वैश्विक तापमान वृद्वि कम करने का प्रबन्धन      Publish Date : 26/10/2023

                                                                        वैश्विक तापमान वृद्वि कम करने का प्रबन्धन

                                                                                                                                                                  ड0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

                                                                           

ग्लोबल वार्मिंगः पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा

विगत 02 दिसम्बर 2018 से 14 दिसम्बर तक दुनियाभर के 200 देशों के प्रतिनिधियों के मध्य जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसी) की 24वीं कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कोप-24) पोलैण्ड के काटोवाइस शहर में सम्पन्न हुई, जिसमें वर्ष 2015 में हुए पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को लागू करने के लिए दिशा-निर्देशों पर सहमति बनी। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य वैश्विक तापमान वृद्वि को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करना है।

    संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटरेज के अनुसार वर्ष 2020 तक अगर दुनिया जलवायु परिवर्तन पर ठोस कदम नही उठाती है तो हम जलवायु परिवर्तन के जोखिम को ओर आगे ही बढ़ायेंगे। उन्होने कहा कि जलवायु में मानव की अपेक्षा से तेजी से बदलाव हो रहे है। उन्होंने वैश्विक नेताओं को इस विषय पर पहले ही चेताया है और कहा कि यह हमारे दौर का एक सबसे अहम परिभाषित मुद्दा है।

1. विश्व तबाही से कितना दूर है?

    औद्योगिक क्रान्ति आरम्भ होने के बाद (1850 को आमतौर इसके लिए उत्तदायी वर्ष माना जाता है) अब तक भूमण्ड़ल के तापमान में लगभग 1 डिगी सेल्सियस की वृद्वि हो चुकी है। वैाानिकों का मानना है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्वि विनाशकारी दुष्परिणाम उत्पन्न करेगी, इसके कारण किसी भी हाल में वर्तमान सदी के अंत तक धरती का तापमान 2 डिग्री से अधिक नही बढ़ना चाहिए।

    इस बढ़त को रोकने के लिए दुनिया के तमाम देशों को ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन के उत्सर्जन को तेजी से कम और इसके बाद बन्द करना होगा। इसके लिए बिजली बनाने और वाहन परिचालन जैसे कार्यों के लिए साफ-सुथरे ईंधन का उपयोग करना होगा। बैटरी कार, सोलर पैनल से बिजली और पवन ऊर्जा जैसे विकल्पों के साथ न्यूक्लियर और छोटे हाइड्रो-प्रोजेक्ट इसका बेहतर विकल्प हो सकते हैं।

2. कॉप-24 पोलैण्डः इन मुद्दों पर बनी सहमतिः

                                                            

    कॉप-24 यानी 24वां कान्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज टू द यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज पर पोलैण्ड में वर्ष 2015 के पेरिस जलवायु समझौते को लागू करने पर सहमति बनी है। वर्ष 2020 से यह समझौता लागू होना है, अमेरिका के पेरिस जलवायु समझौते से बाहर निकलने की घोषणा के बाद यह सम्मेलन काफी महत्वपूर्ण हो गया था। ऐसे में इस सम्मेलन में वे कौन से मुद्दे थे, जिन पर चर्चा हुई?

    इस सम्मेलन में दुनिया के लगभग सभी देशों इस बात पर विचार किया कि धरती के तापमान को बढ़ने से रोकने के लिए कौन से प्रभावी उपाय किए जाए। वर्ष 2015 के पेरिस समझौते को वर्ष 2020 से कैसे लागू किया जाए, इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर खुलकर चर्चा की गई। गरीब देशों और अमीर देशों के कार्बन उत्सर्जन की सीमा को लेकर जो विवाद था, इस मामले में चीन ने पहल करते हुए वर्ष 2015 के पेरिस समझौते को आगे बढ़ाने के लिए हामी भरी जिससे इस सम्मेलन को काफी बल मिला।

