कृषि के विकास के निर्धारक तत्व      Publish Date : 27/02/2025

                     कृषि विकास के निर्धारक तत्व

                                                                                                     प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

कृषि विकास को प्रभावित करने वाले अनेक कारक हैं। उनमें भौतिक, प्रौद्योकीय, आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक, संस्थागत, संगठनात्मक, राजनीतिक कारक शामिल हैं। ये सभी कारक भिन्न-भिन्न स्तरों पर कार्य करते हैं, जैसे: परिवार, गांव, जिला, राज्य, राष्ट्र और समग्र रूप में विश्व। इनकी नियंत्रण विधि के आधार पर विकास पर इन कारकों का अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है। उदाहरण के लिए, यदि देश के मानव संसाधन उचित पोषण, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा और प्रशिक्षण द्वारा समुचित ढंग से विकसित नहीं किए जाते हैं, तो उन्हें उत्पादकता की दृष्टि से प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है। ऐसे संसाधन विकास के लिए बोझ और बाधा बन जाते हैं। परन्तु, यदि उन्हें समुचित ढंग से विकसित किया जाता है और उपयोग में लाया जाता है, तो, वे विकास के लिए बड़ी परिसंपत्तियां और प्रमुख सहयोगी कारक होते हैं। कृषि विकास पर विभिन्न निर्धारक तत्त्वों के प्रभाव के स्वरूप और परिणाम के बारे में ज्ञान, दक्षता और प्रभाविकता से आगे बढ़ना आवश्यक है।

विशेष रूप से अच्छी ‘‘ग्रामीण आधारभूत संरचना” को कृषि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसमें विभिन्न कारक, जैसे सड़कें, सिचाई, बिजली आपूर्ति, बैंकिग, संचार आदि शामिल हैं। कृषि आधारभूत संरचना का अधिक विशिष्ट स्वरूप ‘‘सामाजिक आधारभूत, संरचन” है, जिसमें, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं, विस्तार सेवाएं और सूचना प्रसारण की प्रणालियाँ सहयोगशील क्रियाविधियाँ, कृषि अनुसंधान और प्रौद्योगिकी (RRT) आदि जैसे कारक आते हैं। कृषि विकास की प्रगति को प्रभावित करने वाली ग्रामीण आधारभूत संरचना की मुख्य कमियों में बचत जुटाने और ऋण देने के लिए वित्तीय संस्थाओं की अपर्याप्तता है। सार्वजनिक निवेश की भूमिका एवं अन्य मान्य कारक है जो कृषि विकास को काफी अधिक प्रभावित करता है।

  • प्रौद्योगिकी
  • पूँजी
  • संस्थाएं और संगठन
  • प्राकृतिक संसाधन
  • मानव संसाधन और
  • ग्रामीण लोगों का जीवन स्तर

शीत भंडारण, विपणन, बिक्री केंद्र आदि सुविधाएँ सुलभ कराने के लिए कृषि में सार्वजनिक निवेश विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, (जहाँ कृषक समुदाय का बहुत बड़ा भाग ‘‘छोटे और सीमांत श्रेणी” के विकास होते हैं, जिनकी आय और जीवन निर्वाह स्तर गरीबी स्तर की सीमा पर होती है।) यह भारत के संपर्क में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की अवधि में एक मान्य सत्य है कि सकल पूँजी निर्माण के अनुपात के रूप में सार्वजनिक निवेश के अनुपात में अत्यधिक गिरावट आई है। पूँजीनिरुद्ध देशों में निवेश आकर्षित करने के लिए (सार्वजनिक निजी भागीदारी (RRT) को ऐसी आधारभूत संरचना सुविधाए सुधारने के लिए विकल्प समझा गया है जो कृषि विकास के लिए अत्यधिक आवश्यक है।

कृषि विकास की नीतियाँ

मोटेतौर पर ‘‘नीति” को विकल्पों के समूह में से चुनी हुई निश्चित कार्रवाई के रूप में परिभाषित किया गया है। अधिक सामान्य दृष्टि में ‘‘नीति प्रक्रिया” का संबंध विशिष्ट रूप से परिभाषित कार्य योजना का निरूपण, प्रख्यापन और अनुप्रयोग से है। यहां हम सार्वजनिक कृषि विकास नीतियों से संबद्ध रहेंगे, जिसका अभिप्राय कृषि संवर्धन के निश्चित उद्देश्यों के अनुसरण में सरकार द्वारा की गई कार्रवाई है। इस संदर्भ में (क) नीति; (ख) कार्यक्रम; और (ग) परियोजना के बीच अंतर करना महत्त्वपूर्ण है।

नीति एक व्यापक शब्द है, जिसमें बहुत से कार्यक्रम सम्मिलित होते हैं। इसी प्रकार कार्यक्रम में बहुत सी परियोजनाएं भी शामिल होती हैं। नीति कार्यान्वयन से पहले कई कार्यक्रमों को निर्धारित किया जाता है। प्रौद्योगिकी पूँजी ग्रामीण लोगों का जीवन स्तर संस्थाएं और संगठन प्राकृतिक मानव संसाधन कृषि और आर्थिक वृद्धि, कृषि और आर्थिक विकास निर्धारित किया जाता है। कार्यक्रम ही निर्दिष्ट करते हैं कि क्या, कैसे, किसके द्वारा और कहां किया जाना है। परियोजना भी उद्देश्यों, अवस्थिति, अवधि, फंड, निष्पादनकारी एजेंसी आदि के अनुसार अधिक सुस्पष्ट और ब्योरेवार होती है। इस प्रकार परियोजना नीति कार्यवाई की अंतिम ‘‘इकाई” के रूप में आती है। कार्यक्रम में कई परियोजनाएं हो सकती हैं। इसलिए कृषि विकास परियोजना को ऐसे निवेश कार्य के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जहां संसाधनों को कतिपय पूर्व निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए निश्चित समयावधि में लगाया जाता है।

