पृथ्वी एवं उसका पर्यावरण      Publish Date : 19/12/2024

                               पृथ्वी एवं उसका पर्यावरण

                                                                                                                                                        प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

जैसा कि हम सभी लोग इस तथ्य से भली-भाँति तरह से परिचित हैं कि मानव-प्रजाति इस ब्रह्यँड का एक बहुत ही छोटा भाग है। मानव के चारों ओर विभिन्न प्रकार के जीवों और वनस्पतियों की असंख्य प्रजातियाँ उपलब्ध हैं। जिनमें से अनेकों को तो मानव अपने पूरे जीवन काल में देख भी नही पाता है। माना जाता है कि इस पृथ्वी पर जीवन का आरम्भ लगभग 3.8 अरब वर्ष पूर्व हुआ था, जबकि जैव गतिविधियों के संकेत उससे भी पूर्व के प्राप्त होते रहे हैं।

                                                            

वर्तमान में धरती के जिस हिस्से में हम रह रहे हैं, वह भारतीय उपमहाद्वीप गोंडवानालैण्ड के एक विशाल भू-खण्ड़ से पृथक हुआ और इसके निचले हिस्से से सटकर टिक गया। इसमें इसके मूल भू-भाग के जन्तु तथा वनस्पतियाँ के साथ ही जल स्रोत भी आए। शैने-शैने ये जन्तु एवं वनस्पतियाँ नए वातावरण के साथ सामजस्य स्थापित करने में सफल रहे और विकसित होने लगे। हालांकि मानव जाति का विकास तो बहुत बाद में हुआ और तब तक तो होने वाले सम्पूर्ण परिवर्तन तो लगभग पूर्ण ही हो चुके थे।

इस प्रकार विभिन्न प्रजातियों और हमारी मानव जाति के बीच नाजुक संतुलन से ही पारिस्थितिकी तन्त्र का निर्माण होता है। इसके अन्दर जीवन को बनाए रखने वाला अजैव तन्त्र तथा प्राणियों वाला जैव तन्त्र है। इसके अजैव तन्त्र में हमें जीवित रखने वाले वायु, जल तथा भूमि आदि है- वायु जिसमें हम सांस लेते हैं, जल, जिसे हम पीते हैं ओर भूमि, जिस पर हम रहते हैं। जैव तन्त्र में सम्पूर्ण वनस्पतियाँ, जिनसे हमें भोजन प्राप्त होता है और हमारे आसपास रहनक वाले अनेक जीव जन्तु इत्यादि हैं।

भारत में टिकाऊ और सतत विकास की नीतियों और विभिन्न कार्यक्रमों के पीछे यही उद्देश्य रहा हैकि पारिस्थितिकी तन्त्र के साथ संतुलन कायम रखना ही हमारे सामाजिक-आर्थिक विकास तथा आर्थिक प्रगति का आधार रहा है। जल, पर्यावरण और पारिस्थितिकी तन्त्र के मध्य के महत्वपूर्ण सम्बन्ध को हमने समझा और उसे इस प्रकार के टिकाऊ तरीकों बदलाव दिया कि हम प्राकृतिक सम्पदा को बिना हानि पहुँचाए अपने समक्ष आने वाली चुनौतियों से निपट सकें और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। केवल इतना ही नही, अब तो हम प्राकृतिक संसाधनों के आंकलन तथा इनकी वृद्वि पर भी प्रमुख रूप से ध्यान दे रहे हैं और अपनी भूवैज्ञानिक गतिविधियों को भी सार्वजनिक हिताय के जोड़ रहे हैं।

                                                                

भारतीय उपमहाद्वीप को प्रकृति ने मनोरम भौगोलिक विविधता का वरदान प्रदान किया है। इस महाद्वीप में वन हैं, नदी-सरोवर हैं और जलवायु की ऐंसी विविधता उपलब्ध है जिसके अन्तर्गत अनेक प्रकार जीवधारी यहाँ पनपते हैं। महासागर की गहराई के अनेक स्तरों पर अनेक प्रकार के जीवधारी होते हैं जिससे समुद्री जीवन और पारिस्थितिकी तन्त्र बहुआयामी हो जाता है।

