ग्रामीण भारत की शिक्षा के लिए आवश्यक है सामाजिक क्रांति      Publish Date : 25/07/2023

                                                           ग्रामीण भारत की शिक्षा के लिए आवश्यक है सामाजिक क्रांति

                                                         

“पिछले एक दशक में गांव-गांव में स्कूल खोलने और मिड डे मील की व्यवस्था के कारण स्कूलों तक बच्चों की पहुंच बेहतर हुई है। परन्तु देखा गया है कि कई जगह है, बेहद छोटे-छोटे स्कूल खुल गए हैं। कुछ स्कूलों में केवल 6 से 8 बच्चों के नाम ही लिखे हैं, नई शिक्षा नीति में सुझाव दिया गया है कि छोटे-छोटे स्कूलों के स्थान पर किसी एक जगह पर अपेक्षाकृत बड़ा स्कूल कॉन्प्लेक्स बनाएं। इसे देखते हुए कुछ राज्यों में स्कूलों के विलय का काम भी शुरू हुआ है, पर इससे दूरी बढ़ने से बहुत से बच्चों के लिए स्कूल जाना मुश्किल भी हुआ है।”

गांव और गरीबी का सीधा रिश्ता है। बड़ी संख्या में लोग गांवों में इसलिए रहते हैं क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं है। वहां सड़के नहीं है, अस्पताल नहीं है और स्कूल भी नहीं है; जो व्यक्ति को समर्थ बनाने में मददगार होते हैं। इस साधन हीनता का प्रतिफल है कि तमाम ऐसे प्रतिभाशाली बच्चे जो बेहतरीन डॉक्टर, वैज्ञानिक, शिक्षक या खिलाड़ी बन सकते थे, पीछे रह जाते हैं। न तो वे शिक्षा के महत्व को जानते हैं और ना उनके माता-पिता।

                                                              

शिक्षा की गुणवत्ता पर बात करने के पहले उस सामाजिक समझ पर बात करनी चाहिए, जो शिक्षा के महत्व को समझती हो। इसके बाद पाठ्यक्रम, शिक्षकों के स्तर और उपलब्ध संसाधनों और उपकरणों से जुड़े सवाल पैदा होते हैं। हमारा लक्ष्य वर्ष 2030 तक 3 से 18 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना है। क्या हम इसी लिए तैयार हैं? यूनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट में 2016 में कहा गया था कि वर्तमान गति से चलते हुए भारत में सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा लक्ष्य वर्ष 2050 तक ही हासिल हो सकेगा। रिपोर्ट के अनुसार भारत, शिक्षा में 50 वर्ष पीछे चल रहा है। बेशक हमने पिछले कुछ वर्षों में अपने प्रयास बढ़ाएं हैं, परन्तु अपने लक्ष्य को देखें तो इनमें ओर तेजी लाने की आवश्यकता है।

प्राथमिक शिक्षा की दशा

                                   

ग्रामीण शिक्षा का पहला आशय् प्राथमिक शिक्षा है। उच्चतर शिक्षा के ज्यादातर केंद्र शहरों में है। वास्तव में ऐसे केंद्र गांवों में भी होने चाहिए, परन्तु कम से कम प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था तो होनी ही चाहिए। इस सदी के शुरू होते समय यानी 2001 में 18 साल से कम उम्र के ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों में केवल 25 फ़ीसदी स्कूलों में पढ़ने जा रहे थे। शेष 75 फ़ीसदी में से काफी को स्कूल जाने का अवसर नहीं मिला और मिला भी तो उन्होंने कुछ समय बाद स्कूल जाना बंद कर दिया।