कृषि विकास नीति के लक्ष्य कृषि विकास नीतियाँ उन दशाओं को सुधारने के लिए तैयार की जाती है जिनमें ग्रामीण लोग कार्य करते हैं और रहते हैं। नीतियों के लक्ष्य लोगों की इच्छा द्वारा नियंत्रित होते हैं। ‘‘नीति उपाय” इस बात को महत्त्व देता है कि लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं, सरकार क्या कर सकती है और वांछित परिवर्तन लाने के लिए क्या करना चाहिए, यह एक सार्वजनिक नीति का सिद्धांत है।

परिवर्तन केवल तभी वांछित होते हैं, जब लोग जिस तरीके में काम हो रहा है, उसे पसंद नहीं करते सार्वजनिक कार्यवाई के लिए दबाव तब उत्पन्न होते हैं जब लोग अनुभव करते हैं कि वह व्यक्तिगतः रूप से वांछित परिवर्तन नहीं ला सकते। उनके मन में आदर्श स्थिति के कुछ मानदंड या कुछ छवि होती है, जिसकी वह आकांक्षा करते हैं। ये मानदंड नीति के लक्ष्य हो जाते हैं जिनकी ओर सुस्पष्ट कार्यक्रमों के उद्देश्यों को दिग्वर्तित किया जाता है। भारत के संविधान में प्रतिष्ठापित ‘‘राज्य नीति” के निर्देशक सिद्धांतों में आर्थिक नीति के दो प्रबल लक्ष्यों को देखना संभव है।

(1) राष्ट्रीय आय को बढ़ाना और (2) समाज के सदस्यों में राष्ट्रीय आय के वितरण में सुधार करना। इसलिए ये लक्ष्य उन सभी आर्थिक नीतियों में परिलक्षित किए जाते हैं जो पंचवर्षीय योजनाओं में निर्दिष्ट होते हैं। जो लक्ष्य ‘‘समावेशी वृद्धि” प्राप्त करने का प्रयास करता है उसे राजनीति के चार महत्त्वपूर्ण आयामों के संदर्भ में देखा जाना आवश्यक है। (क) नागरिकों के ‘‘जीवन स्तर’का सुधार, (ख) ‘‘उत्पादनकारी रोजगार’अवसर सृजित करना; (ग) संतुलित क्षेत्रीय विकास की स्थापना; और (घ) आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।

अधिकांश कृषि विकास नीतियां भिन्न-भिन्न लक्ष्यों के मिश्रण हैं, जिनके क्रियान्वयन में भिन्न-भिन्न उपायों की आवश्यकता होती है। कई कार्यक्रमों या परियोजनाओं में विभाजित सरकारी एजेंसी विशेष को उसके क्रियान्वयन के लिए पदनामित किया जाता है। ये एजेंसियां अपनी निगरानी और नियंत्रण के अधीन स्वयंसेवी और निजी एजेंसियों को क्रियान्वित करने के लिए विशिष्ट परियोजनाएं सौंप सकती हैं। संसाधनों की छीजन और अदक्ष प्रयोग रोकने के लिए उनहें विभिन्न शर्तों द्वारा सीमित किया जाता है। इस प्रकार ये शर्तें निर्णायक कारक होती हैं जो मिलकर परियोजनाओं/कार्यक्रमों का दक्ष क्रियान्वयन निश्चित करते हैं।

कृषि विकास नीतियों का वर्गीकरण टिनबेर्जेन गुणात्मक नीति और परिमाणात्मक नीति के बीच अंतर करता है। गुणात्मक नीति नए संस्थानों के निर्माण, विद्यमान संस्थाओं का संशोधन और प्राइवेट फर्मों के संवर्धन द्वारा आर्थिक संरचना में परिवर्तन करने का प्रयास करती है। परिमाणात्मक नीति कुछ प्राचलों के आकार (जैसे कर की दर में परिवर्तन) बदलने का प्रयास करती हैं। उदाहरण के लिए, जो गुणात्मक और परिमाणात्मक दोनों का ही निरूपण करता है, निःशुल्क शिक्षा प्रणाली प्रारंभ करने की नीति है, यह गुणात्मक भी है, क्योंकि, यह आर्थिक संरचना में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है; और परिमाणात्मक है, क्योंकि, यह सेवा के लिए ली गई फीस के माध्यम से परिवर्तन दर्शाता है।

हेडी कृषि नीतियों को (अ) विकास नीतियों और (ब) प्रतिपूर्ति नीतियों में वर्गीकृत करता है। विकास नीति (क) पण्य वस्तुओं और संसाधनों की आपूर्ति बढ़ाने और (ख) उत्पादों और निवेश में सुधार करने का प्रयास करती है। प्रतिपूर्ति नीति का उद्देश्य अपने लक्ष्य समूहों की विभिन्न तरीकों से प्रतिपूर्ति करना होता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।