फसलों में उर्वरक प्रबंध कैसे करें ?      Publish Date : 13/11/2023

                                                                            फसलों में उर्वरक प्रबंध कैसे करें ?

                                                                                                                                     डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं मुकेश शर्मा

                                                                    

फसलों की समुचित बढ़वार हेतु तत्वों, कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन, नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, गंधक, जस्ता, तांबा, लोहा, बोरान, मैगनीज मालिब्डेनम एवं क्लोरीन नितांत आवश्क हैं, जिसमें से कार्बन, हाइड्रोजनएवं ऑक्सीजन हवा एवं जल के माध्यम से ग्रहण किये जाते हैं। शेष तत्वों के लिये पौधा भूमि पर निर्भर करता है। अधिक उपज देने वाली प्रजातियां भूमि से अधिक मात्रा में पोषक तत्वों का दोहन करती हैं।

यह आवश्यक है कि मृदा मेंइन पोषक तत्वों की उचित मात्रा उपलब्ध रहे। इन तत्वों की कमी होने पर पौधों की बढ़वार एवं उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसके लिये उचित उर्वरक, उसकी मात्रा एवं प्रयोग विधि की जानकारी का होना अति आवश्यक है।

महत्वपूर्ण पोषक तत्वों के प्रबंध की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है:

                                                                

नाइट्रोजन- नाइट्रोजन की कमी होने पर पौधों पर पुरानी पत्तियां पीली होने लगती हैं तथा पौधों की बढ़वार रूक जाती है।

फसलों में नाइट्रोजन की आवश्यकता को पूरा करने हेतु मृदा परीक्षण प्रयोगशाला द्वारा संस्तुत की गई यूरिया या अन्य नाइट्रोजन उर्वरक की मात्रा का प्रयोग लाभकारी होता है।

देर से पकने वाली गेहूँ की प्रजातियों में नाइट्रोजन की 1/3 का प्रयोग बराबर मात्रा में सिंचाई व बुवाई के दो माह बाद करना चाहिये। बारानी क्षेत्रों में उर्वरक की संपूर्ण मात्रा का प्रयोग बुवाई के समय ही अथवा यूरिया 2 प्रतिशत घोल का छिड़काव पौधों पर किया जा सकता है। फसल द्वारा नाट्रोजन उर्वरकों के समुचित उपयोग हेतु सिंचाई नियंत्रण अति आवश्यक है।

क्षारीय भूमि में नाइट्रा्रजका वाष्पीय हा्रस रोकने हेतु सिंचाई नियंत्रण अति आवश्यक है। क्षारीय भूमि में नाइट्रोजन का वाष्पीय ह्रास रोकने हेतु यूरिया को बुवाई के समय ड्रिल द्वारा डाला जाये अथवा यूरिया के छिड़काव के बाद हल्की सिंचाई से मृदा सतह के नीचे पौधों की जड़ों तक पहुंचाया जाये। रबी दलहन फसलों में जैव खादों एवं उचित जीवाणु कल्चरों का प्रयोग पोषण प्रबंध में विशेष महत्व रखता है।

फास्फोरस- पौधों में फास्फोरस की कमी होने पर उनकी वृद्धि रूक जाती है और जड़ों का विकास कम होता है तथा फसल देर से पकती है। इसकी कमी के लक्षण प्रायः लालिमा लिये हुये धब्बों के रूप में निचली पत्तियों पर आते हैं। फास्फोरस की कमी को दूर करने हेतु सिंगल सुपर फास्फेट या डीएपी का प्रयोग बुवाई के समय मृदा परीक्षण के आधार पर की गई संस्तुति के अनुसार करना चाहिए।

                                                                      

यदि किसान के पास कम मात्रा में फास्फोरस उर्वरक उपलब्ध है तो इसका प्रयोग रबी में ही करना चाहिए। ऐसी मृदाओं में जहां फास्फोरस का स्थिरीकरण अधिक होता हो, उर्वरक का बीज के बगल में 5 संटीमीटर नीचे अवस्थापन उचित रहता है।

पोटेशियम- इसकी कमी होने पर पत्तियों के किनारे सूखनेलगते हैं और भूरे पड़ जाते हैं। इसकी कमी से अन्य पोषक तत्वों का संतुलन बिगड़ने लगता है तथा पौधे की जैविक एवं कायिक क्रिया प्रभावित होती है।

पोटेशियम की कमी दूर करने के लिये म्यूरेट ऑ पोटाशियम सल्फेट का प्रयोग बुवाई के समय मृदा परीक्षण के आधार पर की गई संस्तुति के अनुसार करना चाहिये।

मैग्नीशियम- इसकी कमी से पुरानी पत्तियों पर पीलापन आता है और सफेद धारियां पड़ती हैं। अधिक कमी होने पर पत्ती पीली एवं ऊपर की ओर मुड़ जाती है।

इसकी कमी को दूर करने के लिये मैग्नीशियम युक्त चूना पत्थर (डोलामाइट) का प्रयोग ऊपर वर्णित तरीके से करना चाहिये।

गंधक- गंधक की कमी प्रायः उत्तर भारत के अनेक भागों में देखी जाती है। इसकी कमी से तिलहन एवं अन्य उपज में कमी होती है। इसकी कमी के लक्षण नाइट्रोजन के समान होते हैं।

ये लक्षण केवल नई पत्तियों पर दृष्टिगोचर होते हैं। इसकी कमी को दूर करने हेतु जिप्सम या अमोनिया सल्फेट का प्रयोग 20-30 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर बुवाई के समय करना चाहिये।

