अनुसंधान एवं बीजोत्पादन के उपरांत उत्पादकता एवं पौष्टिकता होगी भरपूर Publish Date : 12/01/2025
अनुसंधान एवं बीजोत्पादन के उपरांत उत्पादकता एवं पौष्टिकता होगी भरपूर
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
पराजीनी फसलों में यह विशेष्ता भी होगी कि उनमें पौष्टिक गुण भरूपर होंगे और यह उच्च गुणवत्ता से युक्त भी होंगे। यह बात इस प्रकार से भी स्पष्ट होती हैकि यदि खाद्यान्न की फसलों में विभिन्न प्रकार के पौष्टिक गुणो का समावेश किया जाए तो तो उस फसल के उत्पाद भी पौष्टिक ही होंगे। एक स्थान में सारे जीनों का एकत्रीकरण जीन पूल की सार्थकता होती है, और यहीं से पराजीनी फसलों के अध्याय का जन्म होता है।
वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में 70 के आसपास पराजीनी फसलों का विकास किया जा चुका है और इन फसलों को उगाने के लिए क्षेत्र भी करोड़ों एकड़ के आँकड़ें को पार कर चुके हैं। पराजीनी फसलों के अन्तर्गत खाद्यान्न, तिलहन, दलहन, सब्जी और फल आदि सभी प्रकार की फसलें समाहित हैं और बीटी उनके उत्पादन में पर्याप्त वृद्वि कर उन्हे बेहतर गुणों से युक्त भी कर रही है। ऐसे में यह भी स्पष्ट ही है कि इस प्रकार से पौष्टिकता को उपलब्ध कराकर उससे कमाई भी अच्छी खासी ही की जा रही है।
यहाँ एक बात जो कि सामने आती है कि पराजीनी पद्वति के आधार पर अब सुपर फसलों को तैयार करने में भी सहायता प्राप्त होगी। बीते कुछ समय में भारत में भी इसी प्रकार की सफलताएं प्राप्त हुई हैं, जिनमें जंगल रामदाना की प्रोटीन को आलू में स्थानान्तरित कर सुपर आलू बनाना विशेष वर्णनीय है। यह एक सत्य है कि अनुसंधानों की दिशा में जन-मानस की आवश्यकता, बाजार की उपलब्धता आदि की स्थिति उपयुक्तता के अनुरूप ही होनी चाहिए।
सदैव माँग एवं आपूर्ति को ध्यान में रखकर ही व्यवस्थित करना होगा। समय के साथ सर्द परिवर्तित होने वाली माँग के अनुरूप ही हमें अपने अनुसंधानों की दिशा को भी बदलना होगा और संकर प्रजातियों को अनेकानेक फसलों में विकसित करनी होंगी। इन प्रजातियों के विकास से प्रतिवर्ष नये बीजों को बनाना होगा, इससे उत्पादन बढ़ेगा और उत्पादकता के बढ़ने के साथ ही साथ तकनीकी एवं अन्य क्षेत्रों में युवाओं के लिए रोजगार के अवसर भी सृजित होंगे। जैव प्रौद्योगिकी के बढ़ते हुए क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए, इस विषय में युवाओं को भी आगे लाना होगा।
जैव प्रौद्योगिकी के माध्यम से पौध प्रजनन के प्रवाह में तीव्रता लानी होगी। इसके लिए देश में कुछ ऐसे केन्द्र होने चाहिए जिनको इस क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त हो और उनको अन्य संस्थाओं के पौध प्रजनन कार्यक्रमों के साथ सम्बद्व करना होगा। इससे अनेकानेक फसलों में सूक्ष्म मॉलिक्यूलर प्रजनन हो सकेंगे और विश्व बाजार में भारत को एक प्रतियोगी देश के रूप में आगे बनाए रखने के लिए भी इस विषय पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
कुछ विशेष तथ्य
आवश्यकता है तो केवल इतनी भर कि अनेकानेक कार्यें की सिद्वि के अनुरूप ही प्रौद्योगिकियों का विकास कर उन्हें कार्यरूप में परिणित किया जाए। नीचे दिए गए कुछ इस प्रकार के स्वप्न को साकार करने के लिए अनुसंधान की गति को भी तेज करना होगा।
- एपोमेक्टिक जीन का उपयोग कर ऐसी संकर प्रजातियों को विकसित करना जिससे प्रत्येक नई फसल के लिए नया बीज नही खरीदना पड़े। इस तकनीक के माध्यम से विकसित संकर प्रजातियाँ स्वयं सेंचित प्रजाति (इनबेड वैराईटी) की तरह से व्यवहार की जा सकेंगी।
- मनचाही किस्म के ऐसे खाद्य तेलों को तैयार करना जिनमें आवश्यकता के अनुसार किसी भी वसीय अम्ल की मात्रा को कम या अधिक किया जासकें, इसके प्रभाव से मानव को एकाधिक बीमारियों के चपेट में आने से पूर्व ही उनसे बचाव हो सकेगा।