पिछले दो दशकों में देश का ध्यान इस दिशा में गया है। वर्ष 2016 में यह प्रतिशत 25 से बढ़कर 70 हो गया। परन्तु केवल स्कूल जाने और स्कूलों के भवन बनाने से ही काम पूरा नहीं होता है, आवश्यकता शिक्षा की गुणवत्ता की है। पहला सवाल संसाधनों का है। यह विषय समवर्ती सूची में होने के कारण देश भर के सालाना बजट में शिक्षा की स्थिति का अनुमान लगाना कठिन होता है, वरन् केवल केंद्र के बजट पर नजर डालने से एक ही झलक मिलती है।

इस वर्ष केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति की रूपरेखा पेश की थी, इसलिए उम्मीद थी कि शिक्षा पर परिव्यय में वृद्धि होगी, परन्तु ऐसा कुछ नही हुआ। अंतरिम बजट और उसके बाद जुलाई में पेश पूर्ण बजट में मामूली अंतर है। नई शिक्षा नीति में जिस राष्ट्रीय रिसर्च फाउंडेशन, का सुझाव दिया गया है उसकी स्थापना का फैसला सरकार ने किया है। सरकार का रुझान अब भी प्राथमिक शिक्षा के बजाय उच्च शिक्षा पर है। स्वाभाविक रूप से इससे ग्रामीण शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है।

हमारी प्राथमिकताएं

                                                                  

आजादी के बाद शुरुआती दशकों में चीन और भारत की यात्राएं समांतर ही चली, परन्तु बुनियादी मानव विकास में चीन हमें पीछे छोड़ता चला गया; बावजूद इसके कि आर्थिक विकास की हमारी गति बेहतर थी। वर्ष 2011 में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लैनिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन से डॉक्टरेट की मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा था कि भारत समय से प्राथमिक शिक्षा पर निवेशक न कर पाने की कीमत आज अदा कर रहा है। हमने तकनीकी शिक्षा के महत्व को पहचाना, जिसके कारण आईटीआई जैसे शिक्षा संस्थान स्थपित हुए, परन्तु प्राइमरी शिक्षा के प्रति हमारा दृष्टिकोण निराशाजनक ही रहा।

शिक्षा निति प्रारूप 2019 में अगले दस वर्ष में शिक्षा पर सार्वजनिक परिव्यय दुगुना करने का सुझाव दिया गया है। जो कोई बड़ा कदम नजर नहीं आया है। केंद्र ने 01 अप्रैल, 2018 से 31 मार्च, 2020 के लिए नई योजना बनाई है। इस समग्र शिक्षा अभियान में सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान और शिक्षक शिक्षण अभियान समाहित है। बजट पर नजर डालने से लगता है कि पुराने कार्यक्रमों का विलय कर दिया गया है; संसाधन नहीं बड़े हैं।

गांवों में प्राथमिक शिक्षा का बुनियादी ढांचा ही ठीक से नहीं बना है। गुणवत्ता के सवाल तो इसके बाद ही आते हैं। विडंबना यह है कि स्वतंत्रता के बाद 72 वर्ष बाद भी हम अपनी शिक्षा की बुनियादी जरूरतों, पाठ्यक्रम और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन से जुड़े मूल्यों पर विचार ही कर रहे हैं। वर्ष 2010 में जाकर हम शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित कर पाए और आज भी नागरिकों तक इस अधिकार को पहुंचाने के लिए भी हमें संघर्ष करना पड़ रहा है।

शिक्षा-केंद्रित भारतीय एनजीओ ‘‘प्रथम’’ की वार्षिक रिपोर्ट ‘असर’ के माध्यम से ज्ञात होता है कि शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) लागू होने के बाद स्कूलों की संख्या और उनमें दाखिले में भारी बढ़ोतरी हुई है, परन्तु इसके सापेक्ष पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता में गिरावट दर्ज की गई है। एक सर्वे के अनुसार सरकारी स्कूलों पर आम जनता का विश्वास घट रहा है। आरटीई का सकारात्मक असर है कि 16 से 14 आयु वर्ग के बच्चों के स्कूल में दाखिले में भारी वृद्धि हुई है, परन्तु बच्चे स्कूलों में साधारण कौशल भी नहीं सीख पा रहे हैं।

