कीटनाशियों के कारण प्रभावित होता मानव स्वास्थ्य      Publish Date : 04/01/2025

             कीटनाशियों के कारण प्रभावित होता मानव स्वास्थ्य

                                                                                                                                                                    प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

कृषि कार्यों में प्रयुक्त किए जाने वाले विभिन्न प्रकार के कीटनाशी, शाकनाशी तथा कवकनाशी रसायनों का भूमि में विघटन होता रहता है और इनके प्रभाव से कम विषैले या विष रहित अवशेष पदार्थ बनते रहते हैं जो में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों की क्रियाशीलता को भी कम करते है साथ ही मृदा की जैव मात्रा को असंतुलित करते हैं। मृदा में ऑर्गेनोक्लोरीन वर्ग के कीटनाशियों का स्थायित्व बहुत अधिक रहता है।

    खाद्य-पदार्थों में कीटनाशी रसायनों की विषाक्तता को जानने के लिए हमारे देश के विभिन्न बाजारों में उपलब्ध अनाजों, दालों, सब्जियों, दूध एवं मांस आदि के नमूनों का परीक्षण करने के बाद ज्ञात हुआ कि इनमें विषाक्तता का स्तर काफी ऊँचा रहता है जो कि एक चिन्ता का विषय है। इसका विवरण नीचे दी गई सारणी में प्रस्तुत है-

कीटनाशी रसायन एवं मानवीय स्वास्थ्य

                                                              

(क) रोग-प्रतिरोधक क्षमता में कमी- अधिकाँशतः कीटनाशी मानव शरीर के ऊपर हानिकारक प्रभाव ही डालते हैं और शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता का क्षय करते हैं। सभी प्रकार के कीटनाशी रोग-प्रतिरोधक क्षमता में कमी इस प्रकार से करते हैं कि दोनों प्रकार की द्रवीय तथा कोशिकीय रोग-प्रतिरोधक क्षमता 25-40 प्रतिशत तक कम हो जाती हैं। कुछ कीटनाशी जैसे कि इण्डोसल्फॉन, साइपरमैथ्रिन, मोनोक्रोटोफॉस, लिन्डेन कार्बोफ्यूरॉन, मैलाथियोन, ब्यूटाक्लोर, क्विनॉलफॉस, आइसोओट्यूरॉन, कैप्टाफॉल, एल्फामैथ्रिन तथा डी. ट्रासएलैथ्रिन आदि हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। कीटनशी एवं उर्वरकों के साथ-साथ भारी धातुएं जैसे पारा, शीसा, ताँबा, कैडमीयम तथा आर्सेनिक इत्यादि के अवशेष खाद्यान्नों के साथ हमारे शरीर में पहुँच जाते हैं और यह भारी धातुएं भी हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता का क्षय करती हैं, और इसके कारण हमारे शरीर पर विभिन्न रोगों के संक्रमण होने लगता है। एक ही रोग बार-बार होने लगता है और उसके ऊपर औषधियों का प्रभाव भी कम होने लगता है।

(ख) स्वरोग प्रतिरोधी क्षमता का उत्पन्न होना- इन कीटनाशियों के अवशेष कुछ प्रोटीनों के साथ मिलकर हमारे शरीर में प्रति पिण्ड (एंटीबॉडी) उत्पन्न करते हैं जो कि हमारे शरीर की कोशिकाओं/प्रोटीन के ही विरूद्व कार्य करते हैं। हमारे शरीर की कोशिकाओं एवं ऊतको क्षय एक साथ ही होने लगता है। लिण्डेन नामक कीटनाशी के द्वारा इस प्रकार के प्रभाव को जानवरों में देखा गया है। कई बार जब यह एंटीबॉडी अधिकता के साथ निर्मित होते हैं तो यह कीटनाशियों के अवशेषों के साथ मिलकर संयुग्म बनाते हैं जो हमारे गुर्दों को खराब करते हैं और हमारे जोड़ों में भी क्षति कर उनमें दर्द उत्पन्न करते हैं।

