देश में कृषि विकास की समस्या Publish Date : 01/12/2024
देश में कृषि विकास की समस्या
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
हमारे देश में खेती का विकास सही तरीके से नहीं होने के बहुत से कारण हैं. जैसे, किसानों को कृषि के तकनीकी ज्ञान की कमी, उन का कृषि पत्र-पत्रिकाओं को न पढ़ना, नई रिसर्च को न अपनाना, सरकार पर ज्यादा निर्भर रहना, आधुनिक कृषि उपकरणों का न करना, बुवाई समय पर न करना, साहूकारों व सूदखोरों से लिए कर्ज से दबा होना, कमजोर माली हालत, फसलों पर बीमारी व कीटों का हमला, उपज के वाजिब दाम न मिलना, गांव में बिजली न होना आदि।
उपरोक्त समस्त कारणों के अलावा एक खास कारण हमारे यहां कृषिगत जोत के आकार का कम होना भी एक महत्वपूर्ण समस्या बनती जा रही है। छोटी जोत होने से काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, यानी जोत के छोटी होने से खेती अपनी क्षमता के हिसाब से विकास नहीं कर पा रही है और इससे हमारी उत्पादकता लगभग ठहर सी गई है।
आज देश में जोत का आकार महज 1.3 हेक्टेयर रह गया है और यह जोत का यह आकार लगातार कम होता जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप, खेती से हमें उत्पादन पूरा नहीं मिल पा रहा है और किसानों की जोत छोटे टुकड़ों में बंटती जा रही हैं। इन में से कुछ की जोत तो अब इतनी छोटी हो चुकी है कि ट्रैक्टर का इस्तेमाल तो दूर की बात है, हल चलाने में भी दिक्कत आ रही है। ऐसी छोटी जोत के मालिक किसान खेती के विकास के लिए खेती में निवेश बढ़ाने में भी कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं।
इसके साथ ही अत्याधिक रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के उपयोग के कारण, मिट्टी की गुणवत्ता खराब होती जा रही है। ऐसी छोटी जोत वाले किसान ही इस समय देश में सब से ज्यादा हैं, जिन से पूरे देश का उत्पादन सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। ऐसे किसान ही पूरे देश के औसत उत्पादन को कम कर देते हैं, जिस के चलते देश के सामने खाद्य आपूर्ति की समस्या बढ़ती जा रही है।
खेती में आ रहे आधुनिक बदलाव का प्रभाव इन छोटी जोत वाले किसानों पर दिखाई नहीं दे रहा है। इन के हालात तो पहले जैसे ही बद से बदतर होते दिखाई पड़ रहे हैं। छोटी जोत वाले किसान खेती की किसी भी आधुनिक तकनीक या मशीन का अपने खेतों में इस्तेमाल करने में असमर्थ हैं। साथ ही, खेती की लागत में भी लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बड़े खर्च के साथ छोटी जोत वाले खेतों में खेती करना फायदे का सौदा नजर नहीं आ रहा है।
इस समस्या से निजात पाने के लिए पूरे देश में कारगर भूमि सुधार की अविलम्ब आवश्यकता है। खेतों के एकीकरण से न सिर्फ किसानों को लाभ मिलेगा, बल्कि सरकारी योजनाओं का भी सही तरीके से संचालन करने की सुविधा रहेगी।
1950 और 1960 के दशक में पंजाब व हरियाणा में जोतों का एकीकरण किया गया था, परिणामस्वरूप, यह दोनों ही राज्य देश की खेती में अहम योगदान देने लगे और आज भी यह देश के कृषि के मुख्य राज्य हैं। खेती की आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल सब से ज्यादा इन्हीं दोनों राज्यों में किया जा रहा है।
जबकि देश के अधिकतर राज्यों में जमीन उत्तराधिकार कानून इस तरह का है, जिसमें जमीन का बंटवारा न केवल भाइयों के बीच होता है, बल्कि विवाहित बहिनों के बीच भी होता है। विवाहित बहिनों के पति कहीं और रहते हैं और जमीन कहीं और होती है. जिसके परिणामस्वरूप गैरहाजिर जमींदारों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है।
ये गैरहाजिर जमींदार मुफ्त में मिली जमीन ठेके या लीज पर देने से कतराते हैं, क्योंकि वह इस बात से डरते हैं कि ठेकेदार जमीन का मालिकाना हक हासिल कर सकता है, क्योंकि हमारे देश में रिश्वत के बल पर कुछ भी करना संभव है। पटवारी व तहसील के अधिकारी ऐसे काम चुटकियों में अंजाम दे सकते हैं और वह ऐसा करते भी आए हैं। जमीन हड़पने का यह काम देश के गांवों में आम बात है। जमीन का मालिक गांव में नहीं रहता है, तो उस की जमीन कब किसी और के नाम चढ़ जाती है, उसे इस बात पता भी नहीं चल पाता है। इस डर की वजह से गैरहाजिर जमींदार अपनी जमीन लीज या पट्टे पर नहीं देते हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि उस जमीन पर खेती नहीं हो पाती है। इससे देश में खाद्य समस्या को बढ़ावा मिलता है।