असर रिपोर्ट 2018 के अनुसार कक्षा आठ के बच्चों में से, लगभग 73 प्रतिशत बच्चे ही, कम से कम कक्षा 2 के स्तर के पाठ पढ़ सकते हैं। बड़ी संख्या में बच्चों की पहली पीढ़ी यानी उनके परिवारों में इससे पहले कोई पढ़ने ही नहीं गया। इसलिए वहां शिक्षा का माहौल बनाने और शिक्षित होने के लाभों को समझाने-समझने की जरूरत भी है। अतः यह काम कैसे होगा? इसके लिए गांवों और कस्बों से ऐसे रोल मॉडल खोजे जाने चाहिए जो केवल शिक्षा के सहारे आगे बढ़ने में कामयाब हुए। साथ ही हमें शिक्षा से जुड़ी गांधी की बुनियादी तालीम की अवधारणा पर गौर करना चाहिए।

गांधी  जी की बुनियादी शिक्षा

                                                     

अंग्रेजी शिक्षा के गैर-भारतीय और इसके मशीनी स्वरूप को लेकर महात्मा गांधी के मन में गहरी पीड़ा थी। उन्होंने 01 सितंबर, 1921 के ‘यंग इंडिया’ में लिखा, ‘अन्य देशों के बारे में कुछ भी सही हो, कम-से-कम भारत में तो जहां 80 फ़ीसदी आबादी खेती करने वाली है और दूसरी 10 फ़ीसदी उद्योगों में काम करने वाली है, शिक्षा को केवल साहित्यिक बना देने तथा लड़कों और लड़कियों को उत्तर जीवन में हाथ के काम के लिए अयोग्य बना देना गुनाह है। क्योंकि एक किसान का बेटा किसी स्कूल में जाने के बाद खेती के मजदूर के रुप में निकम्मा बन जाए। हमारी पाठशालाओं के लड़के शारीरिक श्रम को तिरस्कार की दृष्टि से चाहे न देखते हों, पर ना पसंदगी की नजर से तो जरूर देखते हैं’।

बुनियादी तालीम का उनका विचार इस मनोदशा को तोड़ने वाला है। ‘बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य दस्तकारी के माध्यम से बालकों का शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक विकास करना है। मैं मानता हूं कि कोई भी पद्धति, जो शैक्षणिक दृष्टि से सही हो और जो अच्छी तरह चलाई जाए, आर्थिक दृष्टि से भी उपयुक्त सिद्ध होगी’। 22-23 अक्टूबर, 1937 को वर्धा में ‘अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन’ हुआ जिसकी अध्यक्षता गांधी जी ने की। गांधी इस बुनियादी शिक्षा पर ही उच्च शिक्षा का भवन खड़ा करना चाहते थे।

स्वातंत्र्योत्तर शिक्षा

स्वतंत्रता के बाद से देश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए जो कोशिशें हुई हैं, उनमें कई तरह के आयोग, नीतियां और समितियां शामिल हैं। परन्तु एक सच यह भी है कि हमने प्राथमिक और खासतौर पर ग्रामीण बच्चों की शिक्षा पर काफी देर से ध्यान दिया। वर्ष 1948-49 में हमने पहले विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए राधा कृष्ण आयोग का गठन किया और इसके बाद वर्ष 1951 में प्राइमरी शिक्षा पर बीजी खेर समिति बनाई, जिस की सिफारिशें वर्ष 1952-53 के मुदलियार आयोग का हिस्सा बनी।

इन सब आयोगों और समितियों के सहारे हम वर्ष 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित करने में कामयाब हुए। इस शिक्षा नीति में विज्ञान और तकनीक को शिक्षा का बुनियादी आधार बनाने का लक्ष्य था। इसके बाद वर्ष 1986 में फिर से राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गई और इसमें वर्ष 1992 में सुधार किया गया। उसके बाद राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा-2005 बनी, जिसनें स्कूली शिक्षा के व्यापक स्वरूप की बुनियाद डाली।

