रकार की खेती में वर्षा ऋतु के आगमन से पूर्व ही कुछ व्यवस्थाएं करनी पड़ती है। जिससे वर्षा से होने वाले भूक्षरण को कम करके वर्षा जल का अधिकतम उपयोग खेती में किया जा सके।
इसलिए वर्षा पर आधारित खेती के लिए तकनीकी रूप से भूमि तथा जल संरक्षण की अलग अलग निम्न विधियों का सुनियोजित ढंग से अपनाना अत्यावश्यक होगा।
खेत का पानी खेत में
विभिन्न परीक्षणों के माध्यम से यह ज्ञात हुआ है कि सूखे वर्षों में ’खेत का पानी खेत में ही जल-संग्रह व भूजल पुनर्भरण कुएं-नलकूप कं द्वारा जिन क्षेत्रों के कृषकों द्वारा अपनाया गया, उस क्षेत्र के कृषक रबी में पूरे रकबे में फसल ले सके। खेत का पानी खेत में रहने पर खेत की मिट्टी व जीवांश-पौध पोषण खेत में बने रहने पर फसल सूखे के प्रभाव से प्रायः बच निकलने में सफल रहती है।
नाली बनाएं
दो खेतों के बीच मेड़ की बजाय, नाली बनाएं। वर्षा ऋतु में बरसात के पानी को खेत के आस-पास ही संग्रहीत करनें यत्न करें तथा स्थान और ढलान के अनुसार नाली 60 से 75 सें.मी. गहरी बनाकर नाली से निकाली गई मिट्टी को दोनों किनारों पर डालकर 30 से 45 सें.मी. ऊंची मेड़ बनाएं। नाली में पानी भरा रहने के लिए 15 से 20 मीटर के बाद लगभग आधे से एक मीटर जमीन की खुदाई न करें। इन नालियों में जगह-जगह गड्ढे-परकोलेशन चेम्बर बनाने से जल रिसाव की गति को बढ़ाया जा सकता है।
कुण्डियाँ बनाएं
खेत के आसपास कुण्डियों की वृहद श्रृंखला बनाए। कुण्डी का आकार सामान्यतः 3 मीटर ग 10 मीटर ग 0.75 मीटर रखा जाता है। इन संरचनाओं से पानी रोकने के साथ खेत का जीवाँश खेत में ही संवर्धित करना संभव हो जाता है। मिट्टी- जीवाँश का संवर्धन व खेत में नमी ही भूमि को सजीव रखकर ही उत्पादन को स्थायित्व प्रदान किया जा सकता है। इन कुण्डियों में भू-नाडेप भी बनाने पर खेत का जीवाँश खेत के आस-पास संरक्षित रहता है।
जीवाश एवं जल संवर्धन
पानी रोको अभियान के तृतीय चरण में अन्य कार्यों के अतिरिक्त खेत के आसपास नाली-डबरी-कुण्डियों के कार्य को प्रमुखता से अपनाया जाये तथा अनिवार्य रूप से सुधार तरीकों से कम्पोस्ट बनायी जाए। इससे गाव स्वच्छ व स्वस्थ रह सकेगा और खेतों में उपयोग करने से मिट्टी के आसपास अधिक जल समाहित करके रखा जा सकेगा। वस्तुतः जीवाँश व खेत में जल-संवर्धन एक दूसरे के पूरक है, जो सूखे के प्रभाव से बचाने में सहायता करते है।
पोखर बनाएं
खेत में आर्द्रता, नमी और भूमि से सूक्ष्मवाहिनी केपिलरी में जल प्रवाह को बनाए रखने के लिए पोखर बनाये। खेत की नालियों को पोखर से जोड़ें। पोखर का स्थान और आकार सुविधानुसार रखें। गोल पोखर 4-5 मीटर व्यास का या चौकोर 4.5 ग् 45 मी. गहराई का बनाए।
एक हैक्टर खेत में दो-तीन पोखर बनाए। पोखर में जल की आवक एवं निकासी की व्यवस्था करें। पोखर में जल रुकेगा. थमेगा. रिसेगा तो भू-जल के भंडार भरेंगे। इससे सड़क किनारे के लगे पेड़-पौधे भी तेजी से बढ़ते हैं। जिससे हरियाली एवं जैव विविधता बढ़ेगी। इन छोटी सूक्ष्म तकनीकों का सम्मिलित प्रभाव मौसम को संतुलित रखने में भी सहायक सिद्व होगा।
भू-जल पुनः भरण विधियाँ
भूमिगत जल स्तर में निरन्तर गिरावट एक चिन्ता का विषय है। बारहमासी नदियों से दूरस्थ ऊंचे स्थानों की जल आपूर्ति प्रायः भूमिगत जल भण्डार पर निर्भर है। भूमिगत जल भण्डार पानी का रिजर्व बैंक है। इसकी क्षतिपूर्ति प्रत्येक वर्ष भू-जल पुनर्भरण विधियों में करें ट्यूबवेल के प्रचलन से कुए तो सूखे ही, परन्तु अब कम व मध्यम गहराई (60-80 मीटर) के ट्यूबवेल भी सूखने लगे हैं।