(ग) कैंसर का बनना- अधिकाँश कीटनाशी रसायनों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कैंसर कारक पाया गया है। इन कीटनाशियों के अवशेषों के कारण हमारे शरीर की रोग-प्रतिराधक क्षमता कम हो जाती है तो कैंसर के विरूद्व निगरानी करने वाली कोशिकाओं की कमी हमारे शरीर में हो जाती है जिसके फलस्वरूप कैंसर के बनने की सम्भावनाओं में वृद्वि हो जाती है।

(घ) नवजात शिशुओं में अपंगता- हमारे शरीर में कीटनाशियों के अवशेष एकत्र होते रहते हैं जो माँ के पेट में ही बच्चों के ऊपर हानिकारक प्रभाव डालते हैं, जिससे उत्पन्न विकारों में शरीर की अपंगता प्रमुख है। इसमें कार्बारिल, थिराम, प्रोपोक्सर, पैराथियॉन, लिण्डेन तथा डाइजिनॉन आदि कीटनाशी रसायन प्रमुख हैं और इनके दुष्प्रभाव के कारण मानव में भ्रूण की मृत्यु, शारीरिक अपंगता, प्रजनन क्षमता का पूर्ण रूप से विकसित न होना आदि समस्याएं सामने आती हैं।

(ड़) मस्तिष्क के रोग- जब इन कीटनाशियों के अवशेष खाद्यान्नों में मिश्रित होकर हमारे शरीर के अन्दर पहुँच जाते हैं तो यह हमारे शरीर के तंत्रिका तन्त्र को भी प्रभावित करते हैं। इनमें कार्बनिक फॉस्फोरस तथा कार्बनिक क्लोरीन समूह के कीटनाशी शरीर में पक्षाघात की स्थिति को उत्पन्न कर सकते हैं। इसके दुष्प्रभाव के कारण व्यक्ति में चिड़चिड़ापन, कमजोर याद्दाशत का होना, चलने में लड़खड़ाहट का होना, देरी से सोचना, शरीर के अंगों में नृतन रोग (कम्पन) का होना आदि रोगों के प्रभाव देखे गये हैं। कीटनाशियों के दुष्प्रभावों के चलते मानव के व्यवहार में विचित्र प्रकार के परिवर्तन भी देखे गये है जिनके कारण प्रभावित व्यक्ति तनाव पूर्ण जीवन जीने के लिए विवश हो जाता है।

(च) गुर्दों का खराब होना- कीटनाशियों के अवशेष तथा भरी धतुओं के अवशेष शरीर में एंटीबॉडी के साथ लिकर संयुग्म बनाते हैं जो कि मूत्र बनने की प्रक्रिया में मानव के गुर्दों में फैल जाते हैं तथा मूत्र छनने/बनने की प्रक्रिया में विघ्न उत्पन्न करते हैं। जिसके परिणमस्वरूप गुर्दों में खरबी बाना शुरू हो जाती है तथा प्रभवित व्यक्ति को डाइलासिस पर रखा जाता है अन्यथा रक्त में यूरिया के जैसे विषाक्त पदार्थों के मिल जाने के कारण प्रभावित व्यक्ति की मृत्यु तक हो जाती है।

(छ) जिगर का खरब होना- कीटनाशियों के अवशेष जब खाद्यान्नों के साथ मिलकर हमारे शरीर में पहुँच जाते हैं तो वे हमारे जिगर तक भी पहुँच जाते हैं और उसको हानि पहुँचाते हैं।

