बारानी कृषि के क्षेत्र में अपार संभावनाएं      Publish Date : 16/01/2025

                     बारानी कृषि के क्षेत्र में अपार संभावनाएं

                                                                                                                                      प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

बारानी कृषि ऐसे क्षेत्रों में की जाती है, जहां पूरी खेती मौसमी वर्षा पर ही निर्भर करती है। इसकी कुछ प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं-

अनियमित वर्षाः वर्षा पर निर्भरता बारानी कृषि का प्रमुख जल स्रोत है, वर्षा तो होती ही है, लेकिन वर्षा की मात्रा और वितरण अनियमित प्रकार का होता है। कभी अत्यधिक वर्षा होती है, तो कभी सूखा, जो फसल के उत्पादन को प्रभावित करता है।

                                                            

सिंचाई की कमीः इन क्षेत्रों में सिंचाई के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे जैसे-नहर, तालाब इत्यादि नहीं होते हैं। सिंचाई सुविधाओं की अनुपलब्धता रहती है। इसके साथ ही किसानों को केवल वर्षा जल पर निर्भर रहना पड़ता है। अतः फसलों की गंभीर अवस्था में पानी नहीं मिलने से उनके उत्पादन में अक्सर कमी देखी जाती है।

फसल विविधताः इन क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं। इनमें से अधिकांश फसलों के बाजार में सही दाम न मिलने से, किसानों को अच्छी आमदनी नहीं मिल पाती है।

भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां खेती-बाड़ी देश की अर्थव्यवस्था और समाज का एक प्रमुख स्तंभ है। यहां की खेती का बड़ा हिस्सा बारानी कृषि (रेनपफेड फार्मिंग) पर आधारित होता है, जहां सिंचाई के लिए वर्षा ही एक मुख्य जल स्रोत होता है। विश्व की भूमि का 41 प्रतिशत भाग शुष्क है, जहां लगभग 2 अरब लोग निवास करते हैं। विश्व की कुल शुष्क भूमि का 72 प्रतिशत हिस्सा विकासशील देशों में स्थित है।

विश्व की कृषि भूमि के 80 प्रतिशत भाग पर वर्षा आधारित कृषि की जाती है। इस क्षेत्र से विश्व के मुख्य खाद्य उत्पादों का लगभग 70 प्रतिशत उत्पादन होता है। इनमें विकासशील एवं अन्य क्षेत्रों के समुदायों के खाद्यान्न सम्मिलित हैं। भारत में, कुल खाद्यान्न उत्पादन का 44 प्रतिशत हिस्सा शुष्क क्षेत्रों से आता है, जो देश की खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके साथ ही पशुधन व बागवानी उत्पादों में भी शुष्क क्षेत्रों का देश की कृषि में महत्वपूर्ण योगदान है।

वर्ष 2023-24 के दौरान भारत में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान लगभग 15 प्रतिशत रहा था। अर्थव्यवस्था में कृषि के योगदान के लिए वर्षा आधारित कृषि अत्यंत महत्वपूर्ण है। यद्यपि उद्योग जगत और सेवा क्षेत्रा की अपेक्षा यह योगदान कम है, परंतु यह विकास का आधार स्तंभ है।

फसल विविधीकरणः परंपरागत रूप से, वर्षा आधारित क्षेत्रों में किसानों ने मिश्रित खेती प्रणाली को अपनाया हुआ है। एकीकृत कृषि प्रणाली व बहुफसली प्रणाली को अपनाकर किसान कई लाभ प्राप्त कर सकते हैं। अतः फसल पूर्ति के तहत एक ही खेत में दो या अधिक फसलों को एकसाथ उगाकर प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर उपयोग किया जा सकता है। इससे उत्पादन क्षमता में वृद्वि होती है और जोखिम भी कम होते हैं।

बहुफसली प्रणाली में एक ही भूमि पर वर्षभर में दो या अधिक फसलें उगाकर अधिक उत्पादकता और आय प्राप्त हो सकती है। यह प्रणाली बाहरी लागत पर निर्भरता को भी कम करती है। खेत से उत्पन्न जैविक अवशेषों को पुनः प्रयोग में लाया जा सकता है, जिससे उत्पादन लागत में कमी आती है।

पशुधन पर प्रभावः बारानी क्षेत्रों में चारे की कमी होती है, जिससे पशुधन की उत्पादकता भी कम होती है। हालांकि, पशुधन खेती का एक अभिन्न अंग है, किंतु चारे की समस्या के कारण इसे लाभकारी बनाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।

