कृषि क्षेत्र में एमएसपी कानूनी गारंटी कितनी उचित और कितनी अनुचित      Publish Date : 20/02/2024

   कृषि क्षेत्र में एमएसपी कानूनी गारंटी कितनी उचित और कितनी अनुचित

                                                                                                                                    डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

हमारे देश के किसान अन्नदाता, मेहनती और सीधे-साधे हैं। देश की खाद्य सुरक्षा गारंटी में भी अन्नदाता की अहम भूमिका है। लेकिन भारत में समय समय पर किसानों को एक राजनीतिक हथियार भी बनाया जाता रहा है। ताजा मामला फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य एमएसपी की गारंटी की मांग करने का है। अगर सरकार एमएसपी पर फसलों की खरीद की गारंटी ले लेती है, तो एक अनुमान के अनुसार इस पर 10 लाख करोड रुपए का अतिरिक्त व्यय आएगा। वही वर्ष 2024-25 के अंतिम बजट में सरकार ने पूंजीगत निवेश के लिए 11.11 लाख करोड रुपए का लक्ष्य रखा है।

                                                             

ऐसे में सरकार यदि सारी फैसले एमएसपी के आधार पर ही खरीदती है तो फिर वह कर्मचारियों को वेतन और पेंशनभोगियों को पेशन कहां से देगी, विकास कार्यों के लिए संसाधन कहां से आएंगे। यदि ऐसा होता है तो पूरा सरकारी तंत्र और व्यवस्था ही चरमरा कर ही रह जाएगी। वहीं प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने कहा है कि वह सत्ता में आने पर एमएसपी की गारंटी देगी। हालांकि यह एक अलग बात है कि केंद्र सत्ता में रहते हुए भी कांग्रेस ने स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू करने को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई थी। ऐसे में अब कांग्रेस की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि वह देश को बताएं कि वह 10 लाख करोड रुपए की व्यवस्था कैसे करेगी।

ऐसे में यह पड़ताल करने का एक अहम मुद्दा है कि एमएसपी की गारंटी की मांग कितनी व्यावहारिक है और क्या किसान आंदोलन के जरिए अपनी राजनीतिक मंशा को पूरी करने का प्रयास किया जा रहा है। वर्ष 2024-25 के लिए पिछले विवरण व सत्र के तुलना में रुपए 150 रूपये बढ़ी गेहूं की एमएसपी, इसी प्रकार से ₹425 बढ़ी मसूर की एमएसपी और रुपए 200 बढ़ी राई एवं सरसों की एमएसपी, पिछले विपणन सत्र की तुलना में। लेकिन अभी काफी फसलें हैं जिन पर किसान एमएसपी की गारंटी चाहते हैं।

क्या है सी2 + 50 प्रतिशत फार्मूला

                                                                              

सरकार एमएसपी निर्धारित करने के लिए सी2 + 50 प्रतिशत फार्मूले का इस्तेमाल कर रही है। इसमें किसान खेती के लिए उपयोग की गई जमीन का किराया और उसके परिवार के श्रम का मूल्य का भुगतान करना शामिल है। यह एमएसपी तय करने का एक फार्मूला है, जिसके आधार पर ही सरकारी एजेंसियां किसानों की उपज खरीदती है। इसमें किसान की जमीन का किराये सहित खेती पर आने वाली सभी तरह की लागत भी शामिल होती है।

एमएसपी वह न्यूनतम दर होती है, जिस पर सरकारी खरीद एजेंसीयां किसानों से फसलों को खरीदती है। एमएसपी किसानों को बाजार के उतार-चढ़ाव से बचाने के साथ ही उनकी आय की सुरक्षा भी देता है। किसानों को उनकी फसलों की उचित कीमत मिले यह सुनिश्चित करने में एमएसपी की अहम भूमिका होती है। एमएसपी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग सीएसीपी के द्वारा तय की जाती है। सीएसीपी उत्पादन लागत बाजार के रुझान और मांग आपूर्ति के परिदृश्य पर विचार करके एमएसपी तय करती है। एमएसपी की शुरुआत वर्ष 1967 में हुई थी, उस समय देश में खाद्यान्न की भारी कमी थी और जरूरतें आयात के जरिए पूरी की जाती थी।

किसान एमएसपी की गारंटी पर क्यों दे रहे हैं जोर

                                                                          