(ज) मानव की प्रजनन क्षमता में ह्यस- इन कीटनाशियों के अवशेष मानव की प्रजनन क्षमता को भी कम करते हैं। यह कीटनाशी शरीर में शुक्राणुओं, डिम्बाणुओं को व्यापक रूप से क्षतिग्रस्त करते हैं जिससे प्रभावित व्यक्ति निशेचन क्रिया को सम्पन्न नही कर पाते हैं। इनके फलस्वरूप् बच्चेदानी कमजोर हो जाती है और उसके अन्दर भ्रूण पनप नही पाता है जिसके फलस्वरूप गर्भपात हो जाता है और इस प्रकार के रोग हो जाने पर अधिकाँश व्यक्ति संतानहीन ही रह जाते हैं क्योंकि उनकी प्रजनन क्षमता नष्ट हो चुकी होती है।

(झ) त्वचा से सम्बन्धित रोगों का होना- कीटनाशियों के अवशेषों के चलते मानव की त्वचा पर खुजली, एक्जीमा, खारिश, दानों का निकलना, बालों का झड़ना, आदि लक्षण भी प्रकट होते रहते हैं। कई कीटाणु एलर्जी भी उत्पन्न करते हैं जिसके कारण त्वचा पर लाल-लाल चकते पड़ जाते हैं।

कीटनाशियों के हानिकारक प्रभावों से बचने के उपाय

इन कीटनाशियों के दुष्प्रभावों से बचने के लिए आम जनता को भी प्राकृतिक खेती के मूल सिद्वाँतो को अपनाना होगा। रासायनिक कीटनाशियों के विकप्प के रूप में जैव कीट नियंत्रण के विभिन्न उपायों, जैसे जैव प्राकृतिक परजीवी, शिकारी एवं सूक्ष्म जीवाणुओं, परभक्षी कीटों, वानपातिक कीटनाशियों तथा अन्य कारकों जैसे कि शस्य कार्यक्रमों की सहायता से यांत्रिक एवं भौतिक नियंत्रण के द्वारा मिट्टी, जल, फसलों एवं मानव के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को दूर किया जा सकता है। आगे इसका विस्तार से वर्णन किया गया है।

गोमूत्र के माध्यम से संशोधित कीनाशियों का प्रयोग किया जाना उचित रहता है क्योंकि यह फसलों को कीटों से बचाती है। और इनका कोई भी हानिकारक प्रभाव भी नही होता है। अत: इनके उत्पादन एवं उपयोग को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। कीटनाशियों के दुष्प्रभाव से बचाव के लिए वनस्पतिजन्य आयुर्वेदिक पर व्यापक शोध की आवश्यकता है, जिससे कि कीटनाशियों के दुष्प्रभावों से बचने के लिए आयुर्वेद मूल की दवाईयों का उपयोग वैज्ञानिक तरीकों के साथ किया जाना सम्भव हो सके।

संरक्षण जुताई- आधुनिक कृषि के अन्तर्गत बड़ें यन्त्रों जैसे कि ट्रैक्टर, हैरो तथा कल्टीवेटर आदि से निरंतर जुताई करने से मिट्टी के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुण कुप्रभावित होते हैं। जैसे कि मिट्टी का छोटे-छोटे कणों में टूट जाना जिससे कि उनका क्षरण वायु एवं जल के द्वारा अधिक होता है और इसके साथ ही मृदा में विद्यमान पौषक तत्वों का भी अत्याधिक ह्यस होता है।

मृदा की संरचना के बिगड़ जाने के कारण हमारी फसलों का उत्पादन प्रभावित होता है। इस स्थिति से छुटकार पाने के लिए तथा पौधों को उगाने के लिए मिट्टी की जुताई न करके जीरो टिल ड्रिल, स्ट्रिप टिल ड्रिल से बुआई की जाए तथा खरपतवार कीटों के लिए रसायनों का प्रयोग कर पर्यावरणीय दृष्टि से शुद्व एवं सतत गतिशील उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

सीड-ड्रिल से धान-धेने से पडलिंग की आवश्यकता नही होती एवं खेत की मिट्टी की बेहतर अवस्था और पानी से भरे हुए धान के खेत की अपेक्षा कम गैस निकलती है। संरक्षण जुताई में मिट्टी की सतह में न्यूनतम परिवर्तन किया जाता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।