यह समस्या केवल उन गैरहाजिर जमींदारों की नहीं है, बल्कि उन की भी है जो परिवार गांव छोड़ कर शहरों में रहते हैं। वह भी अपनी जमीन भी लीज पर या पट्टेदार को नहीं देते। ऐसे परिवार केवल नाम के लिए किसान होते हैं और उन की जमीन पर खेती भी नहीं की जाती है या होती भी है, तो कोई बड़े निवेश के साथ नहीं की जाती है। बस, जो कुछ बो दिया वह ही काट लिया जाता है। पैदावार उन्हें चाहे जितनी भी मिले, उस का उन पर कोई असर नहीं पड़ता, क्योंकि उन का मुख्य काम तो शहर में कुछ और होता है। वह तो केवल टैक्स बचाने के लिए ही किसान बने रहते हैं। उन के खेतों से कम उत्पादन भी खाद्य समस्या को बढ़ावा देता है, क्योंकि ऐसे किसानों की संख्या भी देश में अच्छी खासी है।
यह समस्या इसलिए हो रही है क्योंकि हमारे देश में जमीन के उत्तराधिकार का मुद्दा बहुत पेचीदा है। इसके अलावा पटवारी भी इस समस्या को बढ़ाने में काफी योगदान देते हैं, क्योंकि पटवारी जमीन की दाई होता है। कानून में जो कमियां हैं उन का वह पूरा फायदा उठाता है। जमीन बेचने, खरीदने व जमीन की नापतौल आदि कराने में किसानों को रिश्वत तो देनी ही पड़ती है.। सब से बड़ी बात यह है कि मोटी रिश्वत दे कर किसी की जमीन अपने नाम भी कराई जा सकती है, और ऐसा होता भी है। जमीन की फरहद या बारासाला वगैरह कागजात तहसील से निकलवाने के लिए भी पटवारी व दूसरे अधिकारियों को रिश्वत देनी पड़ती है।
इस के अलावा जमीन संबंधी मुद्दों पर नीतिगत कमी है। जमीन अधिग्रहण व पुनर्वास के दौरान मुआवजे की मौजूदा नीति किसानों के हित में नहीं है। मौजूदा नीति खेती को ध्यान में रख कर नहीं बनाई जाती है। उपजाऊ व सिंचित जमीनों पर रिहाइशी मकान, मॉल्स, फैक्टरीज आदि बनाई जा रही हैं, जिस से देश में उपजाऊ व सिंचित जमीन की कमी हो रही है।
छोटी जोत से निजात पाने के लिए पूरे देश में कारगर भूमि सुधार की आवश्यकता तो है ही, साथ ही इस का सटीक विकल्प कम्यूनिटी फार्मिंग यानी सामूहिक खेती भी हो सकता है। मिलजुल कर खेती करने से पैदावार तो बढ़ेगी ही, साथ ही आधुनिक कृषि यंत्रों के इस्तेमाल भी हो सकेगा, जिस से समय पर बुवाई और कटाई हो सकेगी और पैदावार लागत में काफी कमी आएगी। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किसानों को तो ईमानदारी से काम करना ही होगा और सरकार को भी इस के लिए किसानों के हित को ध्यान में रख कर नए नियम और कानून बनाने होंगे।
वैसे तो जमीन को छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटने से रोकने के लिए कई राज्य सरकारों ने चकबंदी सिस्टम की शुरुआत की, लेकिन वह भी देश के सभी राज्यों में पूरी तरह से लागू नहीं हो पायी है। जिन राज्यों में या इलाकों में चकबंदी की भी गई है उनमें भी कोई कारगर नतीजे सामने नहीं आए हैं, बल्कि किसानों की समस्या और अधिक बढ़ी ही है। जैसे पटवारी/कानूनगो/तहसीलदार वगैरह को मोटी रिश्वत दे कर दबंग किसान अच्छी जमीन हथियाने में लगे रहते हैं।
बहरहाल, छोटी जोत की समस्या से छुटकारा पाने के लिए हमें मिलजुल कर खेती करनी चाहिए। इस व्यवस्था के तहत बड़े पैमाने पर काम निबटाया जा सकता है। वैसे भी आज खेती के लिए मजदूर नहीं मिल पा रहे हैं, जिसके कारण किसान परिवार आपस में मिल कर काम निबटा सकते हैं। नेशनल बैंक फार एग्रीकल्चरल एंड रूरल डेवलपमेंट यानी नाबार्ड ने खेती के इस सिस्टम को जोर शोर से चलाने की शुरूआत की है। आंध्रप्रदेश में छोटे स्तर पर इस की शुरुआत हो भी चुकी है।
हालांकि, हमारे देश में इस सिस्टम को चला पाना इतना आसान नहीं है, क्योंकि नेताओं ने देश को धर्म, जाति, समाज में बांट रखा है. लेकिन दूसरा चारा भी तो नहीं है। अगर हम इन रुकावटों को किनारे कर मजबूती के साथ आपस में हाथ मिलाएं, तो बड़ी कामयाबी मिलना तय है। सरकार भी देश व किसानों के हित को ध्यान में रख कर जमीन सुधार के नए कानून बनाए, तो कोई बुराई नहीं है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।