वैज्ञानिकों अध्ययनों के अनुसार, अभी तक विश्वभर में ढाई लाख समुद्री जातियों एवं वनस्पितयों की ही पहिचानी जा सकी हैं और अनुमान है कि लगभग बीस लाख समुदी प्रजातियों की पहिचान करना अभी शेष है। उदाहरण के लिए, अंडमान निकोबार द्वीप समूह में गरम, नम ओर पर्याप्त वर्षा वाली विषुवत रेखीय जलवायु होने के कारण अनेक वनस्पतियों से युक्त हरी-भरी धरती है।

यहाँ विश्व की दूसरी सबसे अधिक मूँगे की चट्टानें उपलब्ध हैं। भारत-प्रशांत क्षेत्र की मूँगे की चट्टानों के पारिस्थितिकी तन्त्र में बहुत नाजुक परन्तु दिलचस्प जीवन वाले जन्तु पाये जाते हैं। गुजरात, जैव-विधिता की दृष्टि से भारत का सर्वाधिक समृद्व प्रदेश है, जहाँ लगभग 7,500 प्रजातियों के जन्तु तथा वनस्पतियाँ उपलब्ध हैं। इनमें 2,550 एन्जिओस्पर्म्स प्रजातियाँ हैं और 1,366 प्रकार के कशेरूक (हड्डी वाले) प्राणी हैं जिनमें 574 पक्षी प्रजातियाँ हैं। बाकी कशेरूकियों में स्तनपायी, सरीसृप, उभयचर एवं मछलियाँ इत्यादि हैं।

जैव-विविधता प्रकृति के पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा उत्तर-पूर्व भारत में भरपूर जैव-विविधता उपस्थित है। इस क्षेत्र में हिमालयी और इण्डों-वर्मीज जैव-विविधता के अनेक क्षेत्र हैं जहाँ अनेक प्रकार के जीव एवं वनस्पतियाँ अपने प्राकृतिक परिवेश में पाये जाते हैं। इस दौरान, पूर्वोत्तर भारत के स्थानीय जैव-संसाधनों को अनेक खतरों के साथ भी जूझना पड़ रहा है, जैसे मानव की जनसंख्या में वृद्वि से जैव प्रजातियों का पर्यावास का नष्ट होना, अवैध-खनन, पर्वतीय क्षेत्रों में जमीन का खिसकना तथा औषधीय वनस्पतियों का अँधाधुंध एवं अवैध दोहन आदि, अब सरकार इन खतरों को दूर करने के लिए अनेक उपाय कर रही है।

                                                            

पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए और संरक्षित रखने की दिशा में समग्र नीति को अपनाते हुए, भारत के द्वारा अनेक प्रकार के कदमों को उठाया जा रहा है। भारत में एक बार प्रयोग किये जाने वाले प्लास्टिक के निर्माण, आयात, भण्ड़रण, बिक्री एवं प्रयोग पर एक जुलाई, 2020 से पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। इस प्रकार की प्लास्टिक की उपयोगिता कम और कचरा फैलाने की प्रवृति अधिक होती है। सरकार का एक अन्य तथा महत्वपूर्ण प्रयास नेशनल ग्रीन इण्डिया मिशन को आरम्भ करना रहा है।

यह प्रयास जलवायु परिवर्तन को रोकने अथवा उसके कुप्रभावों को न्यूनतम करने के लिए राष्ट्रीय योजना के अर्न्गत आरम्भ किये गये आठ मिशनों में से एक है, जिसे देश के जैविक संसाधनों और सम्बन्धित आजीविका को जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों से बचाने के लिए आरम्भ किया गया था। इसका एक अन्य उद्देश्य भारत के वनक्षेत्र की रक्षा करना और उसे पुनर्स्थापित करना तथा उसमें वृक्ष् कर जलवायु परिवर्तन का जवाब देना है। राष्ट्र के लिए पारिस्थितिक स्थिरता, जैव-विविधता का संरक्षण और भोजन, जल तथा आजीविका सुरक्षा पर वानिकी के महत्वपूर्ण प्रभावों को पहिचानना भी इसका एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।