यद्यपि वर्षा आधारित क्षेत्र में चावल व मक्का की हिस्सेदारी 40 व 60 प्रतिशत तक है। श्रीअन्न, दलहन व तिलहन का क्षेत्रफल बहुतायत से बारानी क्षेत्र में स्थित है। बारानी कृषि की चुनौतियां वर्षा पर आधारित क्षेत्रों में खेती पूरी तरह से मानसून पर निर्भर होने के कारण, इन क्षेत्रों में गरीबी अधिक और विकास की गति धीमी होती है। कमजोर मानसून और कम वर्षा, फसलों की पैदावार, खेती की अवधि आदि फसल चयन के विकल्पों को सीमित कर देती हैं। हाल के दशकों में शीत लहर, अत्यधिक गर्मी, कीटों और रोगों का प्रकोप जैसी जलवायु परिवर्तन की घटनाओं ने कृषि सहनशील किस्में वर्षा आधारित कृषि के लिए सहनशील फसल किस्मों का चयन करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

ये किस्में असामान्य और  प्रतिकूल  जलवायु  परिस्थितियों  का सामना करने में सक्षम होती हैं। वर्तमान में नई फसल किस्मों का विकास किया जा रहा है, जो सूखे और गर्मी जैसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बेहतर उत्पादन प्रदान कर सकें। इन किस्मों में गहरी जड़ होती है, जो मृदा की गहराई से पानी और पोषक तत्वों को अवशोषित करने में सक्षम होती है। इससे उन्हें लंबे समय तक जलवायु की कठोरता सहने की शक्ति मिलती है। इसके अलावा, ये किस्में बेहतर उपज देने के साथ-साथ कीटों और रोगों से भी अधिक प्रतिरोधी होती हैं।  इनका उपयोग वर्षा आधारित कृषि में किसानों की आजीविका में सुधार और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में एक महत्वपूर्ण योगदान है।

परिदृश्य

                                                    

इस स्थिति ने उत्पादकता को और बाधित कर दिया है। आने वाले समय में, प्राकृतिक संसाधनों की घटती उपलब्धता, विशेषकर पानी की कमी और गैर-कृषि गतिविधियों के लिए बढ़ती प्रतिस्पर्धा, इन क्षेत्रों में कृषि के लिए बड़ी चुनौती बनेंगी। छोटे खेतों के कारण कम उत्पादन, श्रीअन्न की घटती मांग, अपर्याप्त सार्वजनिक निवेश और नीतिगत समर्थन की कमी, वर्षा आधारित कृषि की प्रमुख समस्याएं हैं। कुछ प्रमुख समस्याओं का विवरण इस प्रकार हैः

जलवायु परिवर्तनः इसके कारण वर्षा आधारित कृषि में कई गंभीर चुनौतियां उत्पन्न हो रही हैं, जैसे अनियमित मानसून, कम समय में अधिक वर्षा, सूखा, जल संकट आदि खेती में काफी प्रभाव डालते हैं। मानसून की अनिश्चितता से फसलों की बुआई में देरी, फसलों को उगाने के समय सूखा और जल की कमी से सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध नहीं होना, तापमान में वृद्वि, शीत और गर्मी तथा कीट-रोगों का बढ़ता प्रकोप उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। इससे किसानों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है।

मृदा की खराब गुणवत्ताः वर्षा आधारित कृषि में मृदा की खराब गुणवत्ता एक प्रमुख चुनौती है।  यह फसल उत्पादन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है। लगातार खेती करने से मृदा की प्राकृतिक उर्वराशक्ति में कमी तथा इसके आवश्यक पोषक तत्वों का अत्यधिक दोहन होता है। इसके साथ ही इन क्षेत्रों में सिंचाई के सीमित साधनों के कारण किसान अधिकतर जैविक या अकार्बनिक उर्वरकों पर निर्भर रहते हैं। इससे मृदा में पोषक तत्वों की पर्याप्त भरपाई नहीं हो पाती। इसके अलावा, अनियमित और कम वर्षा के कारण मृदा में नमी की कमी होने से फसलों में पोषक तत्वों का अवशोषण भी कम हो पाता है। इससे उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

बहुपोषक तत्वों की कमीः उर्वरकों के असंतुलित उपयोग के कारण मृदा की गुणवत्ता में गिरावट तथा वर्षा आधारित कृषि प्रणालियों में बहु-पोषक तत्वों की कमी का संकट बढ़ रहा है। मृदा में नाइट्रोजन, पफॉस्पफोरस और पोटेशियम जैसे मुख्य पोषक तत्वों की कमी के साथ-साथ गौण पोषक तत्वों जैसे-सल्फर, कैल्शियम और मैग्नीशियम तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे-जिंक, बोरॉन, कॉपर और मैंग्नीज की भी भारी कमी पायी जाती है। इन सभी पोषक तत्वों की कमी फसलों की उत्पादकता पर प्रभाव डालती है।