हाल में जारी शिक्षा नीति 2019 में इस बात को रेखांकित किया गया है, ‘कि हम बड़े पैमाने पर सबके लिए शिक्षा की पहुंच बनाने में व्यस्त रहे हैं, और दुर्भाग्य से शिक्षा की गुणवत्ता पर हमने ध्यान नहीं दिया’। वर्ष 1986/92 की नई शिक्षा नीति दुनिया में इंटरनेट क्रांति के पहले बनी थी। इसीलिए भी हमें नई शिक्षा नीति की जरूरत है। अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 को अप्रैल, 2010 में लागू कर के प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक 6 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे को पड़ोस के स्कूल में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया।

नई शिक्षा नीति के प्रारूप में इस दायरे को दोनों तरफ बढ़ाने का सुझाव है। इसमें तीन वर्ष से लेकर 18 वर्ष तक के बच्चों को शामिल करने का सुझाव दिया गया है। साथ ही मध्य भोजन व्यवस्था का दायरा बढ़ाने की का सुझाव भी है। प्रस्तावित नीति में छात्रों के पाठ्यक्रम से लेकर शिक्षकों के प्रशिक्षण तक के सुझाव हैं, पर सवाल तो इन सुझावों की व्यवहारिकता का है। शिक्षा की गुणवत्ता न केवल आर्थिक विकास में तेजी लाएगी, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक विकास की राहों को भी खोलेगी। सामाजिक न्याय और समानता हासिल करने का सबसे महत्वपूर्ण साधन है शिक्षा। पिछले तीन दशकों में भारतीय शिक्षा व्यवस्था ने स्कूली शिक्षा के स्तर पर और सामाजिक वर्गों के बीच गैर-बराबरी को दूर करने की कोशिश की है, फिर भी अल्प-प्रतिनिधिव वाले समूहों के लिए बड़ी असमानताएं आज भी मौजूद हैं।

शिक्षा की मांग

                                               

इस वर्ष अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार के लिए मनोनीत अभिजीत बनर्जी और एस्थर डय्ूफ्ल ने अपनी पुस्तक ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में गरीब देशों के संदर्भ में लिखा है कि स्कूल उपलब्घ है। ज्यादातर देशों में वह निशुल्क हैं, कम से कम प्राइमरी स्तर तक तो है, ही।

अधिकतर बच्चों के नाम स्कूलों में लिखे हैं। फिर भी दुनिया के कई देशों में हमने जो सर्वे किए, उनमें यह बात सामने आई कि बच्चों की अनुपस्थिति दर 14 से 50 फीसदी है। अक्सर इन अनुपस्थिति की वजह यह नहीं होती कि घर में उनकी जरूरत थी। बड़ी वजह है बच्चों की स्कूल में अनिच्छा। यह बात सार्वभौमिक है। ‘शिक्षा की गहरी मांग नहीं है तो स्कूलों को बनाना और अध्यापकों को नियुक्त करना भी निरर्थक है।’’

यदि कौशल (स्किल) की वास्तविक मांग होगी तो शिक्षा की मांग भी खुद-ब-खुद ही बढ़ेगी और सप्लाई शुरू हो जायेगी। हमें बच्चों को क्लासरूम तक लाने और सुप्रशिक्षित अध्यापक से पढ़ाने का रास्ता खोजना चाहिए, बाकी काम अपने आप हो जाएगा। नई शिक्षा नीति के प्रारूप में बच्चों को स्कूल तक लाने और उन्हें वहां रोके रखने के लिए कई प्रकार के सुझाव दिए गए हैं। मसलन अल्प-प्रतिनिधित्व वाले समूहों के मेधावी बच्चे को रोल मॉडल्स के रूप में बढ़ावा देने और उन्हें ट्यूटर के रूप में बढ़ावा देने का सुझाव है। मध्याह्न भोजन की व्यवस्था के साथ-साथ आर्थिक रूप से वंचित क्षेत्रों के विद्यार्थियों के लिए सुबह के नाश्ते की व्यवस्था भी करना।