लोहा- प्रायः चूनेदार एवं क्षारीय मृदाओं में इसकी कमी देखी जाती है। इसकी कमी होने पर नई पत्तियों में शिराओं के बीच पीलापन लिये सफेद रंग की धारियां आती हैं। अधिक कमी होने से पूरी पत्ती क्लोरोफिल की कमी से सफेद हो जाती है। गेहूं में पीली पड़ी पत्ती का अग्रभाग सूख जाता है।

लोहे की कमी को दूर करने के लिये 0.25-0.5 प्रतिशत फैरस सल्फेट के घोल का पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिये। लोहा चिलेट्स का प्रयोग अधिक प्रभावकारी होता है।

मैगनीज- इसकी कमी के लक्षण चूनेदार एवं क्षारीय और अधिक जल निकास वाली बलुई मृदाओं में देखे जाते हैं। गेहूं की फसल में इसकी कमी होने पर पत्तियां छोटी रह जाती हैं और बीच की पत्तियांे में मध्य भाग पर पीले रंग की पट्टियां दिखाई देती हैं, जो बाद में सूख जाती हैं।

मैगनीज की कमी को दूर करने के लिये 30-35 किलोग्राम/हैक्टेयर मैगनीज सल्फेट का प्रयोग भूमि में जुताई से पूर्व करना चाहिए। खड़ी फसल में 0.5 प्रतिशत मैगनीज सल्फेट 0.25 प्रतिशत चूने के घोल का पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिये।

जस्ता- जस्ता एक सूक्ष्म पोषक तत्व है। इसकी कमी के लक्षण क्षारीय एवं चूनेदार मृदाओं में कम जैव पदार्थ वाली बलुई मृदाओं में देखे गये हैं।

गेहूँ की फसल में इसकी कमी होने पर बीच की पत्तियों का अग्रभाग सूख जाता है।

इसकी कमी को दूर करने के लिये 25-50 कि. जिंक सल्फेट का प्रयोग प्रति हैक्टेयर भूमि में बुवाई से पूर्व करना चाहिये। खड़ी फसल में 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट 0.25 प्रतिशत चूने के घोल का छिड़काव करना चाहिये। चूने के स्थान पर 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का भी प्रयोग किया जा सकता है।

इसकी कमी के लक्षण क्षारीय मृदाओं एवं जैविक मृदाओं में देखे जाते हैं। इसकी कमी होने पर पत्तियां कुम्हला जाती हैं। गेहूँ की फसल में दाने नहीं बनते हैं। तांबे की कमी को दूर करने के लिये 10-50 किलोग्राम कॉपर सल्फेट प्रति हैक्टेयर की मात्रा का प्रयोग भूमि में बुवाई से पूर्व करना चाहिये। खड़ी फसल में 0.25 प्रतिशत कॉपर सल्फेट 0.125 प्रतिशत चूने के घोल का छिड़काव करना चाहिये।

बोरान- इसकी कमी के लक्षण अति निक्षलित बलुई मृदाओं में अम्लीय एवं चूनेदार मृदाओं में देखे जाते हैं।

गेहूँ की फसल में पुरानी पत्तियों पर सफेद धब्बे पड़ते हैं, जो बाद में बढ़कर पीले, नारंगी, अनियमित आकार के रूप में पत्तियों को ढ़क लेते हैं। बोरान की कमी को दूर करने हेतु 5-10 किलोग्राम बोरेक्स प्रति हैक्टेयर का प्रयोग भूमि में अथवा 0.2 प्रतिशत बोरेक्स के घोल का छिड़काव खड़ी फसल में किया जा सकता है।

मोलिब्डेनम- इसकी कमी के लक्षण मृदाओं में प्रायः दलहन एवं गोभी की फसल पर आते हैं। इसकी कमी होने पर दलहन की नई पत्तियों पर पीले धब्बे दिखाई देते हैं। गोभी में डंठल के आधार के पास पत्ता सूखकर गिर जाता है। दलहन में जड़ों में बनने वाली ग्रन्थियों का आकार घट जाता है।

मोलिब्डेनम की कमी को दूर करने के लिये ग्रंथियों 0.75-1.0 कि. सोडियम या अमोनियम मालिब्डेट प्रति हैक्टेयर का प्रयोग भूमि में करना चाहिये। खड़ी फसल पर इन यौगिकों के 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव किया जा सकता है।

विशेष बिन्दु- उर्वरकों का संतुलित मात्रा में प्रयोग करें, यदि मृदा परीक्षण रिपोर्ट में फास्फोरस तथा पोटाश के उर्वरकों के प्रयोग की संस्तुति की गई है तो उसे कार्यान्वित करें। ऐसी स्थिति में केवल नाइट्रोजन उर्वरक जैसे यूरिया के प्रयोग में दाल की अच्छी उपज नहीं प्राप्त हो सकती है।

                                                                    

तिलहनों में गंधक की कमी के प्रति सजग रहें।

सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे जस्ता, तांबा, लोहा, मैगनीज तथा मोलिब्डेनम की कमी के प्रति सजग रहें। जिस सूक्ष्म पोषक तत्व की कमी हो, केवल उसी का प्रयोग करें, अन्य का नहीं।

जैव उर्वरकों का प्रयोग दलहनी फसलों में अवश्य करें।

कार्बनिक खादें, जैसे गोबर की खाद कम्पोस्ट, मुर्गीखाने की खाद प्रेसमड का प्रयोग करें। उर्वरकों में मिलावट के प्रति सजग रहें।

 

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।