समाधानः बारानी कृषि की इन चुनौतियों से निपटने के लिए कई तकनीकें विकसित की गयीं हैं, जो इसे अधिक टिकाऊ और लाभदायक बना सकती हैं। जल संचयन एवं प्रबंधन जल संचयन तकनीकों जैसे-जलाशयों का निर्माण और सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों का उपयोग करके, बारानी क्षेत्रों में फसलों की सिंचाई की जा सकती है। इससे सूखे के दौरान भी फसलों को बचाया जा सकता है तथा अच्छा उत्पादन भी लिया जा सकता है।

सूक्ष्म जल प्रबंधन तकनीकें जैसे-ड्रिप स्प्रिंकलर व रेनगन इत्यादि के प्रयोग से संरक्षित वर्षा जल की उपयोग क्षमता कई गुना बढ़ायी जा सकती है। इसके साथ ही अधिक पैदावार व आमदनी भी प्राप्त की जा सकती है।

उत्तम मृदा प्रबंधनः मृदा में कार्बन की मात्रा बढ़ाने के लिए उन्नत पोषक प्रबंधन आवश्यक है। इससे मृदा की उर्वराशक्ति में सुधार होता है। मृदा की जल धारण क्षमता में वृद्वि होती है और फसलों की उत्पादकता में भी सुधार होता है। वर्षा आधारित कृषि में उपयुक्त खेती प्रबंधन का अनुसरण अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें सबसे पहले उचित नमी की दशा में जुताई करना शामिल है, ताकि मिट्टी के बड़े ढेले बनने से रोका जा सके और मृदा की संरचना में सुधार हो।

मृदा की जैविक गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए जैविक खादों का उपयोग किया जाना चाहिए। इसके साथ ही बीज अंवुफरण और पौध संख्या को बढ़ाने के लिए सतही पपड़ी को तोड़ने हेतु हल्के कृषि यंत्रों का प्रयोग किया जाना चाहिए। ये क्रियाएं मृदा की उर्वराशक्ति और संरचना को बनाए रखते हुए, वर्षा आधारित खेती को सपफल बनाने में मदद करती हैं।

बागवानी व कृषि वानिकीः खेती  के  साथ-साथ फलदार वृक्षों जैसे-अमरूद, आंवला, आडू, अनार व ड्रैगन फ्रूट की खेती कम पानी व वर्षा आधारित क्षेत्रों के लिए लाभकारी होती है। इसके साथ ही पर्यावरण सुधार व मृदा का उत्तम स्वास्थ्य बना रहता है। इसके अलावा खेत के आसपास वृक्ष उगाने की एक समृद्व ऐतिहासिक परंपरा है, जो सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय समृद्वि पर गहरा प्रभाव डालती है। ऐसी कृषि वानिकी प्रणाली न केवल ग्रामीण लोगों की ईंधन  लकड़ी  की  मांग  को  पूरी  करती  है, बल्कि वृक्ष और घास के बारहमासी घटकों से फसलों को पानी और वायु कटाव आदि से भी बचाती है। वर्षा आधारित पारिस्थितिकी आदि का समायोजन बारानी खेती को और लाभकारी बनाता है।

समन्वित कृषिः इस कृषि प्रणाली में खेती के कई उपक्रमों को एकसाथ ऐसे समाहित किया जाता है कि एक उपक्रम का दूसरे में उचित प्रयोग किया जा सके। बारानी क्षेत्रों में खेती के साथ -साथ पशुधन, बागवानी व वानिकी को अपनाकर जलवायु की अनिश्चितता व पानी की कमी से बचाव किया जा सकता है। इसके साथ ही कम पानी चाहने वाली प्रजातियां व पशुओं की नस्लों का समायोजन इस प्रकार से करें कि एक उपक्रम के उस उत्पाद को दूसरे उपक्रम में समुचित उपयोग करने से लागत में कमी, उत्पादकता व लाभ में वृद्वि तथा मौसम की मार से बचा जा सकता है।

खाद्य सुरक्षा में अहमः बारानी कृषि भारत के करोड़ों लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन है। इसके सामने कई चुनौतियां हैं, जिन्हें आधुनिक तकनीकों को अपनाकर हल किया जा सकता है। किसानों को नई कृषि पद्वतियों और तकनीकों के बारे में जागरूक करना, जलवायु परिवर्तन के प्रति तैयार रखना एवं जल संरक्षण की तकनीकें सिखाना वर्तमान समय की मांग है। यदि सही उपाय किए जाएं, तो बारानी कृषि न केवल किसानों की आय बढ़ाने में सहायक हो सकती है, बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा को भी सुदृढ़ कर सकती है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।