
बौद्धिक संपदा अधिकारों का कल Publish Date : 26/01/2025
बौद्धिक संपदा अधिकारों का कल
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
आज का विश्व कल के बौद्धिक संपदा अधिकारों का विश्व होगा। अतः कृषि प्रौद्योगिकी, बौद्धिक संपदा अधिकारों से युक्त होगी। जिस किसी की प्रौद्योगिकी होगी, विशेष रूप से गैर- सरकारी प्रौद्योगिकी का प्रचार एवं प्रसार भी उसी व्यवस्था का एक अंग होगा। आज जहां देखों वहीं यह सुनने में आता है कि कृषि प्रोद्योगिकी का हस्तांतरण जितना होना चाहिए था उतना नही हो पा रहा है।
हालाँकि, इसका कारण स्पष्ट है, कृषि प्रौद्योगिकी का विकास तो कोई करता है परन्तु उसका हस्तांतरण कोई ओर ही करता है। आने वाले समय में बौद्विक सम्पदा अधिकार के तहत यदि ऐसा हुआ तो प्रौद्योगिकी का विकास करने वाले विभिन्न क्षेत्रों धन का अभाव हो जाएगा। अतः प्रौद्योगिकी का विकास करने वालों की पूरी कोशिश यह होगी कि उनकी प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण हो उसका पूरा लाभ भी उन्हें ही प्राप्त हो। इस प्रकार युवाओं में इससे सम्बन्धित समस्त विधाओं का ज्ञान होना भी एक आवशयक शर्त होगी।
कल का कृषि विकास ज्ञान और समझ के साथ किए गए तकनीकी हस्तांतरण पर ही आधारित होगा। तकनीकी का प्रचार एवं प्रसार करने वाले व्यक्त्ति को सम्पूर्ण परिवेश का ज्ञान होना आवश्यक होगा। अपने शोध संस्थानों को किसानों के खेत-खलिहानों एवं कृषि आधारित उद्योग-धन्धों के साथ सम्बद्व करना होगा, जिससे कृषि के लिए जो भी उपयुक्त होगा उसके बारें में उत्पादनकर्ता को जानकारी होना आवशयक है। इन समस्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले समय में प्रशिक्षित एजेण्टों की देश में बहुत आवश्यकता होने वाली है।
इस सम्बन्ध में केवल किसानों एवं उपभोक्ताओं को ही पराजीनी प्रौद्योगिकी के सम्भावित लाभों और उनकी सम्भावित सीमाओं के बारे में अवगत कराना ही महत्वपूर्ण नहीं हैं अपितु आमतौर पर वैज्ञानिक समुदायों को भी पूर्वाग्रहों और पूर्वानुमानों से बचने के लिए शिक्षित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। बिना किसी जांच के अनुवांशिक तौर पर रूपान्तरित जीवों की सुरक्षा अथवा उसकी गैर-सुरक्षा को लेकर कोई आम धारणा बनाने की अपेक्षा पराजीनी फसलों के सम्भावित खतरों और उन खतरों को दूर करने के प्रयासों पर एक स्वस्थ्य बहस के लिए प्रेरित करना अति आवश्यक है।
जब तक सभी सम्बद्व लोगों की भावनाओं और गलत विचारधाराओं के स्थान पर व्यवहारिक वास्तविकताओं और हानि लाभ आदि के पूर्ण विवरण के आधार पर समस्त मुद्दों को एक समग्र दृष्टिकोण से देखने की इच्छाशक्ति नही होगी तब तक जैव सुरक्षा, जैव-नीतिशास्त्र और बौद्विक सम्पदा अधिकारों पर कभी समाप्त न होने वाली अन्तहीन बहस जारी ही रहेगी। इसके लिए फिलहाल एक गतिशील नियामक नीति और एक ऐसा संतुलित ढाँचा भी प्रदान किया जाना आवश्यक है जिसके अन्तर्गत सभी सम्बद्व व्यक्तियों, वैज्ञानिकों, शोध संगठनों, पर्यावरण समूहों तथा किसानों एवं उपभोक्ताओं के हितो का ध्यान रखा जा सके।
वर्तमान समय में इस प्रकार के प्रश्नों को उठाने का कोई औचित्य ही नही है कि क्या भारत के जैसे विकासशील देशों में भी जैव-प्रौद्योगिकी की आवश्यकता है। बल्कि अब हमें इस इस बात पर अधिक ध्यान देना चाहिए कि फसलों की उत्पादकता एवं प्रति इकाई क्षेत्रफल, समय और निवेश के आधार पर उत्पादन में वृद्वि के लिए भारत, किस प्रकार से जैव-प्रौद्योगिकी का सुरक्षित उपयोग कर सकता है। भारत की तीव्र गति के साथ वृद्वि करती जनसंख्या के लिए खाद्य पदार्थों की बेहतर भौतिक, आर्थिक एवं पारिस्थितिक उपलब्धता सुनिश्चित् कराने के उद्देश्य से भारतीय कृषि के विकास को तीव्र गति प्रदान करने के लिए यह अति आवश्यक है। हमारे लिए अतिशीघ्र ही एक सक्षम बौद्विक सम्पदा कानून लागू करना भी आवश्यक है।
इस प्रणाली को लागू करने और और उसके माध्यम से आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए समस्त अन्तर्निष्ठ क्षमताएँ उपलब्ध हैं। हालाँकि समय की माँग तो यह है कि हम अपनी सामर्थ्य को पहचान कर प्रभावशाली प्रणाली एवं कार्य-योजनाओं को लागू कर उपलब्ध अवसरों का लाभ उठाने के लिए गम्भीर प्रयास करें। भारत में, हाल के वर्षों में क्षमता निर्माण, मानव संसाधन विकास और फसल जैव-प्रौद्योगिकी के स्वदेशी उपयोग के क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। यहाँ व्यवसायीकरण् पूर्व सक्षम निकायों के द्वारा पराजीनी फसलों के विवेचनात्मक मूल्याँकन को सुनिश्चित् करने के लिए भी दिशा-निर्देश निर्धारित किए जा चुके हैं।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।