उच्च शिक्षा की गुणवत्ता से खिलवाड़ किस प्रकार रोक पाना सम्भव?      Publish Date : 08/02/2025

उच्च शिक्षा की गुणवत्ता से खिलवाड़ किस प्रकार रोक पाना सम्भव?

                                                                                                                           प्रोफेसर रसाल सिंह एवं प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

पिछले दिनों केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अध्यक्ष प्रोफेसर एम. जगदीश कुमार की उपस्थिति में ड्राफ्ट रेगुलेशन 2025 जारी किया। यह उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों और शैक्षणिक कर्मियों की नियुक्ति एवं पदोन्नति संबंधी न्यूनतम अर्हता सुनिश्चित करने और उनकी सेवा शर्तों, शिक्षक एवं शोध कार्यभार और पेशेवर आचार संहिता आदि से संबंधित है।

इस मसौदे पर प्रतिक्रिया के लिए शिक्षकों, शैक्षणिक प्रशासकों और छात्रों आदि हित धारकों को एक माह की समय सीमा प्रदान की गई है। देश में अभी तक रेगुलेशन 2018 को ही लागू करने की कवायद जारी है। अतः कुल मिलाकर यह अवसर यूजीसी रेगुलेशन 2018 की विसंगतियों में सुधार करने का था। उच्च शिक्षा क्षेत्र में दूरगामी दृष्टिकोण और नीतिगत एवं निरंतरता का होना अत्यंत आवश्यक है। रेगुलेशन 2018 की विसंगतियों और समस्याओं पर विचार करने और उनका समाधान तलाश करने के लिए कई साल पहले एक समिति बनाई गई थी, लेकिन आज तक इस दिशा में किसी भी तरह की कोई प्रगति न होना अपने आप में काफी निराशाजनक है।

उक्त मसौदे में प्रतिभाओं के संरक्षण और प्रोत्साहन का दावा तो किया गया है लेकिन उसका कोई विश्वसनीय रोड मैप नहीं दिखाई नहीे देता है। ड्राफ्ट रेगुलेशन में शिक्षकों की नियुक्ति में स्नातक और स्नातकोत्तर के विषय की महत्वता कम करते हुए पीएचडी वाले विषय में ही नियुक्त करने की छूट दी गई है। यह निर्णय अकादमी जगत में अराजकता बढ़ाएगा। यह विषय विशेष से पढ़े हुए अभ्यर्थियों को अपने विषय में शिक्षक बनने का रास्ता खोलेगा और 4 वर्षीय स्नातक करने वाले छात्रों को भी कॉलेज विश्वविद्यालय में शिक्षक बनने का अवसर देने से भी इसकी एकेडमिक गुणवत्ता कम होगी।

                                                            

रेगुलेशन 2018 में विश्वविद्यालय में शिक्षक बनने के लिए पीएचडी की अनिवार्यता का प्रावधान किया गया था, क्योंकि ऐसे शिक्षकों को अध्यापन से अधिक शोध कार्य करना होता है। अब पुस्तक के अध्यायों को शोध पत्रों के समकक्ष दर्जा दे दिया गया है, यह चिंताजनक है।

अभ्यर्थी की विभिन्न एकेडमिक परीक्षाओं के अकादमिक परिणाम, शोधकार्य और प्रशासन आदि को महत्व देने और साक्षात्कार की भूमिका को भी सीमित करने के संबंध में भी कोई पारदर्शीय वस्तुपरक और न्याय संगत नीति नहीं बनाई गई है। चयन समिति केंद्रित नियुक्ति प्रक्रिया को अक्सर तोड़ा मरोड़ा जाता रहा है।

अभ्यर्थी की अकादमिक उपलब्धियों को नजरअंदाज करते हुए स्पष्ट और अमूर्त मानकों के आधार पर उसके मूल्यांकन का अधिकार चयन समिति को दिया गया है। एकेडमिक उपलब्धियां संबंधी वस्तु परख एवं परिभाषित मापदंडों के स्थान पर नियुक्त प्रक्रिया को चयन समिति केंद्रित बना दिया गया है। प्रशासन की गुणवत्ता के निर्धारण से लेकर अंतिम चयन तक चयन समिति ही सर्वशक्तिमान होगी।

एकेडमिक दुनिया जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाई-भतीजावाद और परिवारवाद आदि से पूरी तरह से ग्रस्त है। संबंधों और लेनदेन के अभाव में योग्यतम अभ्यर्थी और अच्छे उम्मीद्वार इसके शिकार होते हैं। अतः यह स्थिति बदलनी होगी अगर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बचाना है तो संघ लोक सेवा आयोग के तर्ज पर भारतीय उच्च शिक्षा सेवा शुरू की जानी चाहिए। केंद्रीय अनुदान प्राप्त सभी संस्थाओं को उसके दायरे में लाना चाहिए।

इन सभी संस्थाओं से रिएक्शन का विवरण मंगाकर साल में एक बार विज्ञापन आना चाहिए और एक साथ लिखित परीक्षा और साक्षात्कार होने चाहिए। नियुक्ती में 50 प्रतिशत अभी भी लिखित परीक्षा और 30 प्रतिशत अधिकार समस्त एकेडमिक उपलब्धियां और 20 प्रतिशत अधिकार साक्षात्कार को दिया जाना चाहिए। सफल अभ्यर्थियों को मेरिट सूची में उनके स्थान, कॉलेज और विश्वविद्यालय के द्वारा दी गई वरीयता और उसके स्थाई निवास स्थान आदि के समेकित अधिकार के आधार पर नियुक्ती प्रदान की जानी चाहिए और सत्र के बीच में नियुक्तियों से बचना चाहिए।

लेखकः प्रोफेसर रसाल सिंह, प्राचार्य रामानुज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय,

एवं प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।