किसान देश की शान, फिर क्यों है परेशान?      Publish Date : 29/06/2025

           किसान देश की शान, फिर क्यों है परेशान?

                                                                                                                                   प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

किसान की समस्या पर बात करना एक तरह से फैशन हो गया है। कहीं भी किसान की समस्या उठी कि चारों ओर से बयानबाजी बढ़-चढ़ कर शुरू हो जायेगी और पदि किसानों पर कहीं गोली चल गई तो गोली चलने वाला स्थॉन तीर्थस्थली बन जायेगा। वहां सबका पहुंचना और माथा टेकना जरूरी हो जाता है। बावजूद इसके फिर भी किसान समस्या को कितने हल्के ढंग से लिया जाता है इसके लिए एक ही उदाहरण ही पर्याप्त है।

                                                     

पडरौना (कुशीनगर) में चीनी मिल व गन्ना समस्या को लेकर किसानों ने प्रदर्शन किया। गोली चली और एक किसान की मृत्यु हो गई। देश के सभी पूर्व प्रधानमंत्री और सभी पार्टियों के बड़े-बड़े नेता वहां पहुँच गये। सबने बड़े-बड़े वादे किए, लेकिन छः माह बीत गए और समस्या आज भी जहाँ की तहां है। अब कोई नेता यहां जाने को तैयार नहीं है।

पिछले एक दशक में प्रदेश का किसान इतना, परेशान नहीं रहा जितना कि वह आज है। इसकी परेशानी दूर करने के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री ने चौधरी चरण सिंह के जन्म दिवस २२ दिसम्बर को किसान दिवस मनाने की घोषणा की और चौधरी साहब के जन्म स्थान नूरपुर (गाजियाबाद) जाकर एक किसान रैली भी कर दी।

इस रैली में 11 प्रगतिशील किसानों को शाल ओढ़ाकर सम्मानित किया और प्रतीक रूप में यू.पी. एग्रो की योजना के अन्तर्गत अनुदान पर तीन किसानों को ट्रैक्टरों की चाबी भी उन्हे सौंप दी गई। एक अन्य किसान सम्मेलन में स्वयं ट्रैक्टर चलाकर दिखा दिया और घोषणा कर दी कि प्रदेश के किसानों को तीन वर्षों में समृद्ध नहीं बनाया तो इस्तीफा दे दूंगा।

उन्होंने किसानों से यह भी कहा कि यदि उन्हें कहीं से इन्साफ न मिले तो केवल उनके नाम एक दो लाइन की चिट्ठी लिखकर भेज दें और पन्द्रह दिन में कार्यवाही होते देख लें। मुख्यमंत्री की ऐसी घोषणाएं भारतीय किसान केवल सुन ही सकता है।

बेचारा करे भी तो क्या करे?

                                            

किसानों की परेशानी दूर करने की नीयत हो तो पहले किसानों की समस्या को ईमानदारी से समंझना होगा। पहली समस्या है किसानों को फसल की लागत की तुलना में सही मूल्य नहीं मिल रहा है। जनपद-देवरिया के एक गांव में किसानों से बातचीत में लागत और मूल्य की यह स्थिति प्रगट हुई। एक बीघा (डेढ़ बीघा का एक एकड़) धान लगाने में बीज-300 रु., खेत की जुताई 700 रु., रोपाई पनियट-200 रु., खाद यूरिया 230 रु., दया- 150 रु., कटाई-मशीन 500 रु., कुल 3205 रुपया। एक बीघा में पैदावार लगभग 12 कुंतल। धान का बाजार मूल्य 300 रु. प्रति कुंतल, इस प्रकार धान का बाजार मूल्य 3600 रुपया है।

कुलाबा ने एक बीघा धान बोने से काटने तक 3205 रुपया खर्च किया और उसे मिला केवल 3600 रुपया अर्थात केवल 400 रु. की बचत। 400 रुपये में कलान की स्वयं एवं उसके परिवार के सदस्यों और अन्य किसानों के साथ चार महीने तक निरन्तर खेत की देखरेख भी शामिल है। सामान्यतः किसानों के पास दो से तीन एकड़ अर्थात 3 से 5 बीघे तक ही धान बोने के लिए खेत है।

यदि भारत के किसानों को देश की शान कहा गया है क्योंकि वे देश के कोने-कोने में फैले हुए हैं। मैदानों में, घाटियों में, जंगलों में, पहाड़ों पर प्रकृति के थपेड़े खाते हुए किसान इस देश के सौ करोड़ लोगों का पेट पाल रहे हैं। कल्पना करिये एक साल तक किसान खेती करना छोड़ दे तो क्या यह देश बच पायेगा? यहां के शहर जिन्दा रह पायेंगे?

