कर्ममय जीवन      Publish Date : 16/12/2024

                               कर्ममय जीवन

                                                                                                                                                             प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

वेद में एक इच्छा व्यक्त की गई है “जीवेत शरदः शतम्” । यह इच्छा केवल सौ वर्ष के जीवन की नहीं है, यह सौ वर्ष के कर्ममय जीवन की अभिलाषा है। जीवन के पहले 25-30 वर्ष बिना कुछ किए बीत जाते हैं, इसलिए हमें अन्य 100 वर्ष कर्ममय जीवन जीना चाहिए। जैसा कि संस्कृत भाषा में कहा गया है “आदीनः स्याम शरदः शतम्” , जिसका अर्थ है कि कर्ममय जीवन का उद्देश्य गरीबों से मित्रता करके उनकी सेवा करना है। वेद के वाक्य का सार यही है। श्री कृष्ण वसुदेव-देवकी की 8वीं संतान थे। उनका जीवन 120 वर्ष कर्ममय रहा। उनके माता-पिता उनकी मृत्यु तक जीवित रहे। इसका अर्थ है कि वे 140 वर्ष से अधिक समय तक जीवित रहे होंगे।

 हम भी दृढ़ निश्चय करें कि हम अपने जीवन को कर्म प्रधान बनाने का प्रयास करेंगे।

जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महापुरुषों ने जो कार्य किया, उसके आदर्शों का खजाना हमारे पास है। 

गीता के अनुसार इस संसार में, जो व्यक्ति मन और आस-पास की परिस्थितियों के बीच पूर्ण संतुलन बनाए रखता है, वह अपने मन का स्वामी होता है और यही उसकी सफलता का कारण है। “सुख-दुःखे समे कृत्वा” का अर्थ है कि व्यक्ति तभी सफल होता है जब वह परमानंद और पीड़ा दोनों में मन को पूरी तरह से स्थिर रखने की कला हासिल कर लेता है।

 जीवन में अनेक विपत्तियां आती हैं जिनके अनेक कारण होते हैं। भारत भूमि पर अनेकों महापुरुषों ने अपने मन को सभी परिस्थितियों में एकरूपता बनाए रखने के आदर्शों को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया है, चाहे वे अनुकूल हों या प्रतिकूल।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।