    सबसे बड़ी आम सहमति इंटर-गवर्नमेंटल पैनल की जलवायु परिवर्तन पर वैज्ञानिक रिपोर्ट को लेकर है। कुछ देशों के समूह, जिनमें सऊदी अरब अमीरात, अमेरिका, कुवैत और रूस ने आईपीसीसी की रिपोट को खारिज कर दिया है। अब इसको लेकर बीच का कोई रास्ता निकालने का प्रयास किया जा रहा है, हालांकि मामला अब भी पूरी तरह से सुलझ नही पाया है। वर्ष 2015 के पेरिस जलवायु समझौते को लागू कराने को लेकर अब भी दुनिया के विकसित, अविकसित और विकासशील देशों में कई स्तरों पर मतभेद है। आईपीसीसी ने काबर्न उत्सर्जन को लेकर जो सीमा तय की है उस पर कई देशों के मध्य मतभेद है, हालांकि भारत ने वर्ष 2030 तक 30-35 फीसदी कम कार्बन उत्सर्जन करने की बात दोहरायी है।

3. आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट

    पिछले दिनों 40 देशों के 200 से अधिक वैज्ञानिकों के द्वारा तैयार की गई जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी (इंटरगवर्नमेंटल पैनल आफ क्लाइमेट चेन्ज) की ताजा रिपोर्ट कहती है कि आगामी 12 वर्षों में (वर्ष 2030 तक) उठाए गए कदम ही यह तय करेंगे कि दुनिया में असामान्य मौसम और आपदाओं से हम बच पाएगें या उनके चंगुल में ओर फंसते चले जाएंगे। अमीर देशों के पास तो जलवायु परिवर्तन के खतरों से लड़ने के लिए पैसों और संसाधनों की कमी नही है, परन्तु भारत समेत तमाम विकासशील और गरीब देशों के लिए यह एक चिन्ता का विषय है। आईपीसीसी की इस रिपोर्ट को 1000 से अधिक विशेषज्ञों ने अपना व्यू दिया है और इस रिपोर्ट में साफतौर पर चेतावनी दी गई है कि धरती के बढ़ते तापमान को सुरक्षित स्तर तक रोकने के लिए अब ढ़ील देने वक्त नही बचा हैं।

    दुनिया में पिछले 150 वर्षों में अमेरिका ने सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन किया है लेकिन यह विडम्बना ही है कि ट्रंप की अगुआई वाली अमेरिकी सरकार न केवल पेरिस में हुए एतिहासिक जलवायु परिवर्तन समझौते से स्वयं को अलग करने का फैसला किया है बल्कि वह आईपीसीसी की ताजा रिपोर्ट से भी खुद को अलग कर रहा है। जबकि भारत के नजरिये से हिमालयी ग्लेशियरों और विशाल तटरेखा के साथ-साथ गांव में रहने वाली आबादी और कृषि को देखते हुए इस रिपोर्ट का बड़ा महत्व है।

    आज हिमालय में हजारों छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं जो बढ़ते तापमान के कारण पिघल सकते हैं। इससे पहाड़ी पर्यावरण के अंसतुलित होने और भारी तबाही आने का खतरा है। भारत की समुद्र-तटीय रेखा 7500 किलोमीटर लम्बी है और समुद्र का जल स्तर निरंतर बढ़ रहा है। भारत की 7500 किलोमीटर लम्बी तटरेखा से लगे क्षेत्रों में करीब 25 करोड़ लोगों की आबादी निवास करती है। तापमान की वृद्वि इन 25 करोड़ लोगों का जीवन और उनकी रोजी-रोटी को प्रभावित कर सकती है। खासतौर से समुद्री जीवन पर निर्भर रहने वाले मछुआरों के लिए एक बड़ी चुनौति हो सकती है।

    अमीर देशों में रहने वाले लोगों का विलासितापूर्ण जीवन दुनिया में बढ़ रहे कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है। इसलिए जहां एक ओर सरकारों को बिजली बनाने के कार्बन रहित स्रोत, सौर और पवन ऊर्जा के साथ बैटरी का इस्तेमाल करना होगा।

4. पेरिस समझौते के राह के रोड़े

                                                                                     