इसका तात्पर्य कि किसान जो धान बो रहा है, यदि धन बोने के काम करेगा तो मात्र 18 रुपया प्रतिदिन कमायेगा और यह खेती छौड़कर कहीं मजदूरी कर ते तो 100 रुपये से 150 रु. तक प्रतिदिन कमा सकता है।

किसानों के अन्य फसलों के बारे में जो आंकड़े दिये गये वह इस प्रकार है। गेहूं लागत 2605 रु. कुल प्राप्ति 4650 रुपये, गन्ने की लागत 7055 रुपये, प्राप्ति 8000 रु., इसमें भी किसानों की अपनी और उसके परिवार की मजदूरी शामिल नहीं है।

लांगत की तुलना में बहुत कम प्राप्ति का कारण कृषि उत्पादों के अलावा अन्य स्रोतों के दामों में बेतहाशा वृद्धि को किसानों ने मुख्य कारण बताया। पिछले साल की तुलना में डीजत 36 रु. प्रति लीटर से इस साल 56 रु. प्रति लीटर है। गेहूं. बीज 17 रु. प्रति किलो से इस साल 21 रु. प्रति किलो, धान का बीज 10 रु प्रति किलो से इस साल 15 रु. प्रति किलो, गन्ने का बीज 125 रु. प्रति कुन्तल से इस साल 135 रु. प्रति कुन्तल, खाद, एन.पी. के. 800 रु. प्रति बोरी से इस साल 1025 रु. प्रति बोरी, सिंचाई 50 रु. प्रति घंटा से इस साल 70 रु. प्रति घंटा, जुलाई 360 रु. प्रति बीघा से इस साल 400 रु. प्रति बीघा, कटाई 800 रु. प्रति एकड़ से इस साल 1000 रु. प्रति एकड़, गन्ना की दुलाई 10 रु. प्रति क्विंटल से इसे साल 15 रु. प्रति कुन्तल, बिजली के दर में 1.5 गुना वृद्धि, पिछले साल की तुलना में धान 450 रु. प्रति कुन्तल इस वर्ष 300-350 रु. प्रति कुन्तल, गेहूं 1500 रु. प्रति कुन्तल से इस वर्ष  1600 रु. प्रति कुन्तल, गन्ना सरकारी दर 450 रु. प्रति कुन्तल से इस वर्ष 480रु. प्रति कुन्तल, क्रेसर पर 450 रु. प्रति कुन्तल, यथा टू फोर की 156 रु. प्रति किलो से इस साल 300 रु. प्रति किलो। अन्य दवाओं एवं कीटनाशकों में दो गुना वृद्धि। गाय व भैंस के दाम में बेहताश वृद्धि, ट्राली में 8000 रु. की वृद्धि, ट्रेलर ये 4000 रु. की वृद्धि, पम्पिंग सेट में 2000 रु. से 3000 रु. की वृद्धि हुई है।

इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार में जहां ऋण, खाद व इंजन आदि के लिए 5 प्रतिशत कमीशन देना पड़ता था अब यह बढ़कर 10 प्रतिशत हो गया है। किसानों को अपनी फसल का सही दाम मिले इसके लिए सरकार निरंतर प्रयास कर रही है।

सरकारी भाव पर धान खरीद कर क्रय केन्द्रों को दे रहा है। इसमें व्यापारी सरकारी विभाग के कर्मचारी और धान मिल के मालिक का ऐसा चक्रव्यूह बना हुआ है जिसे तोड़ पाना मुश्किल है। किसान जिसे धान बेचकर गेहूं बोना है और उसे तत्काल पैसे की आवश्यकता है, वह बाजार भाव पर व्यापारी को धान बेचने के लिए मजबूर है। गन्ने की हालत तो इससे भी दयनीय है। गन्ने की कीमत लुभावनी लगती है लेकिन यदि मिल जाए तो किसान द्वारा गन्ना बेचने में सबसे बड़ी चिन्ता है कि उसे उसका भुगतान मिलेगा या नहीं।

कई ऐसी चीनी मिले हैं जहां तीन-तीन साल पुराना बकाया है। उनकों गन्ना देना अपना पैसा पानी में फेंकने जैसा है। कुछ चीनी मिल भुगतान एक साल में कर रही हैं लेकिन यहां गन्ना भेजने के लिए एक ट्राली का खर्च। इतना पैसा किसानों के पास नहीं है कि वह ट्राली से भेज सके। मजबूर होकर उसे क्रेसर पर कम दाम में गन्ना बेचना पड़ रहा है। ऐसी हालत गेहूं की भी है। सरकारी दांग पर थोड़े ही की लोग बेच पाते है। मुख्यमंत्री कहते हैं कि 2 साइन या पोस्टकार्ड लिखकर भेज दीजिए और 15 दिन में समस्या का समाधान हो जायेगा। इसे देखते हुए 15 दिन में तो क्या मुख्यमंत्री 15 साल में भी इसका समाधान नहीं करा सकते।

