
भारत में मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक Publish Date : 01/03/2025
भारत में मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले कारकों में वर्षा, वायु, पशुओं की अतिचराई, निर्माण कार्य जैसे मानवीय कार्यों के द्वारा मृदा का अपरदन होता है। भारत में जल के द्वारा मृदा अपरदन की समस्या सबसे अधिक गंभीर है, विशेषकर देश के पूर्वी भागों में, जहाँ वर्षा ऋतु के दौरान आप्लावन की गंभीर समस्या उत्पन्न होती है। जल के द्वारा मृदा का अपरदन का अनुमान प्रतिवर्ष लगभग 5334 मिलियन टन लगाया गया है। इसमें से लगभग 30 प्रतिवर्ष स्थायी रूप से समुद्र में चला जाता है। जल के बाद मृदा अपरदन के लिए सबसे प्रमुख दोषी कारक वायु को माना जाता है।
वायु के द्वारा होने वाला यह अपरदन देश के शुष्क राज्यों जैसे राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और पंजाब आदि के शुष्क क्षेत्रों (अर्थात् शुष्क जहां वर्षा कम होती है अथवा नहीं होती है) की गंभीर समस्या है। वायु द्वारा अपरदन उन तटीय क्षेत्रों में भू उपयोग और फसल प्रतिरूप के माध्यम से कृषि और आर्थिक विकास में भी व्यापक रूप से होता है जहां बलुई मृदा अधिक पाई जाती है। इन प्राकृतिक कारकों के अलावा, मानव प्रेरित कारक जैसे प्राकृतिक वानस्पतिक आवरण का अत्यधिक दोहन (सीमांत क्षेत्रों में कृषि के विस्तार और पशुओं की अत्यधिक चराई के द्वारा) भी वायु द्वारा मृदा के अधिक अपरदन के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं।
मृदा अपरदन और निम्नीकरण का एक अन्य प्रमुख कारण जलाक्रांति है। वर्षा ऋतु (प्राकृतिक कारक) के दौरान आने वाली बाढ़ और सिंचित क्षेत्रों में जल के अत्यधिक प्रयोग किया जाना तथा नहर रिसाव (मानव निर्मित कारक) के कारण भारत में कृषि भूमि के बहुत बड़े भाग में जलाक्रांति की समस्या बनी रहती है। फसल वृद्धि में बाधा डालने के अलावा जलाक्रांति से मृदा की उत्पादकता घटाने/निम्नीकरण करने की संभावना भी बनती रहती है। भारत में जलाक्रांति के प्रतिकूल प्रभाव का अनुमान लगभग 8 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर बताया जाता है।
मृदा की गुणवत्ता में ह्रास का एक अन्य कारक (जो मृदा गुणवत्ता के अपरदन का ही एक रूप होता है) वह मृदा का लवणीकरण है। जमीन के स्तर से बहुत नीचे और गहराई से पानी निकालकर नहरों के द्वारा सिचाईं के बढ़ते हुए प्रयोग के कारण भूमिगत जल स्तर और मृदा के ऊपरी स्तर के बीच का फासला बहुत अधिक बढ़ चुका है। इस समस्या को भौमजल के स्तर का गिरना भी कहा जाता है।
मृदा की ऊपरी स्तर से जल का वाष्पीकरण और गिरता हुआ भू-जल स्तर ‘मृदा के लवणीकरण’ को उत्पन्न करता है और आगे इस प्रक्रिया से मृदा में ‘क्षारीयकरण’ नाम की एक रासायनिक प्रतिक्रिया भी होती है जिससे मृदा की गुणवत्ता अत्यधिक अपरदित हो जाती है। वहीं दूसरे शब्दों में कहा जाए तो पृथ्वी के अंदर की गहराई से अत्यधिक पानी का दोहन करने की प्रक्रिया से प्राकृतिक कारकों को बाधित करने से होने वाले क्षारीयकरण/लवणीकरण के द्वारा मृदा की गुणवत्ता कम होने की संभावना नहीं रहती है। यह पारिस्थितिक संतुलन के बिगाड़ने की मानव के द्वारा निर्मित एक प्रक्रिया भी होती है, जिसके लिए भारत में बहुत से सामाजिक और राजनीतिक कारकों ने अपना भरपूर योगदान किया है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।