    वर्ष 2020 तक पेरिस समझौते का पूरी तरह से क्रियान्वयन किया जाना था।, लेकिन इसकी राह में अभी भी कई रोड़े हैं। दरअसल, इस समझौते की असली अड़चन विकसित देशों के रूख को लेकर है। अमेरिका के इस समझौते से बाहर होने के बाद उससे मिलने वाली वित्तीय सहायता के आसार भी कम हो गये हैं। असल में वायुमण्ड़ल में जितना भी कार्बन जमा हुआ है उसका करीब 50 प्रतिशत अमेरिका और यूरोपीय देशों के साथ अमीर देशों के कारण है। यहां हुई औद्योगिक क्रॉन्ति और यहां के लोगों का विलासितापूर्ण जीवनचर्या अत्याधिक ऊर्जा के उपयोग और कार्बन का उत्सर्जन इसके लिए जिम्मेदार है। वर्तमान में चीन सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन कर रहा है। वर्ष 2015 में ऐतिहासिक पेरिस सन्धि हुई थी, जिसमें दुनिया के करीब-करीब सभी देशों ने हस्ताक्षर किए थे। इन देशों ने संयुक्त राष्ट्र को बताया कि वह कार्बन उत्सर्जन कम करने और तापमान वृद्वि को रोकने हेतु क्या कदम उठाएंगे। लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका ने पेरिस समझौते से पीछे हटने का फैंसला किया जो कि इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों को एक बहुत बड़ा धक्का है।

5. सम्मेलन में भारत पक्ष

    पोलैण्ड में भारत के प्रतिनिधि के रूप में शामिल केन्द्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, पृथ्वी विज्ञान, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री डॉ0 हर्ष वर्धन ने इस सम्मेलन से सकारात्मक उम्मीद जताई है। असल में भारत की उम्मीद है के अनुरूप कॉप-24 में विकसित देशों के मुकाबले विकासशील देशों के सामने मौजूद चुनौतियों पर भी खुलकर बातचीत हुई। भारत ’’संतुलित और समावेशी’’ मॉडल पर जोर देता रहा है। क्योंकि अधिकांश विकासशील देश अति संवेदनशीलता, विकास की प्राथमिकता, गरीबी उन्मूलन, खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा की मांग और स्वास्थ्य ढ़ॉंचा उपलब्ध कराने के मामले में अभी शुरूआती स्तर पर ही खड़ें हैं। पिछले कई जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों में भारत ने कार्बन उम्सर्जन को कम करने के प्रति अपनी प्रतिबद्वता दोहराई है साथ ही अक्षय ऊर्जा के अधिक उपयोग और अक्षय ऊर्जा की अपनी बढ़ती क्षमता पर भी दुनिया के सामने अपना पक्ष रखा है। सच्चाई तो यह है कि अक्षय ऊर्जा के अधिकाधिक प्रयोग से ही कार्बन उत्सर्जन कम हो सकता है।

6. पोलैण्ड सम्मेलन से उम्मीद

    पोलैण्ड जलवायु सम्मेलन में 2015 में हुई पेरिस समझौते को लागू करने के लिए एक नियमावली (रूल बुक) बनाई गई है जिसे सभी देश अपने यहां प्रभावी तरीके से लागू करेंगे। पेरिस समझौता 2020 से लागू होना है ऐसे में कार्बन उत्सर्जन रोकनें के प्रयासों पर विभिन्न देशों के बीच उत्पन्न मतभेदों पर बात करना और उन्हे दूर करने की कोशिश करना भी अनिवार्य था।

