उपेक्षित कृषि और किसान      Publish Date : 07/06/2025

                      उपेक्षित कृषि और किसान

                                                                                                                                                     प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

गरीबी और विवशता के चलते किसानों की आत्महत्याओं के बारे में प्रोफेसर सेंगर के विचार-

नोबेल पुरस्कार विजेता क्मृत हाम्सुन की प्रसिद्व पुस्तक ‘‘भूख’’ का नायक ईश्वर को धिक्कारता हुए कहता है, ‘मेरी आँखें खुली थी।’ मैं वहाँ पड़े-पड़े खुद से दूर जा चुका था। यह गजब का अहसास था, मैं खिल्ली उड़ा रहा हूँ तुम्हारी और तुम्हारी रहमदिली पर थूकता है।’ समाज, राज्यसत्ता और परमसत्ता जैसी भौतिक/पराभौतिक सभी संस्थाएं जब भरोसा तोड़ती हैं तो एकाकी व्यक्ति आत्महत्या ही करता हैं, तो संगठित जन बगावत। भारत के किसान एकाकी और असंगठित हैं। इसी कारण से किसान आत्महत्या पर उतारू है। भारत कभी कृषि प्रधान देश था। यहां कृषि ही प्रमुख आजीविका हुआ करती थी, प्रमुख व्यवसान की, समृद्धि, मुख्य कर्म थी और राष्ट्रधर्म थी, लेकिन आज के हालात बदतर हैं। किसान खेती छोड़ रहे हैं। राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन के ताजे आकलन के अनुसार 40 प्रतिशत किसानों ने खेती छोड़ने की इच्छा व्यक्त की है।

                                                    

सर्वेक्षण के अनुसार 50 प्रतिशत किसान कर्ज में हैं। देश की 69 प्रतिशत जनसंख्या खेती पर आश्रित है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में 20 प्रतिशत हिस्सा कृषि क्षेत्र का है। किसान पूरे देश को अन्न देता है। किसान की क्रय शक्ति की बढ़त से औद्योगिक उत्पादों की मांग भी बढ़ती है। इससे राष्ट्रीय विकास दर भी बढ़ती है। सर्वेक्षण के अनुसार ज्यादातर किसानों की क्रय शक्ति सामान्य क्लर्क या चपरासी की क्रयशक्ति से सात-आठ गुनी कम होती है। प्रधानमंत्री ने कृषि विकास पर एक और उच्च स्तरीय समिति बनाई है। इसके पहले वह राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन कर चुके हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद बहुत पहले से देश में कार्य कर रहा है। विद्वान अर्थशास्त्री हैं, सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक है, राजनेता है। गरीबों के कथित पैरोकार वामदल भी हैं।

बावजूद इसके कृषि उपेक्षित है। अर्थशास्त्रियों के तर्क बचकाने हैं। उनके अनुसार आजादी के समय 75 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर थी, अब 69 प्रतिशत ही रह गई है, लेकिन यह खुशफहमी दरअसल गलतफहमी ही है।

तब भारत की जनसंख्या 36 करोड़ थी। 75 प्रतिशत कृषि निर्भरता के हिसाब से तब 27 करोड़ आबादी कृषि आधारित थी। अब आबादी 110 करोड़ है। 69 प्रतिशत के हिसाब से अब 75 करोड़ यानी पहले से दूनी जनसंख्या कृषि पर निर्भर हो गई है। इसी किस्म के अर्थशास्त्री किसानों के लिए और ज्यादा ऋण बाँटने का बचकाना प्रस्ताव कर रहे हैं। किसान पहले से ही भारी कर्ज में हैं। वे नया कर्ज लेकर पुराना कर्ज बेशक उतार देंगे, लेकिन बुनियादी समस्या का समाधान नहीं होगा। उन्हें लाभकारी आय की गारंटी चाहिए। कृषि जिन्स के मूल्य उत्पादन लागत से ज्यादा होने चाहिए। कृषि उत्पादन लागत बढ़ी है। औद्योगिक क्षेत्र खाद, कीटनाशक, ट्रैक्टर, पंपसेट, डीजल इंजन और अन्य कृषि उपकरणों की मनमानी कीमतें लेकर मालामाल हैं। गेहूँ, चावल, कपास, गन्ना, मिर्च और सब्जियों की कीमतें उसके अनुपात में नहीं बढ़ी। लिहाजा किसान फटेहाल है। कृषि में पूंजी का अभाव है।

                                                   

10वीं पंचवर्षीय योजना (2000-2005) में कृषि पर जारी निवेश कुल राष्ट्रीय आय का 1.3 प्रतिशत ही है। इसमें किसानों द्वारा अपने स्तर पर किया गया खर्च भी शामिल है। सरकारी निवेश सकल राष्ट्रीय आय का सिर्फ 0.3 प्रतिशत ही है। इसका अधिकांश हिस्सा गैर योजना खर्चों/वेतन आदि पर खर्च हो जाता है। गुजरे दो दशकों से सिंचाई योजनाओं पर निवेश नहीं हुआ। संविधान के अनुसार कृषि राज्यों का विषय है। राजनीतिक अस्थिरता और सस्ती लोकप्रियता के लोभ में राज्य सरकारें नए कर लगाकर आय के अतिरिक्त संसाधन नहीं जुटातीं। राजनीतिक रसूखों के जरिए कारपोरेट जगत कराधान बचाता है। वेतन आयोग (1996-97) की सिफारिशों के बाद राज्यों की मोटी आय वेतन पर खर्च हो रही है। 383 सिंचाई परियोजनाएं 25 से 28 वर्ष से लंबित है। नई नहरों का बनना बंद है। नदियाँ सूख रही है। तालाब गायब हो चुके हैं। किसान अपने खर्चे से ट्यूबवेल लगाते हैं।