गहरे ट्यूबवेल (200-300 मीटर) भी असफल हो रहें है। पानी की चाह में, एक मोटे अनुमान के अनुसार 80 प्रतिशत किसान गहरे ट्यूबवेल खुदवाते है, जिससे उन्हें भारी आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है। इस हकीकत को हम सब समझते हैं।
इस समस्या का एक मात्र और वैज्ञानिक समाधान है, सतही व कम गहरों परतों में वर्षा जल संग्रहण व भू-जल पुर्नभरण की विधियों को आवश्यक रूप से अपनाया जाना। प्रति वर्ष जितना जल जमीन से निकाला जाता है, उतना ही जल वर्षा के मौसम में पुनः भू-जल भण्डार में जमा करनें प्रयास करें।
गहरे नलकूप
गहरे ट्यूबवेल का अनुभव जल की गुणवत्ता के हिसाब से भी अच्छा नहीं है। गहराई का जल क्षारयुक्त, विषाक्त एवं गरम रहने प्रकृति के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।
- जल भण्डार के आकलन/सर्वे के आधार पर क्षेत्रवार नलकूपों की गहराई भी निश्चित करने व फसलों का युक्ति-संगत चयन, जिससे कम जल की आवश्यकता होती है, की काश्त करने का समय भी आ गया है। इस कार्य को पंचायतों द्वारा प्रमुखता से सी निर्णय लिए जाने की आवश्यकता है।
- वाटर बजट व जल का किफायती उपयोग की व्यवस्था को मूर्त रूप दिया जाये।
कुओं का वर्षा जल से पुनर्भरण
- कुएं हमारे धन से बनी एक राष्ट्रीय सम्पत्ति है।
- शासकीय अशासकीय निजी आदि सभी कुओं की सफाई, गहरीकरण व रख-रखाव करें।
- कुओं को अधिक पानी देने में सक्षम बनाए।
- वर्षा का जल कुओं में भरकर संग्रहित करें।
- कुए शहर, गांव और खेत की जल व्यवस्था का मुख्य अंग है जो इस नये युग में भी उपयोगी हैं।
कुएं में वर्षा जल भरने की विधि
- तीन मीटर लम्बी नाली 75 में मो चौड़ी उतनी ही गहरी नाली से बरसात का पानी कुएं तक ले जाकर उसकी दीवार में छेदकर, 30 सें.मी. व्यास का एक मीटर लम्बा सीमेंट पाईप लगाकर, नाली से पानी कुएं में उतारें।
- पाइप के भीतर मुहाने पर एक सें.मी. छिद्रवाली जाली लगाकर उसके सामने 75 से 100 मीटर सें.मी. तक 4 से 5 सें.मी. मोटी गिट्टी बाद में 75 से 100 सें.मी. तक, 2 से 3 सें.मी. आकार की गिट्टी और एक मीटर लम्बाई तक बजरी रेत से भरें।
- खेत से बहने वाला बरसात का पानी जल सिल्ट ट्रेप टैंक 5 ग 4 ग 1.5 मीटर व फिल्टर से छनकर नाली से होकर में पाईप से गिरेगा। रेत-मिट्टी में जाने से कचरा भी बाहर रहता है। इस प्रकार कुएं का जल स्तर बढ़ेगा। भूमि में पानी रिसेगा। आसपास के कुएं और नलकूप पुनः जीवित होंगे। इस विधि से कुओं में भूजल पुनर्भरण का खर्च 500 से 1000 रुपये तक का ही आयेगा।
जल संरक्षण के आसान उपाय
- हम सबको एक जागरूक नागरिक की तरह ‘जल-संरक्षण’ का अभियान चलाते हुए बच्चों एवं महिलाओं में भी जागृति लानी होगी। स्नान करते समय ’बाल्टी में जल लेकर ’शावर या टब’ में स्नान की तुलना में बहुत जल बचाया जा सकता है।
पुरुष वर्ग दाढ़ी बनाते समय यदि टोटी बन्द रखें तो बहुत जल बच सकता है। इसी प्रकार रसोई में पानी की बाल्टी या टब आदि में अगर बर्तन साफ करें तो जल की बहुत बड़ी हानि रोकी जा सकती है।
- टॉयलेट में लगी फ्लश को टकी में प्लास्टिक की बोतल में रेत भरकर रख देने से हर बार ’एक लीटर जल बचाने का कारगर उपाय है। इस विधि का तेजी से प्रचार-प्रसार करके पूरे देश में लागू करके काफी मात्रा में जल बचाया जा सकता है।
- पहले गांवों कस्बों और नगरों की सीमा पर या कहीं निचले स्तर सतह पर तालाब अवश्य होते थे जिनमें स्वाभाविक रूप में मानसून की वर्षा का जल एकत्रित हो जाता था। साथ ही अनुपयोगी जल भी तालाब में जाता था, जिसे मछलिया और मैढ़क आदि साफ करते रहते थे। तालावों का जल पूरे गांव के पीने, नहाने और पशुओं आदि के काम में आता था। दुर्भाग्य है कि स्वार्थी मनुष्य ने तालाबों को पाट कर घर बना लिया और जल की आपूर्ति खुद ही बन्द कर बैठा है। इसके लिए जरूरी है कि गांवों कस्बों और नगरों में छोटे-बड़े तालाब बनाकर वर्षा जल संरक्षण किया जाए।
