
मरूस्थलीकरण की प्रक्रिया को बढ़ाता सूखा Publish Date : 23/06/2025
मरूस्थलीकरण की प्रक्रिया को बढ़ाता सूखा
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
वैश्विक सहयोग से विश्व स्तर पर मरूस्थलीकरण का मुकाबला करने के उद्देश्य से वर्ष 1915 से प्रतिवर्ष 17 जून को विश्व मरूस्थलीकरण रोकथाम और सूखा दिवस मनाया जाता है। वैश्विक स्तर पर मरूस्थलीकरण एवं सूखें की बढ़ती चुनौतियों के सपोक्ष इस स्थिति से मुकाबला करने और इसके प्रति लोगों को जागरूक करने हेतु संयुक्त राष्ट्र महासभा के द्वारा वर्ष 1914 में मरूस्थलीकरण रोकथाम प्रस्ताव रखा गया था। इस दिवस के माध्यम से लोगों को जल और खाद्य सुरक्षा के साथ पारिस्थितिकी त्रत्र के प्रति जागरूक करने, प्रत्येक स्तर पर सूखे के प्रभाव को कम करने के लिए प्रभावी कार्य करने और नीति निर्धारकों पर मरूस्थलीकरण से सम्बन्धित नीतियों का एिनर्माण करने के साथ इससे निपटने के लिए कार्ययोजना बनाने के लिए दबा बनाने का प्रयास किया गया था।
इस वर्ष विश्व मरूस्थलीकरण एवं सूखा दिवस ‘‘भूमि को पुनःस्थापित करें: अवसरों को खोलें’’ की थीम के साथ मनाया जा रहा है, जो हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए हमारे ग्रह के महत्वपूर्ण भूमि संसाधन को संरक्षित करने के लिए एक सामुहिक कार्यवाई के महत्व को रेखांकित करता है। विश्व का 95 प्रतिशत भोजन कृषि भूमि पर ही उत्पादित किया जाता है, यही भूमि हमारी खाद्य-प्रणालियों का आधार है, परन्तु चिंता का विषय है कि वर्तमान समय तक इसमें से लगभग एक-तिहाई भूमि का क्षरण हो चुका है, जो कि दुनियाभर में लगभग 3.2 बिलियन लोगों को प्रभावित करती है, विशेष रूप से ग्रामीण समुदायों और छोटे किसानों को, जो कि अपनी आजीविका के लिए पूर्ण रूप से भूमि पर ही निर्भर होते हैं।
इससे भूख, गरीबी, बेरोजगारी और जबरन पलायन करने की स्थिति में वृद्वि होती है। जलवायु परिवर्तन स्थति इन मुद्दों को अधिक गम्भीर बना देती है, जिसके चलते टिकाऊ भूमि प्रबन्धन और कृषि के लिए गम्भीर चुनौतियों के उत्पन्न होने के साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र का लचीलापन भी कमजोर होता है।
ऐसे में जलावयु संकट सूखा, बाढ़ और जंगलों में आग लगने की घटनाओं आदि के माध्यम से मरूस्थलीकरण को बढ़ा रहा है, अर्थात मरूस्थलीकरण और जलवायु संकट परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। वर्तमान जलवायु संकट में भू-क्षरण का भी एक बहुत बड़ा योगदान है। पर्यावरणविदों के अनुसार वातावरण में उपलब्ध कार्बन की तुलना में मिट्टी में तीन गुना अधिक कार्बन मौजूद है और कार्बन का सबसे बड़ा भण्ड़ार मिट्टी में ही मौजूद है। कार्बन उत्सर्जन मिट्टी से निकलकर वातावरण में पहुँचकर वैश्विक तापमान में व्यापक वृद्वि कर रहा है और मरूस्थलीकरण के चलते यह समस्या और अधिक बढ़ रही है।
प्ृथ्वी का निरन्तर बढ़ता तापमान वायु की प्रकृति में भी बड़ा बदलाव कर रहा है। सूखा मरूस्थलीकरण की प्रक्रिया को तेज कर देता है और भारत की आबादी का एक बड़ा भाग तो शुष्क क्षेत्रों में ही निवास करता है। देश का लगभग 70 प्रतिशत भू-भाग (तकरीबन 22.83 करोड़ हेक्टेयर) शुष्क क्षेत्र माना जाता है और इस शुष्क भू-भाग की उत्पादकता काफी कम है।