    पेरिस समझौता बिजली के निर्माण से लेकर अन्य कई चीजों पर कड़ी नजर रखेगा जिनमे से मुख्य यह होगा कि किस प्रकार से कुछ चुनिंदा अमीर देश बाढ़, सूखे और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में गरीब देशों की सहायता करते हैं। वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन मानव जीवन के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुई औद्योगिक क्रॉन्ति ने हमें मुख्यतः जीवाश्म ईंधन पर निर्भर बना दिया है और हम बिजली से लेकर कारखानों और कृषि तक पूरी तरह से इसी पर निर्भर हैं। लेकिन यह ईंधन बड़ी मात्रा में ऐसी गैसों का उत्सर्जन करते हैं जो सूरज की रोशनी को पूरी तरह तक धरती पर आने से रोकते हैं और उसे वायुमण्ड़ल में ही रोक देते हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण है। इसके चलते धरती के तापमान में पहले से ही करीब 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्वि हो चुकी है। जलवायु परिवर्तन सम्पूर्ण मानवता के लिए बहुत बड़ा खतरा है और पेरिस समझौता मूलतः इस चुनौती से निपटने के बारे मे ही है। पिछले चार वर्षों से इस समझौते को तैयार करने और लागू करने के प्रयास निरंतर जारी थे। कुल मिलाकर अगर इस जलवायु समझौते के मसौदों और घोषणाओं को सभी देशों ने अपने यहां लागू कर दिया तो हमस ब एक बेहतर कल की कल्पना कर सकते हैं। इस समझौते का जलवायु परिवर्तन पर कितना असर पड़ेगा यह तो आने वाला कल ही बताएगा लेकिन फिलहाल पेरिस समझौते से एक सकारात्मक उम्मीद तो बंधती सी दिख ही रही है।

ग्रीन हाउस गैसों के कारण बढ़ रहा है धरती का तापमान, किसानों ने कॅमिकल-मुक्त खेती करना किया आरम्भ-

                                                                   

    सम्पूर्ण विश्व में कार्बन डाई-आक्साइड़ का उत्सर्जन विकसित देश जैसे, अमेरिका और चीन आदि करते हैं, जबकि भारत कार्बन डाई-आक्साईड का उत्सर्जन न्यूनतम कर रहा है। आने वाले पांच वर्षों में भारत के समस्त उद्योग सीएनजी आधारित होंगे। वर्तमान में भारत डिस्टलरी उद्योग के कारण होने वाले जल प्रदूषण को पूरी तरह से समाप्त कर चुका है और अब प्लास्टिक का उपयोग भी अपने न्यूनतम स्तर पर है।

    राष्ट्रीय हरित अभिकरण के द्वारा पर्यावरण को बचाने के लिए एनजीटी बनाया गया था, अभिकरण की प्रिंसिपल बैंच के पूर्व सदस्य एवं आईएएस विजय शर्मा ने बताया कि एनजीटी की स्थापना के समय वह उस बैंच के सदस्य रहे हैं, और इसका गठन पर्यावरण को बचाने के उद्देश्य से किया गया है। इस सम्बन्ध में विजय शर्मा का कहना है कि 20वीं शताब्दी के बाद जैसे-जैसे औद्योगीकीकरण ने गति प्राप्त की उसी के अनुरूप प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अत्याधिक निर्मम तरीके से किया गया।

                                                                  

इसी के सन्दर्भ में एनजीटी के द्वारा हाल ही के वर्षों में विभिन्न महत्वपूर्ण फैंसले दिए गए हैं। वर्ष 2012 में, ठोस अपशिष्ट के प्रबन्धन के लिए निर्णय दिया गया। 15 वर्ष से अधिक पुराने डीजल एवं पैट्रोल से संचालित होने वाले वाहनों के प्रयोग पर रोक लगा दी गई है। गंगा नदी को पुर्नजीवित तथा स्वच्छ करने की दिशा में भी कई महत्वपूर्ण दिशा निर्देशों को भी जारी किया गया है। इसके अन्तर्गत उन्नाव खंड़ के किनारे से 100 मीटर के दायरे वाले क्षेत्र को नो डेवलेपमेन्ट जोन घोषित कर दिया गया है और इसके साथ ही यमुना नदी के कायाकल्प के सम्बन्ध में अनेक ऐतिहासिक निर्णय भी दिये गये हैं। एनजीटी के द्वारा प्लास्टिक के थैलों पर पूर्ण प्रतिबन्द लगाया गया और इस प्रकार के सभी निर्णय केवल और केवल पर्यावरण को बचाने का प्रयास ही रहें हैं।       

लेखकः डा0 आर.एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रोद्यांगिकी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एवं कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के अध्यक्ष हैं।