नई शिक्षा नीति के प्रारूप में शिक्षा के हर क्षेत्र में सुधार के सुझाव हैं। इसमें प्रारंभिक बाल व्यवस्था पर जोर दिया गया है, परीक्षा प्रणाली को सुधारने का सुझाव है और शिक्षा के लिए नियामक ढांचे को खड़ा करने की सिफारिश भी है। राष्ट्रीय शिक्षा आयोग को गठित करने का सुझाव है। शिक्षा पर जीडीपी को 6 फ़ीसदी सार्वजनिक साधन खर्च का सुझाव है। इसके पहले बिना शिक्षा नीतियों में भी यह सुझाव दिया गया परन्तु हालत यह है कि वर्ष 2018 में शिक्षा पर सरकारी व जीडीपी का 2.7 प्रतिशत ही हुआ।

देश में करीब 86 लाख स्कूली अध्यापक और करीब 15 लाख उच्च शिक्षा से जुड़े प्राध्यापक हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत छात्र-शिक्षक अनुपात और विद्यालय के भवन और शैक्षणिक सामग्री को लेकर भी व्यवस्थाएं की गई हैं। इस दौरान जो सर्वे आए हैं, उन से ज्ञात हता है कि ज्यादा से ज्यादा 10 फ़ीसदी स्कूलों की शर्तें पूरी करते हैं। अंशकालीन शिक्षकों को भी शामिल कर ले तब भी देश भर में 17 फ़ीसदी से ज्यादा शिक्षकों के पद खाली हैं।

गांव-गांव में स्कूल

                                               

पिछले एक दशक मैं गांव-गांव में स्कूल खोलने और मिड डे मील की व्यवस्था के कारण स्कूलों तक बच्चों कि पहुंच बेहतर हुई है परन्तु देखा गया है कि कई जगह बेहद छोटे स्कूल खुल गए हैं। कुछ स्कूलों में केवल 6 से 8 बच्चों के ही नाम लिखे हैं। नई नीति में सुझाव दिया गया है कि छोटे छोटे स्कूलों के स्थान पर किसी एक जगह पर अपेक्षाकृत बड़ा स्कूल कॉन्प्लेक्स बनाएं। परन्तु इससे एक दूसरी समस्या खड़ी होती हैं।

घर से दूर स्कूल होने पर परिवहन और छात्रावासों की जरूरत पैदा होती है। पर्वतीय, पूर्वोत्तर और जंगलों एवं नदियों से घिरे जनजातीय क्षेत्रों में बच्चों खासतौर से बालिकाओं को स्कूल तक लाना अपने आप में एक चुनौती है।

इसे देखते हुए कई राज्यों में स्कूलों के विलय का काम भी शुरू हुआ है। नीति आयोग ने भी इसकी की सलाह दी है हाल में झारखंड की रिपोर्ट थी कि राज्य में करीब 2 दशकों पहले खोले गए 4,600 स्कूलों का विलय पास के बड़े स्कूलों में कर दिया गया है। राजस्थान में भी यह काम चल रहा है। वर्ष 2017 में मानव संसाधन मंत्रालय ने राज्यों में छोटे विद्यालयों के अभिनवीकरण के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे। इन प्रयासों का उद्देश्य संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल है, पर इससे बहुत से बच्चे के लिए स्कूल जाना मुश्किल हुआ है, क्योंकि पहाड़ी और जंगली इलाकों में आठ-दस किलोमीटर दूर जाना मुश्किल काम है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम की धारा 6 के अनुसार प्राथमिक विद्यालय को गांव के दायरे में ही होना चाहिए।