देश का तकरीबन 7.36 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल मरूस्थलीकरण से प्रभावित है और भारत के कई क्षेत्र तो प्रायः सूखे की चपेट में ही रहते हैं। शुष्क क्षेत्रों का प्राकृतिक तंत्र मानव के द्वारा डाले जाने गैरजरूरी दबाव के कारण चरमराने लगता है और प्रक्रिया को न राक पाने की स्थिति में ही रेगिस्तन की भेंट चढ़ जाता है। लकड़ी के लिए वृक्षों की अंधाधुध कटाई अथवा अत्याधिक चराई के कारण उस तंत्र में प्राकृतिक रूप से उपयोगी पौधों की संख्या भी बहुत हद तक कम हो जाती है और इन उपयोगी पौधों का स्थान अनुपयोगी और अखाद्य पेड़-पौधे ग्रहण कर लेते हैं, इसका दुष्परिणाम यह होता है कि वह तंत्र पहले से भी बहुत कम संख्या में मानव एवं मवेशियों का पोषण कर पाता है और यही दुष्चक्र मरूस्थलीकरण की गति को तीव्र कर देता है। चूँकि रेगिस्तानी क्षेत्रों में बारिश बहुत ही अनियमित ढंग से होती है, ऐसे में इन क्षेत्रों में जल की सीमित उपलब्धता के चलते उत्पादकता पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है।
वैसे तो इन शुष्क क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम होती है, और जो वर्षा होती है वह काफी तेज एवं तूफानी प्रकृति की होती है, जिसके चलते ऐसे क्षेत्रों में होने वाली यह बारिश बाढ़ का रूप लेकर यहां की उपजाऊ मिट्टी को ही बहाकर ले जाती है और वहां बड़े-बड़े गड्ढे तथा नाले बन जाते हैं और क्षेत्र खेती के योग्य नहीं रहता है। कई क्षेत्रों में तो इसके चलते ही रेत के बड़े-बड़े टीले बन जाते हैं।
एक अनुमान के अनुसार, प्रतिवर्ष बंजर क्षेत्रों में प्रति हेक्टेयर क्षेत्र से पानी के कटाव के चलते 16.35 टन मिट्टी बह जाती है। बार-बार पड़ने वाला सूखा मरूस्थलीकरण की इस प्रक्रिया को और तेज कर देता है। मिट्टी का कटाव होने का एक दुष्परिणाम यह भी है कि पानी के साथ बहकर आने वाली यह मिट्टी हमारे जलाश्यों में भर जाती है, जिससे उनकी जलधारण क्षमता भी कम हो जाती है। बीते कुछ वर्षो में कई क्षेत्रों के लोगों को बारिश के कारण बाढ़ का कहर झेलना पड़ा है, उसका सबसे बड़ा कारण भी यही है। केवल इतना ही नहीं, बड़ी-बड़ी पनबिजली परियोजनाओं के सरोवरों में मिट्टी के भर जाने से उनसे निर्मित की की जाने वाली बिजली की मात्रा भी कम हुई है।
ऐसे में जहां तक वातावरण से से कार्बन को तेजी से सोखने का प्रश्न है तो तापमान में 1.5 डिगी सेल्सियस की कमी करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वातावरण से कार्बन को सोखने की प्रक्रिया को तेज करने की आवश्यकता है। पर्यावरणविदों के अनुसार ऐसा केवल कार्बन सिंक की क्षमता में वृद्वि करने से ही सम्भव हो सकता है। इसका सबसे अच्छा तरीका यही ताना जा रहा है कि कार्बनिक वनों, चारागाह और मिट्टी को समेट दिया जाए, जो मरूस्थ्लीकरण से निपटने के लिए बेहद कारगर है। व्यापक वनीकरण वनस्पति कवर में सुधार, जल का दक्षतापूर्ण उपयोग, मिट्टी के कटाव को बेहतर कृषि पद्वतियों के माध्यम से करना इत्यादि उपायों की मदद से मिट्टी में बायोमास का उत्पादन और जैविक कार्बन कंटेंट में सुधार सम्भव है।
पर्यावरणविदों का मानना है कि वनों की हानि को रोककर और उन्हें दोबारा से लगाकर वर्ष 20250 तक 150 बिलियन टन से भी अधिक कार्बन को कम किया जा सकता है और इस अवधि में शुष्क क्षेत्रों की भूमि को कृषि भूमि के अलावा 30-60 बिलियन टन कार्बन का संचय किया जा सकता है। लेकिन चिंताजनक स्थिति तो यह है कि भारत के जैसे विकाशील देशों में निरंतर बढ़ती जा रही आबादी की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कृषि की उत्पादकता को बढाने की आवश्यकता भी अनुभव की जा रही है परन्तु मरूस्थलीकरण के चलते इसमें आती कमी नीतियों में बड़े बदलाव करने की आवश्यकता पर भी व्यापक जोर दे रही है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।