- नगरों और महानगरों में घरो की नालियों के पानी को न बहाकर एकत्र किया जाए और पेड़-पौधों को सिंचाई के काम में लिया जाए, तो साफ पेयजल की बचत अवश्य की जा सकती है।
- अगर प्रत्येक घर की छत पर वर्षा जल का भंडार करने के लिए एक या दो टंकी बनाई जाये और इन्हें मजबूत जाली या फिल्टर कपड़े से ढक दिया जाए तो हर नगर में जल संरक्षण किया जा सकेगा।
- घरों, मुहल्लों और शासकीय पार्कों, स्कूल, अस्पतालों, दुकानों, मन्दिरों आदि में लगी नल टोटियां खुली या टूटी रहती है। जिससे अनजाने में ही प्रतिदिन हजारों लोटर जल बेकार हो जाता है। इस बरबादी को रोकने के लिए नगर पालिका एक्ट में टोटियों की चोरी को दण्डात्मक अपराध बनाकर जागरूकता भी बढ़ानी होगी।
- विज्ञान की मदद से आज समुद्र के खारे जल को पीने योग्य बनाया जा रहा है. गुजरात के द्वारिका आदि नगरों में प्रत्येक घर में ’पेयजल’ के साथ-साथ परेलू कार्यों के लिए ’खारेजल’ का प्रयोग किया जा रहा है।
- गंगा और यमुना जैसी बड़ी नदियों की नियमित सफाई होना बेहद जरूरी है। नगरों और महानगरों का गन्दा पानी ऐसी नदियों में जाकर प्रदूषण बढ़ाता है। इससे मछलियाँ आदि मर जाती है और यह प्रदूषण लगातार बढ़ता ही चला जाता है। बड़ी नदियों के जल का शोधन करके पेयजल के रूप में प्रयोग किया जा सके, इसके लिए शासन-प्रशासन को निरंतर सक्रिय रहना होगा।
- जंगलों का कटाव होने से दोहरा नुकसान हो रहा है। पहला यह कि वाप्पीकरण न होने से पर्याप्त वर्षा नही हो पाती है और दूसरा भूमिगत जल सूखता जाता है। बढ़ती जनसंख्या और औद्योगीकरण के कारण जंगल और वृक्षों की अंधाधुध कटाई से भूमि की नमी लगातार कम होती जा रही है, इसलिए वृक्षारोपण लगातार किया जाना चाहिए, और उन वृक्षों की उचित देखभाल भी की जानी आवश्यक है।
- पानी का दुरुपयोग हर स्तर पर कानून के द्वारा, प्रचार-प्रसार के माध्यमों से और विद्यालयों में पर्यावरण की जल संरक्षण विषय को अनिवार्य रूप से पढ़ाकर उसे रोकना होगा। अब समय आ गया है कि केन्द्र और राज्यों की सरकारें ’जल संरक्षण’ को अनिवार्य विषय बनाकर प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर तक नई पीढ़ी को पढ़ाने का कानून बनाए।
जल का किफायती प्रयोग
शहरों में जल के अधिक उपयोग को सीमित करना होगा। इसके साथ में नई पीढ़ी कम पानी उपयोग को उसके लिए घर तथा स्कूलों में उन्हें शिक्षित करना होगा एवं पुरानी पीढ़ी को भी पानी कम उपयोग कर नई पीढ़ी के सामने एक उदाहरण पेश करना होगा। कृषि तथा उद्योग के क्षेत्र में भी पानी के किफायती उपयोग तथा जल के पुनर्चक्रण को अपार संभावनाएं उपलब्ध है, उसे नये सिरे से स्थापित करना होगा।
स्थानीय स्तर पर समाज द्वारा प्रबंधन से समाज व जीव जगत का प्रत्येक जीव लाभान्वित होगा तथा इकोतन्त्र के स्थायित्व के साथ सामाजिक न्याय, स्थिरता और विकास के लक्ष्य की प्राप्ति भी संभव हो पाएगी।
तो आइए हम सब मिलकर पानी के अपव्यय को रोके, समानता के आधार पर जल के उपयोग में सबकी भागीदारी सुनिश्चित कर अपनी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को सुरक्षित करें। सूखे से मुक्ति सिर्फ खेत का पानी खेत व खेत के आसपास रोककर संभव है। आइये आप भी इस महायज्ञ में अपनी आहुति देकर माँ वसुन्धरा के ऋणों को चुकाएं।
लेखकः प्रोफेसर, आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, मेरठ के कृषि महाविद्यालय के कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के विभागाध्यक्ष हैं।