पंजाब और हरियाणा के किसान कानून बनाकर एमएसपी की गारंटी देने की बात पर ज्यादा जोर इसलिए दे रहे हैं, क्योंकि एफसीआई के खरीद तंत्र का सबसे अधिक फायदा इन दोनों राज्यों को ही मिलता है। भारतीय खाद्य निगम एफसीआई प्रमुख खरीद एजेंसी है। एफसीआई ज्यादातर खरीद धान और गेहूं की ही करती है। इसके बाद एफसीआई इस अनाज को रियायती दरों पर लोगों को मुहैया कराती है। इस प्रक्रिया में एफसीआई को जो नुकसान होता है, उसकी भरपाई केंद्र सरकार करती है। अब किसान अपनी मांगों को लेकर एक बार फिर से सड़कों पर उतर आए हैं। यह किसान कानून बनाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने की मांग कर रहे हैं।

एमएसपी के पक्ष में कहा जा सकता है कि सरकार पारंपरिक तौर पर धान और गेहूं की खरीद इसके माध्यम से सबसे ज्यादा करती है, क्योंकि सरकार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत इनका वितरण होता है। इन अनाजों के लिए सरकार के पास भंडारण क्षमता भी है। लेकिन पंजाब और हरियाणा के किसानों को डर है कि कानूनी गारंटी के बिना बाजार में इन जिंसों की कीमतें एमएसपी से नीचे जाने पर, उन्हें उचित कीमत नहीं मिलेगी।

वहीं एमएसपी के विरोध के सम्बन्ध में बात करें तो सरकार तथा बहुत से विशेषज्ञों का मानना है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी देना कोई टिकाऊ हल नहीं है और इसमें कई तरह की बाधाएं हैं। जैसे खरीद की सीमित ढांचा का सुविधा, अनाज का संभावित का नुकसान, फसलों का पैटर्न खराब होना और प्रभावी बाजार पहुंच का अभाव आदि। इसके अलावा सरकारी अधिकारियों का मानना है कि इसे लागू करना वित्तीय रूप से भयावह होगा। उनका कहना है कि वित्तीय वर्ष 2019-20 में देश में कुल उपज की कीमत 40 लाख करोड़ पहुंच गई थी तो वहीं एमएसपी तंत्र के तहत आने वाली फसलों की अनुमानित बाजारी कीमत 10 लाख करोड रुपए है।

आर एस देशपांडे पूर्व निदेशक बी आर अंबेडकर स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स बेंगलुरु का मानना है कि किसानों की मांगे संविधान के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है, संविधान सबको समानता का अधिकार देता है। इसके अलावा कृषि राज्यों का विषय है, ऐसे में किसानों की समस्याओं का समाधान संबंधित राज्य सरकारों को ही करना चाहिए। इस मसले पर केंद्र सरकार और किसानों के बीच बातचीत का भी कोई खास मतलब नहीं निकल सकता।

यहां यह समझना भी जरूरी है कि भारत के संविधान में कृषि क्षेत्र सातवें अनुच्छेद के तहत राज्य की सूची के अन्तर्गत आता है। इसलिए कुछ राज्यों के किसानों द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों का समाधान राज्य सरकारों को ही करना चाहिए। पंजाब, हरियाणा और कुछ पड़ोसी क्षेत्र के किसानों ने संयुक्त किसान मोर्चा, किसान मजदूर मोर्चा और किसान मजदूर संघ सीमित की अगुवाई में दूसरा विरोध प्रदर्शन शुरू किया है।

यह कुछ किसान संगठन खुद को पूरे देश के किसानों के प्रतिनिधि के तौर पर पेश कर रहे हैं। वर्ष 2021 का विरोध प्रदर्शन संयुक्त किसान मोर्चा से शुरू किया था, लेकिन बाद में संगठन में विभाजन हो गया और मौजूदा विरोध प्रदर्शन संयुक्त किसान मोर्चे के दूसरे धड़े की अगुवाई में किया जा रहा है। इसमें किसानों ने 12 मांगे प्रमुखता से रखी है और यह मांगे हैं- न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी, एमएसपी का भुगतान स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, किसानों के कर्ज माफी, जमीन अधिग्रहण से पहले किसान की अनुमति और मुआवजा आधिकारिक दर का चार गुना। लखीमपुर खीरी केस में सजा, विश्व व्यापार संगठन से भारत बाहर निकले। सभी मुक्त व्यापार समझौते को खत्म करना, सभी किसानों और कृषि श्रमिकों को ₹10,000 प्रति माह पेंशन, मनरेगा के तहत रोजगार बढ़ाकर 200 दिन किया जाए और मजदूरी 700 रुपए प्रतिदिन की जाए।

                                                                      

इन किसान संगठनों को समझना चाहिए कि इन मांगों को रखने से पहले देश पर पड़ने वाले वित्तीय प्रभाव पर विचार नहीं किया गया है और वास्तव में यह देश के मुट्ठी भर किसानों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। यह बात सर्वविदित है कि देश में 82 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत किसान है और इनमें से ज्यादातर मांगे इन किसानों की समस्याओं का कोई समाधान भी नहीं करती हैं। ऐसे कुछ ही किसान है, जो बड़े किसान है और वह राजनीति से प्रेरित है। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह नहीं कह सकते कि देश सालाना बजट का 85 प्रतिशत इन मांगों को पूरा करने में ही खर्च कर दें।