- मक्के की तरह से ही धान, गेंहूँ तथा अन्य फसलें जो सी-3 की हैं, उनका रूपान्तरण सी-4 कैटेगिरी में करना, जिससे वे अपना भोजन बनाने के लिए वायुमण्ड़ल में उपलब्ध कार्बन डाईऑक्साईड का अधिकाधिक उपयोग कर सकें और इसके साथ ही उत्पादन में भी वद्वि करें।
- क्रूड प्रोटीन जीन के द्वारा प्रोटीन में आवश्यक अमीनो अम्ल युक्त धान, गेंहूँ, मक्का, मूँगफली अथवा सरसों इत्यादि का का अधिक से अधिक उत्पादन करना जिससे स्वास्थ्यवर्धक भोजन उपलब्ध कराना सम्भव हो सकेगा।
- भविष्य में ऐसी पौध तैयार करना जो कि जमीन अथवा पानी से खारापन या अन्य नुकसान पहुँचाने वाले तत्वों का शोषण कर सकें जिससे जमीन अथवा पानी के सुधार के लिए अन्य व्ययशील उपायों को करने की आवश्यकता ही न पड़े।
- जिन फसलों में स्टार्च अधिक मात्रा में पाया जाता है जैसे कि आलू आदि में कार्बोहाइड्रेट के स्तर को बढ़ाना अथवा उनमें अन्य पोषक तत्वों का समावेश करना जैसे कि एमेरेन्थस के गुण का आलू में समावेश करना आदि।
- फसलों में अनेकानेक उपयोगी गुणों को रक्षित करना जैसे- रोग-रोधिता, उच्च अथवा निम्न तापमान के प्रति सहनशीलता, क्षारीय अथवा लवणीय भूमियों में उगने की क्षमता, कम पानी अथवा नमी के द्वारा ही जीवन यापन करने की कुशलता को विकसित करना आदि।
- अनाज, फल तथा सब्जियों आदि में विभिन्न विटामिन्स तथा माइक्रो-न्यूट्रीऐन्ट्स की मात्रा को बढ़ाना, जिस प्रकार से गोल्डन राईस में विटामिन ‘ए’ और लौह तत्व की मात्रा को बढ़या गया है।। यह चावल विशेष रूप से रक्ताल्पता से जूझ रही गर्भवती महिलाओं के लिए लाभदाय है।
- विभिन्न प्रकार के टीको का बनाना, पौध उत्पादों में ही टीकों का समावेश करना जिससे बीमारियों से बचने के लिए इंजंक्शन न लेना पड़े, अपितु समस्या का हल केवल खाने-पीने के माध्यम से ही किया जा सकें।
- ताड़ का तेल, जो कि ‘बी’ कैरोटीन तथा विटामिन ‘ई’ से भरपूर होता है, का सुदपयोग करना तथा इस गुण को दूसरी फसलों में भी समाविष्ट करना।
- अलसी में इस प्रकार के आवश्यक वसीय अम्ल विद्यमान होते हैं, जो कि हृदय की माँसपेशियों (कार्डियो मस्कुलर) की बीमारियों, बच्चों में विकास से सम्बन्धित समस्याएं (न्यूरेाडेवलेपमेंट डिसऑर्डर) तथा अनेक न्यूरोडोजनेरेटरीन बीमारियों के प्रति सुरक्षा प्रदान करती हैं, तो ऐसे ही उपयोगी तत्वों को फसलों में बढ़ाना तथा अन्य फसलों में भी उनका समावेश करना आदि।
- ड्रम स्टिक कैरोटीन के साथ ही विभिन्न माइक्रो न्युट्रीऐन्ट्स का एक सुव्यवस्थित भण्ड़ार है। इस स्टिक का साग एवं सब्जियों के रूप में सदुपयोग करना तथा इसके साथ ही इन गुणेां का समावेश अधिक से अधिक फसलों में करने के बार में विचार करना जिससे कि इनका अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सके।
भारत जैसे देश में सरकारी एवं संगठित, गैर-सरकारी क्षेत्रों के अलावा गांव-गांव एवं घर-घर में गुणवत्तापूर्ण बीज बनाने की आवश्यकता है। बीज प्रौद्योगिकी में अनुसंधान की गति को बढ़ाना होगा, उसे नई दिशा देनी होगी, जिस किसी भी प्रकार का गुणावत्तापूर्ण बीज बनना सुनिश्चित हो सके। देश में उपलब्ध विविधता को ध्यान में रखते हुए उन्नत बीज उत्पादन, प्रसंस्करण, भण्डारण और उपयोग को विधाओं पर विशेष अनुसंधान करने की आवश्यकता है।
बीज की आनुवांशिक शुद्धता कैसे बनायी रखी जा सकेगी और उसका अंकुरण कैसे बना रह सके और बीज की बीमारियों, कोड़े-मकोड़ों से कैसे सुरक्षा की जा सकेगी, इस पर विशेष बल देना होगा। संकर प्रजाति के बीज उत्पादित करने के विभिन्न तौर-तरीकों पर भी अनुसंधान करना होगा। टिशू कल्चर (ऊतक सवंर्धन) पर आधारित बीजोत्पादन के लिए दिशा-निर्देश प्रतिपादित करने होंगे।
ट्रांसजैनिक पर अनुसंधान के साथ ही साथ किस प्रकार दूसरी फसलों में इन गुणों/अवगुणों को जाने से रोका जाए, उसकी उचित व्यवस्था को भी सुनिश्चित करना होगा।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।