एग्री-वोल्टिक कृषि प्रणाली यानी सौर ऊर्जा आधारित खेती      Publish Date : 19/02/2025

          एग्री-वोल्टिक कृषि प्रणाली यानी सौर ऊर्जा आधारित खेती

                                                                                                                                            प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु

एग्री-वोल्टिक प्रणाली को कृषि-वोल्टीय प्रणाली या ‘सौर-खेती’ के नाम से भी जाना जाता है। यह एक ऐसी तकनीक है जिसके अंतर्गत किसान अपने खेतों में फसल (विशेष रूप से नकदी फसलों) के उत्पादन के साथ-साथ बिजली का उत्पादन भी कर सकते हैं। फोटो-वोल्टिक तकनीक (PV) के तहत एक कृषि योग्य भूमि (एकल-भू-उपयोग तंत्र) में बिजली उत्पादन के लिए फसल उत्पादन के साथ-साथ सौर-ऊर्जा पैनल स्थापित किये जाते हैं।

                                                                     

खेती की इस तकनीक को पहली बार वर्ष 1981 में एडॉल्फ गोएट्जबर्गर और आर्मिन जास्ट्रो ने पेश किया था। वर्ष 2004 में जापान में इस तकनीक का प्रोटोटाइप बनाया गया और कई परीक्षणों एवं सुधार करने के बाद, वर्ष 2022 की शुरुआत में, दुनिया का पहला एग्री-वोल्टिक्स पूर्वी अफ्रीका में लांच किया गया था।

आज भारत, यूएसए, फ्रांस, युनाइटेड किंग्डम और जर्मनी जैसे कई अन्य देश भी इस तकनीक का सफलतापूर्वक उपयोग कर रहे हैं। हालांकि, भारत में यह तकनीक अभी अपने आरम्भिक दौर में ही है। देश में एग्री-वोल्टिक प्रणाली की स्थापना की क्षमता अभी 10 KWp से 3 MWp के मध्य है। प्रस्तुत लेख में एग्री-वोल्टिक तकनीक के विभिन्न पहलुओं की जानकरी प्रदान करने का प्रयास किया गया है।

एग्री-वोल्टिक प्रणाली के लाभः

यह प्रणाली आज अग्रलिखित कारणों से किसानों के बीच लोकप्रिय हो रही है। इस प्रणाली की बढ़ती लोकप्रियता का सबसे अहम कारण है आज की बढ़ती ऊर्जा-मांग और विश्व के समक्ष उत्पन्न होती खाद्य सुरक्षा की चिंता। एग्री-वोल्टिक प्रणाली इन दोनों ही समस्याओं से एक साथ जूझने में हमारी सहायता कर सकती है। इस प्रणाली में सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए स्थापित किए गए सौर पैनल, फसलों को छाया भी प्रदान करते हैं। सोलर पैनल की स्थापना से फसलों से जल की वाष्पन की दर धीमी हो जाती है और पौधों के द्वारा जल का अनुकूलतम उपयोग संभव हो पाता है।

सौर पैनल न केवल पौधों और मिट्टी से पानी के वाष्पन की दर को कम करते हैं, बल्कि इनकी छाया से उच्च तापमान के कारण होने वाले तनाव और पराबैंगनी किरणों के नुकसान से भी पौधों को बचाते हैं।

एक अनुमान के अनुसार कृषि क्षेत्र में ऊर्जा की खपत लगभग 7-8 प्रतिशत है। अतः बिजली की दर में अच्छी बचत होने के चलते किसानों की आय में वृद्वि भी होती है। देश एवं दुनिया में खाद्य एवं ऊर्जा की बढ़ती आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए यह तकनीक भविष्य के लिए अत्यंत लाभकारी है। देश के राजस्थान, तमिलनाडु, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में यह तकनीक विशेष रूप से प्रभावी सिद्व हो सकती है। क्योंकि इन राज्यों में किसान को वर्ष में लगभग 300 दिन तक की धूप उपलब्ध होती है।

ऐसे में उक्त राज्यों की क्षमताओं को देखते हुए भारत सरकार ने ‘राष्ट्रीय सौर मिशन’ के अंतर्गत 1,00,000 मेगा वॉट (100 गीगा वॉट) सौर फोटो-वोल्टिक आधारित बिजली उत्पादन क्षमता प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस प्रणाली में पीवी-मॉड्यूल की ऊपरी सतह से बारिश का पानी एकत्रित करना भी संभव हो सकता है। इससे किसानों को दोहरा लाभ हो सकता है, क्योंकि फसलों की सिंचाई के लिए उन्हें पुनः विद्युत उपयोग की आवश्यकता नहीं रह जाती है। इसके लिए ‘फोटो-वोल्टिक मॉड्यूल’ को माइल्ड स्टील या लोहे के एंगल से बने ढ़ाँचे पर जमीन से एक निश्चित् ऊँचाई पर स्थापित किया जाता है, जिससे कि स्थापित सोलर पैनल का झुकाव जमीन की सतह से लगभग 26 डिग्री के कोण पर बना रहे।