तार्किक तौर पर अगर हम इन मांगों पर विचार करें तो एमएसपी के तहत फसलों की खरीद का तंत्र वर्ष 1967 में शुरू हुआ। उस समय देश में अनाज की भारी कमी थी और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए अनाज की खरीद भी जरूरी थी। इसलिए उस समय एमएसपी के साथ लेवी और खरीद कीमतें थी वर्षों की अवधि में जब हालात बदल गए तो लेवी और खरीद कीमतें थी और वक्त के साथ जब हालात बदले तो लेवी और खरीद कीमतों का विलय भी एमएसपी में ही कर दिया गया। यह बात तो पूर्णरूप से स्पष्ट है कि एमएसपी का फायदा सिर्फ उन्हीं किसानों को मिलता है जिनके पास बाजार में बेचने के लिए अनाज होता है और देश के किसी भी राज्य में ऐसे किसानों की संख्या अधिक नहीं है।

पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में तो ज्यादातर किसान छोटे और सीमांत किसान ही है, जिनके पास बेचने के लिए बहुत कम अनाज होता है। मौजूदा समय में पंजाब में प्रति कुंतल खेती की लागत 1503 रुपए है और एमएसपी 2275 रुपए प्रति कुंतल है। इस तरह से खेती की लागत से ऊपर 51.3 प्रतिशत मुनाफा किसानों को दिया जा रहा है। यह पंजाब के किसानों से जुटाए गए सीएसीपी के आंकड़ों पर आधारित तथ्य है।

अगर सरकार एमएसपी की मांग मानने को मजबूर होती है, तो अनाज की खरीद पर कुल खर्च लगभग 10 करोड रुपए आएगा और यह सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों पर खर्च होगा। अगर ऐसा होता है तो क्या यह दूसरे राज्यों के साथ अन्याय नहीं होगा, जहां अनाज की खरीद बहुत कम है। इसलिए दूसरे राज्यों के किसान विरोध प्रदर्शन में नहीं दिख रहे हैं। इसके अलावा सिर्फ कुछ जिंसों के उत्पादकों के लिए कीमतों की गारंटी की संवैधानिक वैधता पर भी विचार करना होगा। देश में बहुत सी दूसरी जिंसों का उत्पादन भी होता है लेकिन इनके लिए समर्थन मूल्य का कोई तंत्र उपलब्ध नहीं है। इसमें न सिर्फ कृषि जिंसों बल्कि की खेती से संबंधित दूसरी जिसे भी शामिल है। इसलिए एमएसपी को कानूनी गारंटी देने से संविधान के मौलिक सिद्धांत का उल्लंघन होगा जो कि सामानता पर आधारित है।

इसी तरह से अगर किसान को पेंशन दी जाती है तो इसका मतलब होगा कि लगभग दो करोड़ किसानों को प्रतिमा है ₹10,000 देना होगा। क्या भारत सरकार अपने बजट में इसके लिए जरूरी संसाधन आवंटित कर सकेगी? जबकि मनरेगा के तहत ₹700 प्रतिदिन मजदूरी के साथ 200 दिन काम की मांग पर एक लाख करोड रुपए अतिरिक्त खर्च होंगे। क्या राज्य सरकारों से इन खर्चो का एक हिस्सा वहन करने के लिए कहा जाना उचित है? उनकी मांगों में किसानों के लिए मुफ्त बिजली भी शामिल है। इस पर वह 21,000 करोड रुपए लागत अलग से आएगी। क्या पंजाब की सरकार इन खर्चों का एक हिस्सा भी वहन करेगी, क्योंकि कृषि का विषय का संविधान में राज्य सूची के अर्न्तगत आता है।

आंदोलित किसान, विश्व व्यापार संगठन और मुक्त व्यापार समझौते से भी बाहर निकालने की मांग कर रहे हैं। क्या ऐसा करना भारत के हित में होगा? यह सवाल उन लोगों से पूछा जाना चाहिए जिन्होंने इन किसानों को उकसाया है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रबंधन के द्वारा भारत विश्व व्यापार संगठन और दूसरे व्यापार समझौता का हिस्सा बना था ऐसे में क्या इस मांग को माना जाना ठीक होगा? क्या इस पर और अधिक ध्यान देने की जरूरत नहीं है? गौर करने पर पता चलता है कि मांगों की तर्किकता और उसके आर्थिक असर पर विचार किए बिना ही इस आंदोलन को शुरू कर दिया गया है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।