किसान को अपनी लागत का सही मूल्य मिले, इसके लिए पुख्ता योजना बनानी होगी। इसके लिए पहली आकर बीज, पानी बिजली, दया, डीजल आदि का दाम स्थिर रखा जाय। यदि यह स्थिर नहीं रह सकता तो किसान अमूल्य मिल रहे इसके लिए स्थाई तौर पर क्रय केन्द्र बने रहे।

बिचौलियों पर कड़ी कार्यवाही की जाय। यदि यह सब सम्भव नहीं तो किसान का अनाज जिस भाव में ही उसे खरीद लिया जाए किन्तु जब यह चाहे उसे धान का चावल और गेहूं का आटा बनाकर केवल खर्च निकालकर वापस कर दिया जाय। इस देश की कुल आबादी के दो तिहाई लोग तो किसान है या कृषि श्रमिक हैं। कृषि का अलाभकर होने से दो तिहाई लोगों का जीवन बुरी तरह प्रति होगा।

इसको गम्भीरता से नहीं लिया गया तो मुट्ठी भर राजनेता, मुट्ठी भर सिनेमा स्टार, मुट्ठी भर खिलाड़ी, थोड़े से व्यापारी और सरकारी अधिकारी इस देश को नहीं बचा पायेंगे। किसान की दूसरी समस्या है विश्व व्यापार संगठन का भारत द्वारा सदस्य बनने से बाजार उदारीकरण और अर्थमवरणा के विशाल व्यापारीकरण होने से मिलने वाली चुनौती। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में एक टन गेहूं का दाम कोई 200 डालर है, वहीं गेहूं का अंतर्राष्ट्रीप मूत्य मात्र 153 डालर प्रति टन है। ऐसी स्थिति में भारत के गेहूं को दुनिया के लोग क्यों खरीदेंगे और यदि बाहर का गेहूं भारत में सरत्ता मिलने लगेगा तो भारतीय महगे गेहूं कोई क्यों खरीदेगा?

भारत मूलतः छोटे-छोटे किसानों का देश है। एक-एक, दो-दो बीघे वाले करोड़ों किसान है। यूरोप, अमेरिका की तरह यहां मैकेलाइन्ड सर्पिण कम होती है। इसलिये यहां किसानों के पास न तो कृषि की आधुनिक विशेषज्ञता है और न आधुनिक संसाधन ही, इसलिए इनके उत्पादन का मूल्य हमेशा अयिक होगा। सच्चाई तो यह है कि खेती यहां खाने के लिए की जाती थी, कमाने के लिए नहीं। यदि कमाने का कोई और स्रोत होता तो कोई परेशानी नहीं थी किन्तु कमाने के स्रोत जिस तरह से बंद होते जा रहे हैं, किसान मजबूर होकर खेती को ही कमाने का स्रोत बना रहा है और यही उसके उलझन व परेशानी का सबसे बड़ा कारण बनता जा रहा है।

विश्व व्यापार में किसान अनाज बेचकर मुकाबले में नहीं खड़ा हो सकता है। इसलिए आवश्यकता है, उसे विकल्प की तलाश करने का। भारतीय किसान की एक विडम्बना है कि वह अपना धान बेचता है 300 रु. प्रति कुन्तल किन्तु चावल खरीदता है 800 रु. प्रति कुन्तल। इसी तरह जब वह गेहूं बेचता है 450 रु. प्रति कुन्तल किन्तु आटा खरीदता है 1000 रु. प्रति कुन्तल। किसान के पास अपनी किसानी तो है किन्तु कृषि उत्पाद के लिए कार्य प्रसंस्करण का उद्योग नहीं है। यदि किसानी के साथ-साथ वह इस उद्योग में लग जाय तो बढ़ते हुए अन्य सामानों व मृत्ये मुकाबतल वह अपने इस उद्योग के आध्यान से कर कर सकता है।

सरकार द्वारा लिया करावी देख सुविधाएं सरलता से उपलब्ध करायी तभी होगा जब इसके लिए व्यापक नीति बनाई जाय। किसानों की तीसरी हाथ में आता है उससे ज्यादा उन पर कर्ज चढ़ जाता है। बच्चों की शिक्षा, परिवार के सदस्यों के यह कार्य में डूबता जाता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।