एग्री-वोल्टिक तकनीक की कार्य प्रणाली

                                                                                  

फोटो-वोल्टिक प्रणाली को इस तकनीक से तैयार किया जाता है कि दो सारणियों के मध्य उपयुक्त स्थान शेष रहे, जहां फसलों को बोया जा सके। इस प्रणाली में इस प्रकार की फसल का चयन किया जाता है, जो कम ऊँचाई वाली हो तथा जिसके लिए कम जल की आवश्यकता हो और कुछ हद तक छाया को भी सहन कर सके। मोठ, मूंग, ग्वार, लोबिया, शंखपुष्पी, घृतकुमारी, सोनामुखी, बैंगन, टमाटर, आलू, पालक, ककड़ी एवं मिर्च इसके अच्छे उदाहारण हो सकते हैं।

इस प्रणाली में तीन प्रकार के डिजाइनों में फोटो वोल्टिक मॉड्यूल की स्थापना की जाती है: (1) एकल-पंक्ति फोटो-वोल्टिक सारणी जिसमें दो पक्तियों के बीच की दूरी 3 मीटर होती है; (2) दोहरी-पंक्ति फोटो-वोल्टिक सारणी जिसमें दो पक्तियों के मध्य की दूरी 6 मीटर होती है तथा (3) तीन पंक्ति फोटो-वोल्टिक सारणी जिसमें दो पक्तियों के बीच की दूरी 9 मीटर तक होती है। फोटो-वोल्टिक पैनल से पड़ने वाली छाया वर्षा के समय तथा लगाए गए पौधों की ऊँचाई के अनुसार बदली जा सकती है। सोलर की स्थापना के दौरानं इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि ‘फोटो-वोल्टिक मॉड्यूल’ की पंक्तियों और इसके चारों ओर इतना फासला अवश्य रहे, जिससे एक पंक्ति के पैनल की छाया दूसरों पर नहीं पड़े, अन्यथा सौर ऊर्जा का उत्पादन संभव नहीं हो पाएगा।

इस प्रणाली में फसल एवं बिजली उत्पादन के साथ-साथ वर्षा जल संचयन संरचना का भी निर्माण किया जा सकता है। इसके लिए सौर-पैनल के ठीक नीचे ढाल (स्लोप) देकर एक पीवीसी पाइप को स्थापित कर दिया जाता है, जिससे सौर पैनल के ऊपर गिरने वाले वर्षा जल को सीवर/चैनल के माध्यम से एक टैंक में एकत्र किया जा सके।

एग्री-वोल्टिक का उदाहरण

माना कि हमारे पास खेती करने के लिए 2 हैक्टर भूमि उपलब्ध है और हम 1 हैक्टर में तो गेहूँ की खेती करते हैं तथा 1 हैक्टर में सोलर ऊर्जा का उत्पादन करते हैं। इसके स्थान पर यदि 2 हैक्टर में गेहूँ के ऊपर सोलर ऊर्जा का साथ में उत्पादन करते हैं, तो हमें 60 प्रतिशत अतिरिक्त लाभ होगा।

एग्री-वोल्टिक प्रणाली एक नई ऊर्जा स्रोत के रूप में सामर्थ्यपूर्ण और सुरक्षित होने के साथ-साथ, ऊर्जा संवेदनशीलता की दिशा में एक कदम बढ़ाती है। इस प्रणाली के माध्यम से किसान न केवल आत्मनिर्भर हो सकते हैं, बल्कि पर्यावरण के प्रति भी सही दिशा में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान कर सकते हैं। यह किसानों को एक नया आय स्रोत प्रदान करने, प्रदूषण को कम करने और सुरक्षित ऊर्जा स्रोतों का उपयोगी सुझाव है। इसके माध्यम से किसान नए और स्वच्छ ऊर्जा के समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। इस प्रकार, एग्री-वोल्टिक प्रणाली एक स्वस्थ और हरित भविष्य की दिशा में सकारात्मक कदम बढ़ाने का एक सामर्थ्यपूर्ण साधन प्रदान करती है।

एग्री-वोल्टिक प्रणाली की सीमाएं

एग्री-वोल्टिक प्रणाली की कुछ सीमाएं भी हैं। यह एक भूमि-आधारित उपक्रम है, जिसमें अत्यधिक भूमि की आवश्यकता होती है। अनुमानतः प्रति मेगावॉट उत्पादन के लिए लगभग दो हैक्टर जमीन की आवश्यकता होती है। दूसरा, इसके समुचित उपयोग के लिए एक खुला क्षेत्र चाहिए, जिससे कि धूप प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो सके। झारखण्ड, पूर्वोत्तर तथा छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में इसका लाभ उठाना कठिन हो सकता है। बरसाती मौसम में भी जब आकाश में बादल छाए रहते हैं, तब यह प्रणाली कारगर नहीं रहती और किसानों को ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ सकता है। इस प्रणाली की एक अन्य समस्या यह भी है कि सौर पैनल से होने वाली छाया के कारण कई बार पौधों में कीट और रोग लग जाते हैं। अतः इस पर भी उचित ध्यान देने की आवश्यकता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।