देश के किसी भी राज्य में पर्याप्त बिजली नहीं मिलती। डीजल महंगा है। सघन खेती के चलते भूमि की की उर्वरा शक्ति कम हुई है। पहले जमीन में नाइट्रोजन का अभाव था, तो यूरिया खाद की मांग बढ़ी। फिर फास्फोरस की कमी हुई, अब पोटाश की भी कमी है। राजग सरकार के समय (1998) की एक रिपोर्ट के अनुसार कृषि उत्पादन के जरूरी 9 तत्व भूमि से गायब हो गए, बोरोन, सल्फर, जिंक आदि तत्वों की मात्रा भी कम हुई है, जिसके परिणामस्वरूप रासायनिक खादों की मांग बढ़ी है। रासायनिक खादों के ज्यादा प्रयोग में ज्यादा पानी की जरूरत होती है। भूजल स्तर गिरा है, फिर भी ट्यूबवेल ही बढ़ाए जा रहे हैं। संसद, विधानमंडल और राज्यव्यवस्था कृषक आत्महत्याओं पर विचलित नहीं होती। महाराष्ट्र सरकार ने तो किसान की आत्महत्याओं की बात नहीं मानी। एक किसान संगठन ने हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की। सरकार ने 294 किसान आत्महत्याएं स्वीकार कीं।

हाई कोर्ट ने टाटा इंस्टीट्यूट से जांच कराई तो 648 किसान आत्महत्याएं सही पाई गईं। वेंकैया नायडू व बाल आप्टे ने किसान आत्महत्याओं का मसला संसद में उठाया। 16 मई 2004 से 20 मार्च 2005 के बीच आंध्र में 2289 व महाराष्ट्र में 581 आत्महत्याएं (2001 से) बताई गई। पंजाब, कर्नाटक, प. बंगाल और उप जैसे राज्य भी किसानों की आत्महत्या के लिए चर्चा में आते रहे हैं। बावजूद इसके कृषि राजनीति व मीडिया के एजेंडे से बाहर ही बनी हुई है। एक अंग्रेजी अखबार ने गतवर्ष पुअर मीडिया कवरेज आफ एग्रेरियन क्राइसिस शीर्षक से लिखा, ‘एक अभिनेत्री नफीसा जोजेफ ने आत्महत्या की, यह बात दुःखद थी। इस घटना का धुंआधार टेलीविजन प्रसार अगले 12 घंटों तक हुआ। बीते 10 वर्ष में 30 हज़ार किसानों ने आत्महत्या की परन्तु उन्हें वैसा प्रचार नहीं मिल सका।

                                                        

लक्मे इंडिया फैशन वीक के कवरेज के लिए विभिन्न समाचार समूहों के 400 पत्रकार जुटे। भयंकर किसान संकट की रिपोर्टिंग के लिए राष्ट्रीय दैनिकों के सिर्फ 6 प्रतिनिधि ही जुट पाए।’ भूख की उपेक्षा और दैहिक सौंदर्य का बाजारीकरण पूंजीवादी तंत्र की विशेषता है। अन्न उत्पादक किसान व मेहनतकश मजदूर भूखे मर रहे हैं। अवकाश-भोगी, मुनाफाखोर पूंजीपति मजा मार रहे हैं। एक ताजे आकलन के अनुसार गतवर्ष देशी अरबपतियों की दौलत में 71 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। वर्ल्ड वेल्थ रिपोर्ट 2005 के अनुसार वर्ष 2009 तक भारत में 15 लाख 30 हजार करोड़पति होंगे, जबकि वर्ष 2003 में ये 31,000 ही थे। शेयर बाजार उछल रहे हैं। विज्ञान के नियम उलट गए हैं। धरती, पानी सब ऊपर से नीचे भागते हैं। दौलत नीचे से ऊपर को भाग रही है। कारपोरेट दौलत के हिमालय और ऊंचे हुए है, किसानों, मजदूरों की गरीबी का समुद्र गहराया है और इन्हीं परिस्थितियों में बगावत होती है।

रूसी वैज्ञानिक आंद्रेई सखारोव ने प्रोग्रेस कोएक्जिस्टेंस एंड इंटलेक्चुअल फ्रीडम में आणविक युद्ध के साथ भूखी मानवता को भी विश्वशांति के लिए खतरनाक बताया है। कार्ल मार्क्स की मानें तो जनयुद्ध में मारे जाने पर ऐसे लोग कुछ नहीं खोएंगे, सिवाय अपनी बेड़ियों के। तो क्या अब बगावत ही एकमात्र, विकल्प शेष है? राजनीति में सामाजिक न्याय, आरक्षण और मजहबी तुष्टीकरण की प्रेतात्मा है, पर विकल्प अभी भी उपलब्ध हैं। कृषि क्षेत्र को विश्व व्यापार संगठन के दायरे से बाहर करना होगा। दिसंबर में हांगकांग में होने वाले विश्व व्यापार संगठन सम्मेलन में भारत को अपना पक्ष बखूबी रखना चाहिए। संविधान में संशोधन के जरिए कृषि को राज्यसूची से हटाकर समवर्ती सूची में लाना चाहिए। रेल बजट की तरह कृषि का भी अलग बजट होना चाहिए। कृषि जिंसों के समर्थन मूल्य निर्धारण में उत्पादन लागत का वास्तविक हिसाब लगे और इस लागत में पानी, बिजली, यंत्र, बीज, खाद आदि के साथ कृषक परिवार द्वारा किए गए श्रम की दैनिक मजदूरी भी जोड़ी जानी चाहिए। हमें कृषि को राष्ट्रजीवन के मुख्य एजेंडे में लाना ही होगा।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।