बसंत का अर्थ      Publish Date : 17/02/2024

                                             बसंत का अर्थ

                                                                                                                                                                    प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

वसंत केवल उत्सव का ही प्रतीक नहीं, बल्कि उत्सव है। लेकिन जीवन में वसंत आने के लिए पहले पतझड़ का आना भी जरूरी है। जब आप भीतर-बाहर दोनों से खाली हो जाते हैं तो वसंत आता है और जब प्रकृति के साथ-साथ जीवन में भी वसंत आता है तो यह शाश्वत होता है। इसलिए आओ हम सभी को हमेशा के लिए थोड़ा-सा वसंत हो जाना चाहिए।

                                                                        

वसंत उत्सव का प्रतीक है इसमें फूल खिलते हैं, पक्षी गीत गाते हैं सब कुछ हरा भरा हो जाता है। जैसे बाहर वसंत है, ऐसे ही भीतर भी वसंत होता है। और जैसे बाहर पतझड़ है, ऐसे ही भीतर भी पतझड़ है। फर्क केवल इतना है कि बाहर का पतझड़ और वसंत तो एक नियति के क्रम से चलते हैं, श्रृंखलाबद्ध, वर्तुलाकार घूमते हैं। लेकिन भीतर का पतझड़ और वसंत नियतिबद्ध नहीं है। तुम स्वतंत्र हो, चाहे पतझड़ हो जाओ, चाहे वसंत हो जाओ। इतनी स्वतंत्रता चेतना की है। इतनी गरिमा और महिमा चेतना की है।

लेकिन दुर्भाग्य है कि अधिकतर लोग पतझड़ होना ही पसंद करते हैं। पतझड़ का कुछ लाभ होगा, जरूर पतझड़ से कुछ मिलता होगा, अन्यथा इतने लोग भूल न करते। पतझड़ का बस एक ही लाभ है। शेष सब लाभ उससे ही पैदा होते हुए ही मालूम होते हैं। पतझड़ है तो अहंकार से बच सकते हैं। दुख में अहंकार नहीं बचता। दुख अहंकार का भोजन है। इसलिए लोग दुखी होना पसंद करते हैं। कहें लाख कि हमें सुखी होना है, सुख की कोशिश में भी दुखी ही होते हैं।

सुख की तलाश में भी और और नए दुख खोज कर लाते हैं। निकलते तो सुख की ही यात्रा पर हैं, लेकिन पहुंचते दुख की मंजिल पर हैं। कहते कुछ, लेकिन होता कुछ है और जो होता है, वह अकारण नहीं होता। भीतर गहन अचेतन में उसी की आकांक्षा है। ऊपर-ऊपर है सुख की बात, भीतर-भीतर हम दुख को खोज रहे हैं।

                                                                            

    क्योंकि दुख के बिना हम बच न सकेंगे सुख की बाढ़ आएगी तो हम तो कूड़े-करकट को भांति बह जाएंगे। पतझड़ में अहंकार नहीं टिक सकता। न पत्ते हैं, न फूल हैं, न पक्षी हैं, न गीत हैं, सूखा-साखा वृक्ष खड़ा है, लेकिन टिक सकता है और वसंत आए कि गए तुम वसंत आता ही तब है, जब तुम चले जाओ। तुम खाली जगह करो तो वसंत आता है। तुम मिटो तो फूल खिलते हैं। तुम न हो जाओ तो तुम्हारे भीतर गीतों के झरने फूटते हैं।

वसंत एक उत्सव है। जब तुम समझ लेते हो और अहंकार को चढ़ा देते हो, तो हो गए एक भौंरे। नाचते हो परमात्मा के कमल के चारों तरफ, गुनगुनाते हो गीत, तुम्हारा जीवन एक गुंजार हो जाता है।

                                                                         

वसंत का एक अर्थ है- फाग, होली। चली पिचकारी- पर-पचकारी, जिससे न केवल तुम रंग जाते हो, तुम औरों को भी रंगने लगते हो। न केवल तुम रंगों से भर जाते हो, भीग जाते हो, तुम औरों को भी भिगोने लगते हो। बुद्ध ने कितनों को भिगोया! कितनों के साथ वसंत खेला! महावीर ने कितनों को भिगोया। कितनों को तर-बतर कर दिया! या कबीर या नानक ने वे वसंत को उपलब्ध हुए, लेकिन जैसे ही वे वसंत को उपलब्ध हुए कि उन्होंने वसंत बांटना शुरू कर दिया।

भरलीं पिचकारियां उड़ाने लगे रंग उन पर भी, जिन्होंने कभी सोचा नहीं था सपने में कि वसंत का अवतरण होगा। उनको भी रंग डाला, जिनके सपनों में भी सत्य की तलाश नहीं थी, जिन्होंने कभी भूल कर भी मंदिर की राह नहीं पकड़ी थी। ये खिलखिलाते रंग, ये गूंजते हुए गीत उन्हें भी बुला लाए, उनके लिए भी निमंत्रण बन गए।

अभी तो हम फटे से बादल हैं, अभी तो हमारे पास कुछ भी नहीं, केवल भिक्षा के पात्र हैं खाली, रिक्त लेकिन परमात्मा हमारे भीतर हंस सकता है, मुस्करा सकता है। और हंसे तो हमारे पास भी झड़ी लगे- झरत दसहूं दिस मोती!... हमारे पास भी रत्नों की वर्षा हो जाए। वर्षा शायद हो ही रही है और थे अंधे, नहीं देख पाए। परमात्मा तो हंस रहा है, लेकिन तुम ऐसे उदास हो गए हो कि हंसी से तुम्हारा तालमेल नहीं हो पाता। तुम हंसना ही भूल गए हो। हंसने में भी कैसी कंजूसी हो गई है।

तुम नाचना भूल गए हो। तुम्हें नृत्य की भाव-भंगिमा ही स्मरण नहीं रही। तुम न गाते हो, न नाचते हो, न हंसते हो, तुम्हारा वसंत से कैसे संबंध हो सकता है। तुम्हे भी कुछ तो वसंत जैसे होना ही पड़ेगा। क्योंकि समान से ही समान का संबंध हो सकता है।

                                                                                

एक तो नृत्य है, उत्सव है परमात्मा को पाने के पहले। उससे पात्रता निर्मित होती है। फिर एक उत्सव है, नृत्य है- परमात्मा को पाने के बाद। उससे धन्यवाद प्रकट होता है, अनुग्रह प्रकट होता है। संन्यासी परमात्मा को पाने के पहले नाचता है, तो सिद्ध परमात्मा को पाने के बाद नाचता है। संन्यासी ही सिद्ध हो सकता है। कोई और दूसरा सिद्ध नहीं हो सकता। और यही साधना है कि तुम थोड़े से वसंत जैसे होने लगो।

मैं यहां अपने संन्यासियों को हमेशा यही कहता रहा हूं- सुबह-सांझ, रोज नाचो गाओ, उत्सव मनाओ, क्योंकि परमात्मा है।

बाहर का वसंत आता है और विदा हो जाता है, भीतर का वसंत आता है तो सदा के लिए आ जाता है। वह शाश्वत है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।